Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चक टीका दशा लोक
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कुछ लोगोंकी समझ हैं कि नम दिगम्बर जिन मुद्रा का में आनोपज्ञ शासन का पालन प्रयोजनीभूत नहीं है। क्योंकि उसके बिना भी केवल ध्यानसे ही कर्मों की निजश, संसार की निवृचि और निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है क्यों कि कर्मका बन्ध और मोक्ष अपने परिखामपर निर्भर है अतएव इस तरह के तपश्चरण की आवश्यकता नहीं है ।
इस तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को ही आत्मसिद्धिका साधन मानकर जो तपश्चरण को अनावश्यक समझते हैं उनको भी वह बताने के लिए कि तपश्चरण के बिना न तो श्रेयोमार्ग श्री सिद्ध हो सकता है और न निर्वाण हा प्राप्त हो सकता है । साथही जो जिनशासन के अनुसार मोक्ष मार्गका पालन अशक्य समझ रहे हैं उनको यह स्पष्ट करने के लिए जैनागममें जो कुछ बर्सन किया गया है उसका न तो अनुष्ठान अशक्य हैं और न प्रयोजन ही अनिष्ट है। इस कारिका के द्वारा तपस्वीका स्वरूप बताकर जैनागम के प्रतिपाद्य विषय श्रेयोमार्ग की शक्या नुष्ठानता एवं इष्ट फलवत्ता प्रकट करना कारिकाका प्रयोजन हैं क्योंकि इस कारिकामें जो तपस्वी का स्वरूप बताया गया है, वह जैनागम के सम्पूर्ण वर्णन का मूर्तिमान सार ही है। अबरा freehtata aar इस ग्रन्थ में वर्णन किया जायगा तपस्वी उसके साक्षात पिंड ही हैं। मानो मूर्तिमानस्य ही हैं। सम्पूर्ण जैनागमकी सफलता भी तपस्वितावर ही निर्भर है। यह बात दृष्टि सके यह इस कारिकाके निर्माण का प्रयोजन है।
शब्दार्थ - विषय मतलव पंचेन्द्रियोंके इष्टानिष्ट बुद्धि सरागभावपूर्वक सेव्य या असेन्य समझे जानेवाले विषयोंसे हैं, १ क्योंकि किसी भी विपयका चाहे वह ऐन्द्रिय हो अथवा अनीन्द्रिय ज्ञान होना न तो हेय ही है और न हानिकारक ही । ज्ञान तो आत्माका निज स्वभाव है, वह तो छोड़ा नहीं जा सकता। और न वह छूट हो सकता हैं। वास्तवमें छोड़ी जाती है उन विषय में रागद्वेषको भावना । अतएव कहा गया है कि विषयोंकी आशाकं वशमें नहीं हैं।
इन्द्रियां पांच हैं। उनके द्वारा जो ग्रहण करने में आते हैं के विषय सामान्यतया पांच हैं किंतु विशेषतया सचाईस है। पांच रूप, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श और सात स्वर । एक अनिन्द्रिय-- मनके विषय को भी यदि सामिल किया जाय तो अड्डाईस विषय होते हैं। इनमेंसे जिनको इष्ट समझता है उनको संसारी प्राणी सेवन करना चाहता हैं और उन्हें प्राप्त करना चाहता है। फलतः उन विषयोंके सेवन करने और तदर्थ प्राप्त करनेकी जो आकांक्षा होती है वही संसार है और वही दुखोंका मूल है। जो जीव इस विषयाशासे अनुवासित हैं। इसके अधीन बने हुए हैं वे होम और तज्जनित समस्त दुःखोंके पात्र बने हुए हैं। इसके विपरीत जो इस विपाशा रूप कामवासना अधीन नहीं रहे हैं। जिन्होंने इस आशाको अपने अधीन बना लिया वे मोक्षमार्गी हैं। इसी अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर कहा गया है कि-
१ – मनोशा मनांचेन्द्रियविषथरागद्वेषवर्जनानि च" तस्वार्थसूत्र ।