Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरसवश्रावकाचार
इदमेवेदृशमेव तत्वं नान्यन्नवान्यथा।
इत्यकम्पायसाम्भोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११॥ अर्थ-तच यही है, इसी प्रकारसे है, अन्य नहीं, अन्य प्रकारसे नहीं, इस प्रकारको सन्मार्ग-मोक्षमार्गके विषय में तलवारके पानीकी तरह जो निष्कम्प रुचि होती है वह असंशया कहाती है।
प्रयोजन--संसार और उसके दुखोंसे सर्वथा उन्मुक्त करनेवाला धर्म रतत्रयात्मक है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है । इनमेंसे सम्यग्दर्शनका लक्षण और उसके विषयभूत आप्त श्रागम तपोभृतका स्वरूप ऊपर कहा जा चुका है। अब उस सम्यग्दशवका विशिष्ट स्वरूप बताना आवश्यक है । वस्तुका स्वरूप विधिनिषेधात्मकर है। और सम्यग्दर्शन की विधि अष्टांगरूप है । अतएव उनमेसे क्रमानुसार पहले अंगका स्वरूप बताकर सम्यग्दर्शनके विधिरूप प्रथम अंगका वर्णन करना ही इस कारिका का प्रयोजन है।
शब्दांका सामान्य विशेष अर्थ...इस कारिका प्रायः सभी शब्द ऐसे है जिनका अर्थ स्पष्ट है । अतएव इस विषयमें यहां लिखनेको आवश्यकता नहीं हैं । फिर भी कुछ शब्दोंके विषय में थोडासा स्पष्टीकरण करदेना उचित प्रतीत होता है । इदम्" शब्द आगमके वाच्य तत्त्व स्वरूप या निर्देशकी सरफ संकेत करता है । और एव शब्द अवधारणार्थक है जो कि तस्वस्वरूप के विषय में द निश्चयको बताता है।
ईश" शब्द सच्चके विशेष प्रकार और उसके आशय एवं अपेक्षाविशेषको सूचित करता है । इसके साथ भी एकशब्दका प्रयोग है । अतएव उस प्रकार और उसकी अपेचाके विषय में भी निश्चित दृढताको प्रकट करता है । न अन्यत् और न अन्यथा कहकर भिन्न स्वरूप तथा भिन्न प्रकार विशेष या भिन्न अपेक्षाका कारण किया गया है। क्योंकि वस्तुतत्त्व स्वास्माकं ग्रहण और परात्माके ल्यागरूप है । केवल स्वारमाके ग्रहण या केवल परात्माकं स्यागरूप कथनसे मिध्या एकान्तरूप होनेके कारण वस्तुके स्वरूपका ठीकर न तो बोध ही हो सकता है और न निश्चय ही। यही कारण है कि स्वात्माके ग्रहण और परात्माके निर्हरणरूपमें प्राचार्यने कहा कि-'सत्त्वक विषयमें इस तरहकी भावना होनेपर ही कि तत्त्व यही हे और इसी प्रकारसे है, न कि अन्य या अन्य प्रकारसे' रुचि अश्वा अद्धानमें निःशंकता मानी जा सकती है । निःर्शकतामें अकम्यता का रहना आवश्यक है। श्रद्धा अथवा प्रतातिमें चलिताचलित वृत्ति यदि पाई जाती है, तो वह अपने विषयमं अकम्म अथवा दृढ नहीं है यह सुनिश्चित है। क्योंकि जहां उभयकोटिका समान रूपसे ग्रहण होता है वही शंका-संदेह या संशय कहा अथवा माना जाता है। यही कारण है कि श्रद्धाको निःशंकताको सूचित करनेकेलिये ही "अक्षम्पा" यह विशेषण दिया है।
आयसाम्भोवत्---- कहकर जो दृष्टान्त दिया है उससे केवल साहित्यमें बतायागया अलंकार विशेष मूवित होता है इतना ही नहीं, अपितु अर्थ विशेषका स्पष्टीकरण भी होता है