Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रसमकरण्डश्रावकाचार
इस तपके मूलमें दो भेद हैं, बाल और अन्तरंग । इनमें भी प्रत्येकके बहर भेद हैं। यथा अनशन, श्रवमौदर्य वृतिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश | ये छ वा तपके भेद हैं। तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान गे छह अन्तरंग तपके भेद हैं ।
अथवा तपका अर्थ समाधि करना चाहिये। ध्यानकी पुनः २ प्रवृत्ति अथवा अत्यन्त दृढ और अधिक कालतक स्थिर रहने वाली अवस्थाका नाम है समाधि । जैसाकि प्रायः श्रेण्याय के म सातिशय अप्रमत्त और शुक्रव्यानकी अवस्था में पाया जाता है।
इस प्रकार चार विशेषणों से जो युक्त हैं वही तपस्वी प्रशंसनीय हैं। यह प्रशंसा वास्तविक मोक्षमार्ग के आराधन की अपेक्षा से हैं। क्योंकि तन्यतः मोक्षमार्ग का साधन इन चार विशेषयों में से किसी भी एक के बिना नहीं हो सकता, चारों ही विषयों से जो युक्त है वही निर्माणका साधन करने वाला वास्तव में साधु माना जा सकता है। उसके लिये तपोमृत अथवा तपस्वी शब्दका जो प्रयोग किया है उसका कारण यह हैं कि आगम के अनुकूल चलने में यद्वा मोक्षमार्ग के साधन में तपश्चरण मुख्य है क्योंकि निर्वाणकी सिद्धि संदर और निर्जरा पूर्वक ही हो सकती हैं। इनमें से मुख्यतया संवर के कारण गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेधा परीषदजय और बारित्र है । किन्तु तपश्चरण गौणतया संवर का कारण होकर भी मुख्यतया निर्जराका कारण है। अन मुमुच के लिये तपश्वरण प्रधान और आवश्यक हैं।
तात्पर्य --- श्री जिनेन्द्र भगवान के आगमका मुख्य ध्येय अथवा विषय मोक्षमार्ग है। इसका जो यथावत् पालन करते हैं उनकी ही साधु नियति अनगार आदि शब्दों से कहा है । उस मार्ग के पालन करने की तरतमरूप अवस्था भेद के अनुसार उनकी एलाक वकुश कुशील निर्गन्ध और स्नातक, अथवा ऋषि मुनि यति अनगार आदि संज्ञाएं कही गई हैं। फिर भी कमसे कम उनको कितना चारित्र पालन करना चाहिये इस घासको भी भागम में निश्चित कर दिया गया है। उतना पालन करने पर उनका चारित्र पूर्ण चारित्र की कोटि में गिनलिया गया है ।
आगम में इस चारित्र के निर्देश स्वामित्व यदि अनुयोगों का कथन करते हुए विधान के सम्बन्धमें एक दो तीन चार पांच संख्यात श्रसंख्यात और अनन्त भेद भी अपेक्षा मंदों के अनुसार बताये गये हैं। इनमें चार चार प्रकार का जो वर्णन है वह चार आराधनाओं की अपेक्षा अथवा इस कारिका में कहे गये चार विशेषखों के द्वारा विधिनिषेधात्मक चतु विभ आचरण की अपेक्षा समझना चाहिये | क्योंकि यहां पर तपस्वी के जो चार विशेषण दिये है उनमें से पूर्यार्थ में तीन त्याग या निषेधरूप और उत्तरार्ध में एक विधिरूप या कर्तव्यको बताने वाला
१--इनका विशेष अर्थ जानने के लिए देखो तस्थार्थसूत्र श्र० ६-४६ की टोकाए - सर्वार्थसिद्धि राज कार्तिक आदि । २-मूलाचारादिमें ।
- राजवार्तिक १- १४, यथा-- --" चतुर्धा चतुर्यमभेदात् । ४.... दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना