Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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जाय कि ये दोष ये हैं और साथही यह कि येही ऐसे दोष हैं जिनके कि रहनेपर वास्तवमें चाण-पना बनही नहीं सकता । श्रथवा इनके न रहनेवर ही श्राप्तपना बन सकता है। यही कारण है कि ग्रन्थकार यह पर प्राप्त की वास्तविक निर्दोषताकी परीक्षाके लिये स्वयं उन दोषांका नामोल्लेवा करके बताते हैं । ——
क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तक भयस्मयाः ।
न रागद्वेषमहाश्व यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥६॥
अर्थ --- विद्वानों अथवा आमायके द्वारा प्रष्ट यद्वा प्रशंसनीय प्राप्त यही बताया गया है जिसमें कि ये दोष नहीं पाये जाते
बुवा-भूख, पिपासा - प्यास, जरा-बुढ़ापा, आतंक-रोग, जन्म- श्रायुकर्मके उदयसे मघान्तरका धारण-चार गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें उत्पन्न हाना, अन्तक-- मरण-- वर्तमान श्रयुका इस तरह से पूर्ण हो जाना कि जिसके समाप्त होनेमे पूर्वही नवीन आयुकर्मका चार गतियोंसे किसी भी अवश्य ही उत्पन्न होनेके असाधारण अन्तरंग कारणरूप कर्मका चन्ध होगया हो, भय-- मोहनथ कर्मा वह भेद जिसके कि उदय अथवा उदीरणाम ऐसी मानसिक दुर्बलनाएं उत्पन्न हुआ करती हैं जिनको कि लोकमें डर शब्द से कहा करते हैं, और जो आगममें इहलोकभय परलोकभय श्राखभय अगुप्तिभय मरणभय वेदनाभय और आकस्मिक भयके नाम संख्यायें साम गिनाई गई हैं, समय--जाति कुल आदिके विषय में गर्व जिसकी कि संख्या आठ विषयमेद अनुसार परिगणित है। (आगममें बताई हैं) और जिनका कि ययं ग्रन्थकार श्रागेर चलकर नामो लेख करेंगे, राग-ऐसी कपाय जिसके कारण त्रियमें ताका भाव जागृत हुआ करता है और ऐसे अप्राप्त विषयको प्राप्त करनेकी तथा प्राप्त विषय विमुक्त न होने की अन्तरंग भावमा उत्पन्न हुआ करती हैं, द्वेष-ऐसी कपाय जिसके कि निमिनले रोगसे विपरीत भाव हुआ करता हूँ विषयमें अनिताकी कल्पना तथा वह मुझे कभी प्राप्त न हो या उससे मेरा सम्बन्ध कब छूटे म तरही भावना हुआ करती है, मोह - आत्माकं शुद्ध एवं वास्तविक रूपमें अथवा तवां विव में मूर्याभावका रहना । इस तरह ये ग्यारह दोष हैं। इनके सिवाय "च" शब्दसे जिनको यहाँ बताया है के साथ दो और भी हैं। यथा-चिंता धरति निद्रा विस्मय विवाद छेद और स्वेद । इस तरह कुल मिलाकर दोषोंकी संख्या अठारह होती है जो कि प्राप्त नहीं रहा करते--प्राप्त के द्वारा इनको उच्छिन्न करदिया जाता है। जो कि कार के अभाव से या उसके दुर्बल हो जानेसे या तो स्वयं ही नहीं हुआ करते । यद्वा यह भी कह सकते हैं कि थाम में इनके उत्पन्न होने की योग्यता ही नहीं रहा करती ।
"च" शब्दसे जिनका ग्रहण किया गया है उन उपर्यु लिखित सात - दोषोंका अर्थ प्रसिद्ध
१- अल्पशक्तिक ही भयातुर हुआ करता है। 'श्रीमती' | गं०जी० । २- ज्ञानं पूर्णा कासी " च्यादि ।