Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरएबायकाचार है, जानिमद एवं दीनता आदि हीनताओम राहत है, वहीं क्षपक श्रेणिका आरोहण कर सकता है। इस विषयमें ध्यान देने की बात यह है कि ये सम क्षपक श्रेणी के प्रारोहणमें कारण अवश्य है। किंतु ये ऐसे असाधारण कारण नहीं हैं कि केवल इन योग्यता प्रकट करने वाले गुणोंस की उस जीप के मोहका क्षपण हो जाय । उस क्षण के लिए साधकतम कारण नो जीव के वे अन्तरंग परिणाम विशेष हैं जिनकी कि पागम में "करण"१ इन नामसे कहा है। उसके होनेपर ही पाक अधीका कार्य या भारोहण हो सकता है। हां, यह बात सत्य है कि इन बताई गई पोग्यतामों के बिना वे कारणरूप परिणाम हो नहीं सकते किंतु यह बात भी निश्चित है कि इन पोरगतामकिडी बलपर वे करवरूप परिणाम ही ही बांय यह नियम नहीं है | एतरव इन योग्यबाभोंक विषयमें इतनाही कहा जा सकता है कि मोहके क्षपणा के लियेभी कारण अवश्य है । स्यों कि इनके बिना यह कार्य होता नही है । परन्तु इन योग्यताओंको ऐसा समर्थकारण नहीं कदा जा सकता कि इनके होने से प्रकृत कार्य होही जायगा । किंतु क्षीणमोहर निथ योग्यताके विश्य मेंबर अवश्य कहा जा सकता है कि इसके होनेपर पानित्रय का अभाव अथवा सर्वहता का प्रादुर्भाव नियम से होकर ही रहेगा।
इस माह आप्तके विषयमें जो ग्रन्थकारने यह कहा है कि प्रकृत निदोपता आदि नौन विशेपखासे युक्त ही प्राप्त हो सकता है, अन्यथा आप्तपना बन नहीं सकता सो सर्वथा युक्तियुक्त है मितु इस सरह भाप्त कहां और शान संभव है इस विषय में विचारशील विद्वानोंको तचत् भाप्तों
बाइरूपसे चले भाये तथाकथित वचनोंका निष्पत एवं सूक्ष्मक्षिकाके द्वारा परीक्षण करना चाहिये। क्योंकि उन पचनोंक द्वारा ही उनके वक्ताकी वास्तविक योग्यताका परिचय मिल
अन्थकारने प्राप्तके जो तीन विशेषण दिये हैं उनमें से पहिला विशेषण उत्सन्नदोष है। इस विषयमें पाठकोंको यह जिज्ञासा होसकती है कि ये दोष कौन है जिनसे कि आसको सर्वथा रहित होना ही चाहिये । इस तरहकी जिज्ञासाका कारण भी है। क्योंकि थर्मके स्वरूपके मूल बका विषयमें भाजकल भनेक तरहकी मान्यताएं प्रचिलित हैं। भिन्न प्रकारकी इन मान्यता
ओंके अध्पयनके बाद यह अवश्य ही शंका उपस्थित होती है या हो सकती है कि वास्तवमें आत किस सरहका होना चाहिये ? और उसमें तथाकथित गुणोंका अस्तित्व संभव है या नहीं ? साप ही यह कि यहाँपर जो ग्रन्थकारने आप्तको सर्वथा दोषोंसे रहित रहना रवाया है इस तरह का भाप्त कौन हो सकता है या कौन है ? इस तरहकी सब शंकाओंका निरास अथवा जिज्ञासा पोका समाधान तमी संगर होसकता है जबकि उन दोषोंका परिज्ञान हो जाय-यह मालुम हो -साधारणम् कारणम् करणम् ।।
२-बारहवां गुणस्थान ! ३ पूर्वापराविरोधेन परोने व प्रमाएयत्ताम् । अथवा-स त्वमेवासि निहोंगे युधि शाचगंभिषा अविरोषो पदिष्टम् प्रसिदन म बायले स्वारि।।