Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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मकरावकाचार
बोलना है तो उसके वचनों में स्वतः प्रामाणिकता कभी भी नहीं मानी जा सकती। फिर धर्म जैसे विषय का तो प्रामाणिक वक्ता पाना ही उसे किस तरह जा सकता है। क्यों कि धर्मका सम्बन्ध इन्द्रियागोचर आत्मासे है जिसका कि सत्यपूर्ण एवं स्पष्ट ज्ञान सर्वऩको ही हो सकता है । एवं वह सर्वज्ञता भी जिसके कि द्वारा मूर्त अमूर्त सभी पदार्थ उनके गुणधर्म और उनकी कालिक सम्पूर्ण अवस्थाओं का साक्षात्कार हुआ करता है तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि वह व्यक्ति साधारण संसारी जीवों में पाये जानेवाले दोषोंसे सर्वथा रहित नहीं हो जाता। अस्तु यह बात युक्तियुक्त और अच्छी तरह अनुभव में आनेवाली हैं कि इन दोनों ही गुणोंको प्राप्त किये बिना कोई भी व्यक्ति यागमसिद्ध विषयोंके प्रामाणिक वनका वस्तुतः अधिकार प्राप्त नहीं कर सकता | अतएव मोक्षमार्गके वक्ता श्राप्तमें इन तीनोंही गुणों का रहना अत्यावश्यक है इन तीन गुणों का श्राप्तमें रहना दिगम्बर जैनागममें ही बताया गया हैं । अतएव उसका ही प्रतिपादित धर्म निर्दोष एवं सत्य होने के कारण विश्वसनीय, आदरणीय तथा आचरणीय है।
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प्राप्त परमेष्ठी के प्रकृत तीन विशेषणोंमें यह बात भी जान लेनी चाहिये कि इनमें उत्तरीतरके प्रति पूर्व २ कारगा है। मतलब यह कि निर्दोषता ( वीतरागता ) सर्वज्ञatar कारण है। दोषोंका (जिनका कि आगेकी का रिकामें उल्लेख किया जायेगा ) नाश हुए बिना सर्वज्ञता प्राप्त नहीं हो सकती । और सर्वज्ञता हुए बिना आगमेशित्व बन नहीं सकता। क्योंकि इन दोनों गुणों को प्राप्त किये बिना यदि कोई भागमके विषयका प्रतिपादन करता है तो वह यथार्थ एवं प्रमाणभृत नहीं माना जा सकता । आगमका विषष परोक्ष है। न तो वह इन्द्रियगोचर है और न अनुमेय ही है। ऐसे विषयमें प्रत्यक्ष – पूर्ण प्रत्यक्षही प्रवृत्त हो सकता है। एकदेश प्रत्यक्ष भी चिपके सशांको ग्रहण नहीं कर सकता । अतएव श्रेयोमार्ग या धर्माधर्म तथा उसके फलका यथार्थ वर्णन सर्वज्ञता द्वारा ही हो सकता है और वही प्रमाण माना जा सकता है। किंतु यह सर्वज्ञता तबतक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि वह व्यक्ति समस्त दोषों को निर्मूल नहीं कर देता । इसलिए पूर्व पूर्व को कारण और उत्तरोवरको काय मानना उचित एवं संगत ही हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि उत्तरांवर के प्रति पूर्व २ की व्याप्तिनियत है । अर्थात् जहां आगमेशित्व है वहां सर्वज्ञता भी अवश्य है । और जहां सर्वज्ञता है वहां निर्दोषता ( वीतरागता) मी नियत है। किंतु इसके विपरीत यह नियम नहीं है कि जहां २ निर्दोषता ( वीतरागता ) है वहां २ सर्वज्ञता भी है और जहां २ सर्वज्ञता है वहां २ आगमेशित्व भी नियत हैं। क्योंकि क्षीणमोह निर्ग्रन्थ निर्दोष वीतराग दो कहे जा सकते हैं परन्तु ये सर्वज्ञ नहीं माने या कहे जा सकते हैं। यद्यपि वह वीतरागता सर्वज्ञता का साधन अवश्य हैं। हां यह बात ठीक है कि राम द्वेष और मोह का अभाव होजानेसे प्राप्त हुई निर्दोषता ( वीतरागता ) के बिना छातिश्रय का प्रभाव अथवा सर्वज्ञता की सिद्धि नही हो सकती। इसी तरह यह भी नियम नहीं है कि जो २ स हों वे सब आगम के ईश-उपत्र बक्ता हों ही। इस सम्बन्धमें पहले भी लिखा जा चका