Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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गलकरएडश्रावकाचार
का निर्हरण अत्यावश्यक है। ___इस कारिकामें जो पारलौकिक प्राप्तका स्वरूप बताया है वह लौकिक अर्थो का विरोधी नहीं है फिर भी इस कथन से यह बात अवश्यही स्पष्ट होतीहै कि लोकप्रसिद्ध अर्थ पर्याप्त नहीं है यह लौकिक विषयोंतक ही सीमित है और अत एव आंशिक है । पारलौकिक प्राप्तका जो यहां स्वरूप बताया है वह पूर्ण है, निर्दोष है, और लौकिक तथा पारलौकिक सभी विषयों की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालता है । जिस तरह१ श्रुतिसे अविरुद्ध ही स्मृतियार प्रमाण मानी जाती हैं, न कि स्वतंत्र अथवा अतिसे विरुद्ध । इसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये । पारलौकिक आप्तसे जो अविरुद्ध हैं वे ही लौकिक प्राप्त प्रमाण माने जा सकते हैं न कि स्वतंत्र तथा पारलौकिक आपके विरुद्ध भाषण करनेवाले । यह थात पारलौकिक प्राप्तका असाधारण सत्य निर्वाध और पूर्ण लक्षण कहे विना नहीं मालुम हो सकती थी । इसलिये भी इस कारिकाका जन्म अत्यावश्यक सिद्ध हो जाता है। क्योंकि ऐसा हुम बिना साधारण जीव लोक प्रसिद्ध अर्थको ही पूर्ण मानकर ठगे जा सकते थे-थोखेमें भासकते थे और वास्तविक अर्थस अन्नात रहकर श्रेयोमागकै विषय से बञ्चित रह जाते।
शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ
माप्त शब्दका सामान्य अर्थ ऊपरके कथनसे ही मालुम होजाता है और विशिष्ट अर्थ यह है जो कि इस कारिकामें दियेगये तीन विशेषणोंसे मालुम होता है। तीनों ही विशेषणोंका प्राशय मागे बताया गया है । तथा अन्य ग्रन्थोंसे३ भी जाना जा सकता है कि इन तीन विशेषणोंके बिना किस तरह आप्तपना बन नहीं सकना । उन सरका निष्कर्ष यही है कि पूर्ण वीतरागता प्राप्त किये बिना अज्ञानका सर्वथा विनाश हो नहीं सकता–सम्पूर्ण ज्ञान अथवा सर्दशता प्राप्त नहीं हो सकती और उसके विना श्रेयोमार्गका यथार्थ वर्णन नहीं हो सकता । अतएव जो पूर्व वीतराग और सर्वश है वही वास्तव में मोचमार्गका यथार्थ वक्ता हो सकता है | और उसीको वास्तविक प्राप्त कह सकते हैं।
आप्तत्वके लिये सर्व प्रथम जिस गुणको आवश्यकता है वह है उत्सत्रदोषता-जिसका अर्थ है कि छूट गये हैं दोप---सर्वसाधारण संसारीजीवोंमें पाये जानेवाले सभी दोष? -अ टियां जिनकी । वे दोष प्रकृतमें कौनर से लेने चाहिये यह बात आगेकी कारिकामें बताई जायमा। "उत्समदोष" की जगह "उच्छिनदोष" ऐसा भी पाठ पाया जाता है। दोनों ही शन्दोंके प्रा. १- द्वादशांग वेद अथवा अंग-अंगोंसे उद्धृत सिद्धान्त शास्त्र । २--स्मृति-संहिता धर्म शास्त्रादि । ३- त्वार्थ सूत्रकी टीकाएँ, आपतमीमांसा प्राप्तपरीक्षा, एवं प्रमेयरलमाला प्रमेयकमममार्तण्ड अष्टसह
श्री आदि न्यायग्रन्या ४-पाषा भर्य देषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा ष मृत्युश्च स्वेकः खेदा मदो रतिः । विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश धुवाः । निजगत्सर्वभूतानां दोषाः साभारणा इमे ।। परतवर्ष विनिमुक्तः सोयमाप्तो निरंजनः । विद्यते येषु ते नित्य तेत्र संसारिणे मताः ॥