Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डभावकाचार गह स्पष्ट है। आयु कर्म जो विद्यमान है उसके नष्ट न होने तक तीन अघाति कर्मों में से बिन २ कर्मों का उदय जिसरूप में और जितने प्रमाणमें उचित आवश्यक है उतना अवश्य रहा करता है। किन्तु निम्न दशामें-मोहके तीब्रोदय की अवस्थामें जैसा कुछ ये कर्म अपना फल दिया करते. वैमाही मोहकं प्रभाव में भी मानना बिना कारणके कार्यका होना बताना है जो कि नितान्स असंगत है। अतएव मोहके तीनोदय या उदीरणा आदिक साहचर्यके निमित्तसे होनेवाले अपातिक कमाके कार्य-- खुधा, पिपासा, नोम, जपसगे भव आदिको मोहसे सर्वथा रहित जीवन्मुक अनन्तचतुष्टय युक्त अप्रमत्तदशाकी भी सर्वोपरि अवस्थाको प्राप्त सर्वज्ञ भगवान के बताना अयुक्त ही नही मोहके विलाससे अपनेको सर्वथा अस्त प्रमाणित करना है। और वास्तविकता की दृष्टि एवं ज्ञानसे रहित सूचित करना है। ___मोहनीय कर्मके तीन विभाग है । दर्शन मोह, काय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय । इनमें पूर्व २ कारण और उत्तरोत्तर कार्य है। फलतः नोकपाय अपना फल देने या कार्य करने में काय येदनीय का और कपाय वेदनीय दर्शनमोहका अनुसरण किया करती है, भय नोकपाय अथवा सभी हास्यादिक, नो कषायोंका कार्य दर्शनमाहसहचारी, अनन्तानुबन्धी कषाय महचारी, अफ स्वास्यानावरण सहचारी, प्रत्याख्यानावरण सहचारी, तथा संज्वलन कपाय सहचारी इसतरह पांच प्रकारका और एक इन सभी के साहचर्य से रहित इस तरह मुख्यतया छह सरहका हुमा करता है। इनसे किसीभी ऊपरकी दश में नीचे की अवस्था वाले कार्यको मानना या बताना जिनेन्द्र भगवानकी प्ररूपणाके अनुकूल नहीं है।
ऊपरके इस कथनसे यह बात ध्यानमें आ सकती है कि भय नामकी नोकपाय सर्वत्र एक सरीखाही फल नहीं दिया करती और न देही सकती है। मिथ्या दृष्टि जीवके भयनोकषाय जिस तरह जीविताशंसा या मरगण भय को उत्पन्न करके मांस भक्षण जैसे अवध कार्य में प्रकृति करा दिया करती है उस तरह सम्यग्दृष्टि आदिको नहीं । इसी तरह श्रापक आदिके विषय में भी समझन्य चाहिये । इस अन्तरका कारण सहचारी मिथ्यात्व या अनन्तानुबन्धी आदि कपापोंका सहार एवं प्रभाव ही है। अतएव जहां सभी मोह प्रकृतियोंका विनाश हो चला है वहा तत्सहचारत कार्यो का निरूपण किसी भी तरह उचित नहीं है । इसके सिवाय यदि यह बात न मानी जायगी तो पानिकर्मके निमित्तक जितने दोप हैं उन सबके भी वहां रहने की या पाये जाने की भापति का प्रसंग अपरिहार्यरूपमें उपस्थित हुए बिना नहीं रह सकेगा।
इस विषयमें अधिक लिखनेसे गन्थविस्तार का भय है तथा बुद्धिमानके लिए संवेपमें संकेत मात्र कथन ही पर्याप्त है। अतएव अधिक न लिखकर विशेष जिज्ञासुओंसे यह कहना ही उचितुर प्रतीत होता है कि उन्हें प्राचार्योंकि इस विपपके अन्य प्रकरण देखकर विशेष धान प्राप्त कर लेना चाहिये।
-"परेंगितहानफला हि बुद्धयः" । २-प्रमेय कमनभातपादि।