Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका सातवा भोक
................._ स्वारिंशगुणविराजमान ! उत्सदोष शम्द के द्वारा पहले विशेपणका प्राशय गत कारिकाले द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है । इस कारिकामें श्रावश्यक विशेषणोंके कथनमे सर्वत्रता और आम-- मेशित्वका दिग्दर्शन करके दूसरे विशेषणका अभिप्राय १ व्यक्त कियागया है । प्राप्तके कशालीस गुण प्रसिद्ध है जो कि इस प्रकार है। -जन्मजान १० अतिशय, केवलज्ञाननिमिचक दश अतिशय, १४ देवकृत यतिशय, अष्ट प्रातिहार्य, और अनन्तचतुष्टयः । इनमेंसे अनन्तचतुष्टय अपने प्रतिपक्षी चार धानि काँके क्षयसे प्रकट हुआ करते हैं। और बाकी पुण्यप्रकृतियों उदयसे प्राप्त होनेवाले सम्बद्ध तथा असम्बद्ध विभूतिरूप है । यहाँपर प्राप्तके जितने विशेषण दियेगये है वे सब उक्त गुणोंको व्यक्त करने वाले हैं । चार धानिकोंक क्षयस उद्भव चार गुण, विराग कृती सर्वज्ञ और अनादिमध्यान्त शब्दके द्वारा क्रमसे अनन्तसुख अनन्तवीर्य सबैज्ञता और केवल दर्शन होते हैं। जो कि मोहनीय अन्तराय झानावरण और दर्शनावस्यक वयसे अभिव्यक्त हुआ करते हैं । अथवा सर्वत्रताराब्द उपलक्षणसे अनन्तदर्शनका बोध कराता है और अनादिमध्यान्त शब्द दोनोंका ही विशेषण है, ऐसा भी कहा जा सकता है।
परमेष्ठी शब्य सद्वेद्य सद्गोत्र और प्रायुके साथर तीर्थकर नामकर्म प्रकृतिकी सर्वोत्कृष्टता ग्य तजन्य लोकातिक्रान्त पुण्यातिशयको प्रकट करना है और परंज्योतिशब्द पुद्गलषिपाकी नासकर्मकी माधिक महत्ताको सूचित करता है। यहाँपर यह बात भी ध्यान रखना चाहिये कि विवक्षित पुण्यकर्मोक उदयसे पास होने वाले ये उपयुक्त सम्बद्ध असम्बद मसि.. शय जो तीन लोककी अधीश्वरताकै साथ२ परभागको प्राप्त प्रभुता४ को प्रकट करते हैं अन्त. रायकमेके क्षयकं हिना प्राप्त नहीं हुआ करते । परमेष्टी शब्द चारों अघातिकर्मो मेंसे जिन पुण्यप्रकृतियों के उदयको बताता है वे सब जीवत्रिपाकी हैं। फलतः उस जीवन्मुक्त प्राप्त जीवकी पुण्यकर्म सापेव सर्वोत्कृष्ट महत्ताको व्यक्त करते हैं जिनको कि यहांपर संक्षेपमें चार शब्दोंक पारा कहा जा सकता है | ---अर्थात् अनंतसुख, परमाजाति, अनपवर्थ आयु, और प्रभुता। इन चारों ही विषपोंमें वर्णनीय विषय बहुत अधिक है अतश्च अन्धविस्वारके भपसे यहां नहीं लिखा जा सकता । फिर भी अतिसंक्षेपमें थोडासा आशय प्रकट कर दिया जाय यह उचित और आवश्यक प्रतीत होता है । मतलब यह कि--
यद्यपि अनन्त सुख मोहनीयकर्मके प्रभाव से होता है, ऐमा सर्वत्र बताया गया है और जिसका कि ऊपर भी उल्लेख किया गया है जो कि सर्वथा सत्य है तु इसमें जो कुछ विशे-- पता है वह भी समझना जरूरी है।
सुख शब्दके आगममें मुख्यरूपसे चार अर्थ बताये हैं-विषय वेदनाका अभाव विपाक और को साप ही यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि सिद्ध भगवान और महंत परमेष्टीके जो आरामर १-टचत्वारिंशद्गुणविगजमान । २-अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्य ३–देवकृत तथा प्रातिहा। ४-तित्थयगण पहुस, णेहो पलदेवयं सवाणं च । दुक्खं च सवित्तीय सिणिणवि परभागपशाइ ।। ५ लोके चतु विहार्थेषु सुखरामा प्रयुज्यते । विषये मेवमामा विपाफे मोजपत्र | सा॥