Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका छठा श्लोक अवस्था छठे गुणस्थानमें मानी गई है। फलतः वहीं तक भूख प्यासकी बाधा हो सकती है और ऐसे ही जीव अपनी उम बाधाको दूर करने के लिये भोजनमें प्रवृत्ति किया करते हैं। इस तरहके जीवोंमें छठे गुणस्थान वाले जीव अन्तिम हैं जिनको कि प्रमत्त-अमादी-इस तरहकी प्रपत्तिके कारण प्रभाद सहित माना गया है । इसके ऊपर जब कि उन वर्मा की उन तरहकी उदयोदीरणा
स्था ही नहीं है तब वहांपर वेदनीय कर्म उसका बेदन किस तरह करा सकता हैं । छठेसे ऊपर नौ दशवेंतक सभी प्रमत्त है वहांपर उन कर्मा के उदयकी अवस्था ऐसी नहीं हुआ करती जिससे कि वह जीव प्रमादयाले कार्योमें प्रथचि करने लगे। वह तो ध्यान अवस्था ही है धारहवं आदि गुणस्थानोंमें तो उन कर्मोका मोह प्रकृत्तियोंका अस्तित्व भी नहीं रहना। फिर वेदनीय कर्म किस अवस्थाका वहां वेदन करावेगा। अतएव सयोगी भगवान की आहारमें प्रथति होती है यह कहना और मानना नितान्त असंगत और मिथ्या है एवं अवर्णादरूप होनेसे मिथ्यात्वके बन्धका तथा संसारभ्रमणका कारण है।
मोहनीय कर्मकी किनर प्रकृनियों का कहार किस २ गुणस्थानमें बन्ध उदय और सस्त्र पाया जाता है और किन२ की व्युच्छित्ति हुआ करती है, ये बात मालुम होजानेपर, साथ ही इस बातपर भी ध्यान देनेसे कि जहांतक उनका बन्ध उदय सत्व पाया जाता है वहांतक अपातिकमोकी धन्धादि अवस्थामें भी किस तरह का क्रमम परिवर्तन होताजाता है एवं मोहकी इन प्रकृतियाँक बन्यादिके अभाव में अघातिकर्मोके कन्धादिक स्वरूयमें भी किस तरहफा परिवतन होताजाता है ये सब मालु र होजानेपर क्रममे होनेवाले तजनित दोषोंके अभावका भी स्पष्टतया परिज्ञान हो सकता है। ग्रन्थविस्तारके भयसे यही अधिक नहीं लिखा जा सकता। किंतु पन्थान्सरों-गोमट्टसारादिसे इस विषयका बोध हो सकता है ! ___ऊपर यह बात बताई जा चुकी है कि सम्पूर्ण कर्मों का राजा या शिरोमणि मोहनीय कर्म है अतएव जहांतक उसका अस्तित्व बना हुआ है वहांतक सभी कर्म बने रहते हैं। किंतु उसके हस्ते ही सभी कर्म नष्ट हो जाया करते हैं । जब कि मोह के साथ सभी कर्मों का इस तरह का सम्बन्ध है तब मोह का निमित्त न रहनपर अन्य कर्म वास्तविक अपने फल देने में असमर्थ हो जाय, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । स्पष्ट है कि मोहका क्षय होतेही तीनों चातिकर्मखानावरण, दर्शनादरण, अर अन्तराय एक साथ ही क्षीण हो जाया करते हैं । विद्यमान आयु कर्मको छोडकर क्षपक श्रेणी चहनवाले जीव अन्य किसी श्रायुका सच्च नहीं रहा करता। और न पारोही श्रायुगोंमेंसे किसीकाभी बन्ध हुश्रा ही करता है । शेष तीन अघातिकोका भी पन्ध नहीं हुआ करता। केबल वेदनीय कर्मका जो बन्ध बनाया है वह भी उपचरित है वास्तविक नहीं क्यों कि वास्तविक बन्ध के प्रकरण में कमसे कम अन्तरमुहूर्त की स्थिति का पढना जरूरी है। परन्तु धीमामाह अथवा उपशान्त मोह व्यक्तिक जो वेदनीय धर्मका बनश बनाया है उसमें एक समय मात्रकी ही स्थिति पहा करती है । फलतः मोहके नष्ट होने पर सभी कम नए प्राय होजाते।