Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डकाचार
वीर्यान्तस्य कर्मका उदयभी एक कारण ? है । उसी तरह नीचगोत्र कर्मका उदय भी उसमें एक कारण है यह बात अंजनचौरकी कथामेर आये हुए आकाशगामिनी विद्या साधनमें असमर्थ माली दृष्टान्तसे समझ में आ सकती हैं, इसके सिवाय उच्चगोत्रकर्मका जिनके उदय है उनके भी भनकषायके तीव्रउदय एवं उदीरणामें अन्य अन्य अनेक और भी कारण है। जैसे कि स्त्री का शरीर संहननकी हीनता आदि । जिससे कि उच्चगोत्री भी जीव कायर भयभीत रहा करते हैं । यद्यपि भयापरिणानक होने में मुख्य कारण भय नामका नोकषाय ही है फिर भी उसके बीचोदय सतवोदय तथा उदीरणामें कारण अन्य २ कम कि उदयसे उत्पन्न अवस्थाएं अथवा विभिन्न प्राप्त वस्तुएं भी हैं। ऐसी अवस्था में उनकी कारणताका अभाव नहीं कहा जा सकता | यह बात अनेक दुष्टांतों से समझमें आसकती है। आहार संज्ञामे असातावेदनीयकी उदीरणाकं सिवाय मोहनीयका उदय तथा वीर्यान्तरायका क्षयोपशमः श्रादिभी कारण हैं । इसी तरह अन्य संज्ञाओं के विषय में भी समझना चाहिये ।
मतिज्ञानादिकी उत्पत्ति में जिस तरह मुख्य कारण दशत् आवरण कर्मका क्षयोपशम है उसी तरह सहवती कारण वीर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम एवं यथायोग्य उपकरणादिक लाभ में गो गादि कमौका उदय भी है ही । इस तरहसे यह बात भले प्रकार समझमें आ सकती है कि जहां भी किसी भी विवक्षित परिणामक सम्बन्धमें मुख्यतया एक कर्मको कारण बताया हैं वहीं दूसरे २ कर्म-उनकी उदयादि अवस्थाएं और तज्जनित परिणाम भी कारण रहा ही करते हैं । वहाँपर मुहरूपमें एकको कारण कहदिया जाता है परन्तु कारण अन्य भी रहा ही करते हैं अतएव भूप और पके सम्बन्ध मात्र कपको भी कारणवश अवश्य प्राप्त है। नीच गोत्रकर्मक उदयवाला जीव भले ही ऊपरसे भयातुर मालुम न पड़े परन्तु अन्तरंग में वह अवश्य ही भयभीत रहा करता है । साधारण उच्चगोत्री भी उच्चगोत्रके निमित्तसे प्राप्त हुई सम्पचि कुलीनता आदिके सम्बन्धको लेकर सदा ही प्रायः४ चिन्तित एवं भीत रहा करता है। मोहनीय कर्मको जो कारण कहा जाता है मो वह तो सामान्य कारण है ।
जिसतरह राजाका राज्य के प्रत्येक विभागपर अधिकार रहा करताहै, तथा किसीभी विभागका कार्य उसकी मनीषा विपरीत नहीं हुआ करता परन्तु उस उस विभाग के गौरा मुख्यरूपमें अन्यान्य व्यक्ति भी कारण हुआ ही करते हैं । इसी तरह भय एवं समय के विषयमें मोहनीय और गोत्र दोना की ही कारण समझना चाहिये। जिस तरह उच्चगोत्रके निमित्तसे प्राप्त वैभव - श्रविकार फुल
१ – अइभीमदंसणेण तस्सुवजोगेण श्रमसत्तीए भयकम्मुदीरणाए भग्रसरणा जायदे चदुहिं | गो० जी० ॥! २- यह कथा आगे निःशंकित अंगके व्याख्यानमें दी गई है।
२- क्योंकि भोजन को पचानेका सामर्थ्य वीर्यान्तरायके क्षयोपशम पर निर्भर है ।
४ - भोगे रोगभयं बतो रिपुभयं रूपं जराया भयं । शास्त्र वादभयं गुणे मतभयं कार्य कृतान्तादुभय मौने हैन्यभव कुजे युतिभयं वित्तं नृपालाद भयं । मत्रं वस्त मयान्वितं भुचि नृणां वेराग्यमेवाभय "भव हरि"