Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका पाचवां लोक
किया जा सकता है। यहां पर आपके जो तीन विशेषण दिये हैं उनमें से एक २ तथा दो २ और तीनो के न मानने से या तीनोंक पृथकर निरपेक्ष मानने से सात भंग हो जाते हैं । ध्यान रहे कि ये सातो ही भंग मिथ्या हैं । इन मान्यताओं के अनुसार सच्चे आप्तका स्वरूप लक्षित नहीं होता ।
यह कहनेकी श्रावश्यकता नहीं है कि प्रकृतमें आससे आशय भेमोमार्गरूप धर्मके उपज्ञ बतासे हैं । साथ ही यह कि इस तरहके वक्त में इन तीनों ही विषयोंका रहना भी अत्यावश्यक हैं। यही कारण है कि ग्रन्थकारने जोर देकर कहा है कि अन्यथा आमना हो ही नहीं सकता बन ही नहीं सकता । यह अन्यथानुपपनत्व हेतु श्राप्स में तीनों विशेषयों की आवश्यकताको सिद्ध करता है ।
संसार में आप्तके स्वरूपके विषय में जब अनेक तरहकी मिथ्या मान्यताएं प्रचलित हो रही हो, और जगत् के प्राणी उधर आकर्षित होरहे हों, अथवा उनको मानकर गृहीत मिध्यात्वके द्वारा दुःखरूप संसार में भ्रमण कर रहे हों तब वास्तविक दयालु भगवान् और आचार्यका स्वाभाविक कर्तव्य होजाता है कि वे उनकी भ्रांत धारणाको दूर करने केलिये- उनके अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिये उनके सामने तथाभूत- यथार्थ वस्तुस्वरूप के प्रकाशको उपस्थित करें जिससे कि वे श्रेयमार्ग निर्विवया चलकर शुद्ध सत्य स्वतंत्र और शाश्वत सुख -- कल्याणको प्राप्त कर सकें। इस कारिकाके निर्माणका यह भी एक प्रयोजन हैं कि प्राप्त के स्वरूपमें वास्तविक निर्दोषता कब प्राप्त हो सकती है यह उन संशयित विपर्यस्त निध्याधारणाग्रस्त भव्य श्रोताओं के सम्मुख उपस्थित कर दिया जाय । इसीलिये आप्तके तीन असाधारण विशेषताको प्रकट करने वाले तीन विशेषण देकर बताया है कि इनमेंसे कोई भी विशेषता यदि न मानी जाय तो निश्चित हैं कि श्राप्तपना नहीं बन सकता ।
आप्त शब्दका लोक में प्रसिद्ध अर्थ यह है कि जो सत्यका ज्ञाता हो और रागद्वेषादिले रहित सत्यका उपदेश करनेवाला हो । किन्तु व्याप्तपन दो तरह का हो सकता है १- लौकिक २- पारलौकिक | लोकप्रसिद्ध अर्थ लौकिक आसके विषय में समझना चाहिये । इस कारिका में जो आप्तका स्वरूप बताया गया है वह पारलौकिक श्राप्तका है । यह बात आगेकी कारिका से स्पष्ट होजायगी जिनमें कि इस पद्य में कहेंगये तीनो विशेषणका स्पष्टीकरण किया गया है ।
आप्त शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ यह भी है कि जो जिस विषय में वञ्चक है वह उस विषय में आप्त माना जाता है। यह बात पहले भी कही जा चुकी है। किन्तु यह बात भी दृष्टि में रहना जरूरी है कि अवञ्चकता के लिये वास्तव में अज्ञान कषाय और दौर्बल्य इन तीनों दोषों
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१- किसी भी विषय के अ पुनरुक्त भंग निकालने लिये उतनी जगह दोका अंक रखकर परस्परमें गुणा करना इससे जो संख्या उत्पन्न हो उसमें एक कम करदेना चाहिये । इस हिसाब से दोके तीन-तीन के सात, चारके पन्द्रह पांच ३३ भंग होते हैं ।