Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डनायकाचार है। परन्तु श्री गौतम गणधर देवको अवगाढ सम्यग्दर्शन, चारों ही क्षायोपशमिक ज्ञानों की ऋद्धियां तथा सामायिक छेदोपस्थापनारूप निर्दोष चारित्र प्राप्त है। उनके वादकं अन्य आचायोकी योग्यता इससे भी कम हो सकती है फिर भी रत्नत्रयरूप धर्म के समी सामान्यतया अधिः पति हैं। उनके ही बचन स्वतःप्रमाण माने जा सकते हैं । अतएव ग्रन्थकारने लिखा है कि जो धर्मेश्वर है वे रत्नत्रयों (सम्यग्दर्शनादि) को ही धर्म भानते हैं ।
और यह ठीक भी है कि जो स्वयं उन गुणोंसे रहित है उसके तद्विपया उपदेशको किस तरह प्रमाण माना जा सकता अथवा उसपर किस तरह पूर्णजया विश्वास किया जा सकता है। __सम्यग्दर्शनादिके प्रत्यनीक भाव मिध्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र हैं। सम्यग्दर्शनादि के उपर या उत्तरोतर भेद अनेक है। इसी तरह मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र के विपय में भी समझना चाहिये । जिनको कि यथावसर धागे शिखा जायगा । इतनी बात यहां जरूर ध्यान में लेलेनी चाहिये कि हन मिथ्यादर्शनादिक और सम्यग्दर्शनादिक की पारस्परिक श्वनुकूलता में बहुत बड़ा अंतर है । अर्थात् जिसतरह सम्यग्दर्शन जहां होगा वहां ज्ञान भी सम्यक् होजायगा और चारित्र भी समीचीनता को अवश्य प्राप्त करलेगा यह नियम है इसके विपरीत जहां २ सम्पक वारिन है यहाँ २ सम्यग्दर्शनादिक भी हो ही यह नियम नहीं है। क्योंकि नव अवेयक तक बानेवाले मुनियोंका चारित्र सभीचीन तो होता है परन्तु यह कदाचित् सम्यक्त्व सहित और कदाचित् सम्यक्त्वरहित भी हुआ करता है क्योंकि मुनि एवं श्रावक दोनोंमें ही व्रत चारित्र की अपेक्षा द्रव्य लिंग और भावलिंग दोनों ही अवस्थाए मानीगई है। यह बात मिथ्या चारित्र के विषय में नहीं कही जा सकती । द्रव्य रूपमै मिथ्या चारित्रका पालन करनेवाले के अन्तरंग में सम्यग्दर्शन के अस्तित्वकी संभावना या कल्पना भी नहीं की जा सकती।
शंका-उ.पर अपने कहा है कि नवषयक तक जानेवाले मुनियोंका चारित्र समीचीन होता है। वह पदाचित् सम्यक्त्वसहित योर कदाचित् सम्यक्स्वरहित होता है। सी सम्यक्त्वरहित चारित्र को सपोचीन किस तरह कहा जा सकता है ? जो ज्ञान या चारित्र सम्यक्त्वरहित है उसको तो आगम में सर्वत्र मिथ्या ही बहागया है।
उचर-ठीक है । मोक्ष मार्गके प्रकरणको लक्ष्यमें रखकर वर्णन करते समय अन्तरंग भावों को ही मुख्य रक्खा गया है।
उसदृष्टि से जिसके अन्तरंगमें मिथ्याभाव-मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय यदि पायाभी जाताहै हो उसका ज्ञान और चारित्रभी निश्चयसे मिथ्या ही है। क्योंकि न तो वह मोक्षको ही सिद्धकर सकता है और न मोक्षके कारण भूत संर निर्जराके ही सिद्ध करने में समर्थ है। और जैनागममें मोक्ष तथा उसका साधन जिससे कि संवर निर्जरा सिद्ध होती है वही मुख्य माना गया है। १-स्वयं पठन्तो न परेषामुद्धारकाः। सोकोक्ति भी प्रसिज है कि आप खाय काकडी दूमरोंको मानी।