Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चंद्रिका टीका तीसरा श्लोक
का अध्ययन करना जरूरी है। इस अध्ययनका अन्तिम फलितार्थ यही है कि उन प्रतिपादित विषयोंका हेय उपादेय रूपमें विश्लेषण करके ग्रहण किया जाय और स्वयंमें घटित करके सिद्ध किया जाय ।
ऊपर धर्मका दूसरा और तीसरा स्वरूप क्रमसे उत्तमक्ष्मादि तथा रत्नत्रयरूप बताया है। इन दोनोंका सम्बन्ध आत्म द्रव्यसे हैं श्रतएव सामान्यतया वस्तुस्वभावको जो धर्म कहा हैं उसी के ये विशेष हैं। क्योंकि द्रव्य छह हैं, उनमें से केवल श्रात्माने इन दो धर्मोका सम्बन्ध है । मुख्यतया मोहनीय कर्म अभावसे उतम क्षमादि होते हैं तथा रत्नत्रय रूप धर्मकी प्रकटतामें भी मूलभूत एवं प्रधान कारण मोडका प्रभाव ही हैं। तीसरा भेद दया है। यह जीव का सराग भाव है । क्योंकि दूसरेके कल्याण करनेकी बुद्धि या भावना को ही दया कहते हैं ।
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इस तरह धर्म के चार भेद मुख्यतया बताये हैं । परन्तु इनमें मुख्य धर्म रत्नत्रय ही है । क्योंकि श्रात्माका स्वभाव होनेके कारण वह भी धर्मकी वस्तुस्वभावरूप परिभाषाके अन्तगत ही हैं, साथ ही कर्मोंके निवईणपूर्वक जीवको दुखों लुटाकर उसम सुखमें उपस्थित कर देने की सीवी - यथार्थ सामर्थ्य भी उसीमें हैं । चमादि धर्मोके साथ जो उस विशेषण दिया गया है उसका भी मुख्य कारण यही है। क्योंकि सम्यक रहित जीवके चमादि भावोंको न तो उत्तम माना ही है और न वास्तवमें उचित एवं संगत ही हैं। दयाभाव भी धर्म है; क्योंकि अवश्य ही वह पुण्य बंधका कारण है । परन्तु वीतराग एवं सरांग भावोंमेंसे वीतराग भाव ही मुख्यतया धर्म कहा जा सकता है। क्योंकि धर्मकी यहां जो परिभाषा की है और उसका जो फल बताया है वह वीतराग भावके साथ ही वास्तव में संगत होता है न कि सतम भाषके साथ रत्नत्रय रहित क्रोधादि निवृत्ति अथवा परोपकारिणी भावनारूप दयाको पुण्य बन्धका कारण होनेसे कि धर्म परिणत किया जा सकता है; परन्तु कर्म निवर्हणका कारण न होनेसे मोक्षमार्गरूप संसार पर्यायसे छुटाकर मुक्त पर्यायरूप में परिणत कर देनेके असाधारण कारणरूप में परिगणित नहीं किया जा सकता । अतएव धर्म शब्दसे रत्नत्रयका ही मुख्यतया ग्रहण करना उचित एवं संगत हैं । यही सब ध्यान में रखकर, यहां जिल धर्मकी परिभाषा की है वह किंभूत किमाकार है यह बतानेके लिये उसका नाम निर्देशपूर्वक अन्यकार वर्णन करते हैं
सद्द्दष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥
अर्थ — सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको धर्मके ईश्वर धर्म मानते हैं, जिनके कि प्रत्यनीक - विरोधी संसारके मार्ग हुआ करते हैं।
१--दूसरेके हितार्थ सराग भावना दया है।