Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व
[ ११ वियोग:
सन् १९८० में आप कहा करते थे कि "मेरे एक अग्रजश्री की भी ७६वें वर्ष में मृत्यु हुई । माता भी ७६वें वर्ष में ही देहावसान को प्राप्त हुई, अतः मेरी आयु के इस ७६वें वर्ष में मेरी भी मृत्यु होगी, ऐसा आभास होता है।" जीवकाण्ड की टीका कहीं अधूरी न रह जाय, इसकी आपको चिन्ता थी। ता० २६-११-८० तक मात्र सैंतीस गाथानों की टीका लिखनी बाकी रही थी। दि० २१ से २६ नवम्बर ८० तक तो आपने खड़े-खड़े जिनपूजा की थी; जबकि आप वर्षों से ( वृद्धावस्था में ) प्रायः बैठे-बैठे ही पूजन करते थे। यद्यपि ता० २७ को आपका स्वास्थ्य विशेष खराब हो चुका था, परन्तु आपने किसी भी नित्यनियम में कमी नहीं आने दी। इसी दिन विनोदकुमारजी को आपने कहा था कि जीवकाण्ड की शेष रही ३७ गाथाओं की टीका अब श्री जवाहरलालजी पूरी करेंगे। हमारी तो आयु पूर्ण हो चुकी सी है। [आपको १७ दिवस पूर्व ही अपने पर्यायान्तर के आसार नजर आ गये थे। इसीलिये तो आपने ता० ११ नवम्बर ८० को ही मुझे लिख दिया था कि "पाहारमार्गणा की टीका आपने बहत सुन्दर लिखी, केवल लिखने का ढंग बदलना पड़ा। सम्भवतः आपके पास कार्तिकेय-अनुप्रेक्षा नहीं दिखती है, अन्यथा समुद्घात के उदाहरण आप उसमें से देते। अब मुझे विश्वास हो गया है कि आप अवशिष्ट कार्य पूरा कर लेंगे। अब मेरी प्रायू का भरोसा बिलकूल नहीं है, अतः शेष कार्य आपको ही पूरा करना होगा। मैं मेरी लिखी टीका व ग्रन्थ विनोदजी से भिजवा दंगा"................1 ता० २८-११-८० को आपकी तबियत बहुत बिगड़ चुकी थी। यह दिवस तो धर्मवृद्ध को ले जाने वाला यमदूत था। आपने इसी दिन सन्ध्या को ७ बजे ईशस्मरणपूर्वक इस नश्वर शरीर का परित्याग कर महाप्रयाण किया। घर पर आपके अनुज ब्र० पं० नेमिचन्दजी, शिष्य बिनोदजी, पत्नी श्रीमती सब्जमालाजी आदि सभी नितान्त शोकाकुल थे। जल से सिक्त उनके नेत्रयुगलमय शरीर देखते नहीं बन रहे थे, लेकिन अब क्या हो सकता था? अहो ! करणानुयोग का सितारा भारतदेश में नरपर्याय में आकर पूनः पर्यायान्तर को चला गया। आखिर होनहार कौन टाल सकता है ?
आप संसार से भयभीत थे । स्वनिधि के प्रति आपको आश्रयबुद्धि थी। पर से ममत्वभाव आपकी बुद्धि में अंशभर भी नहीं था। सम्यगेकान्त या सम्यगनेकान्त ही आपका पाश्रय था। रागादि बहुत मन्द (यथा गुणस्थान) थे. आप भावश्रावक थे। देव-गुरु शास्त्र के प्रति आपकी अनन्य विनय थी। पाप संसार में रहते हुए भी जलकमलवत् थे। मुझसे पूछो तो आप निकटभव्य एवं प्राशुमुक्ति के पात्र थे । . परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे सद्गति को प्राप्त हों तथा यथाशीघ्र शिवधाम पधारें।
आपको मेरे अनन्त वन्दन ! -पं. जवाहरलाल जैन, सि० शास्त्री
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