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प्राचीन इतिहास से पता लगता है कि पूर्व काल में ब्राह्मणों का एक ही समुदाय था। इस समय की भांति पहिले कुछ जाति भेद आदि नहीं था। केवल गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, आदि ही से पहिचाने जाने का व्यवहारथा । सम्पूर्ण ब्राह्मण चार वेदों के उपासक और १२८ गोत्र वाले थे। जिनमें ३३ गोत्र वाले सो ऋग्वेदी, ३२ गोत्र वाले यजुर्वेदी, ३२ गोत्र वाळे सामवेदी और ३१ गोत्र वाले अथर्ववेदी थे । समयान्तर में देश भेद से इनकी उत्तर और दक्षिण,-ऐसी दो सम्पदायें बन गई। अर्थात्, जो विन्द्याचलके उत्तर वा पूर्व के देशों में जा बसे वे तो गौड़, और दक्षिण वा पश्चिम के देशों में जा बसे वे द्राविड़ कहलाये। वहां भी जुदे २ देशों के कारण इन प्रत्येक के भी ५।५ भेद हो जानेसे १० प्रकारके ब्राह्मण हो गये । इन में-सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, उत्कल और मैथिल, ये पाँचों तो उत्तर सम्प्रदाय के होनेसे पञ्च गौड़ कहलाये । और कर्णाटक, तैलग, महाराष्ट्र, द्राविड़ और गुर्जर, ये पांचों दक्षिण सम्प्रदायके होनेसे पञ्च द्राविड़ कहलाये । इनमें से भी बहुत दूर २ तक जा बसनेसे और बहुत समय तक दूर २ देशों में रहने से एक दूसरे के प्राचार विचार में भेद पड़ जाने के कारण अपने २ देशके अनुकूल हों, ऐसे २ नियम बना लेनेसे इन की ८४ जातियें बन गई, जो अब . 'ब्राह्मणों की चौराशी' नामसे प्रसिद्ध हैं। इन ८४ जातियों में से कई तो देशों के नामसे, कई ग्रामों के नामसे, और कई गुणों के नामसे, इत्यादि कारणों से पृथक् २ नामों वाली जाति मसिद्ध हो गई।
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