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हिले लुद्रवा आदिमें और लुद्रवे मे पहिले सिन्धके अरोड़ नामक नगर आदिमें वसनके समय वहां पर तो पुष्करणे ब्राह्मणों के किये हुये पूर्वोक्त प्रकारके यज्ञोंकी तो गणना करनाभी कठिन है परन्तु जैसलमेर वस जाने के पीछे भी जैसलमेर, फलोधी, जोधपुर, मेड़ता, बीकानेर आदिमें ही किये हुये यज्ञोंका वर्णन किया जावे तो भी एक बड़ी भारी पुस्तक बन जावे । अतः उन सबका पूर्ण वृत्तान्त 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्तक में लिखा जावेगा जिससे पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वजों को यज्ञ करने की दृढ़ता प्रगट होगी। किन्तु उनमेंसे अन्तिम एक 'विष्णुयज्ञ', 'अशेष भोज', वा 'सहस्रभोज' जिसे जोधपुर निवासी शाण्डिल्य गोत्री यजुर्वेदी पुरोहित जातिके पुष्करणे ब्राह्मण च. ण्डवाणी जोशी श्रीमान् प्रभुलालजी, हंसराजजी, गङ्गाविष्णुजी, रामनारायणजी व शिव नारायणजी आदिने अपने स्वर्गवासी पिता शम्भुदत्तजी के आज्ञानुसार सं० १९०२ में मिगशर वदि ६ से प्रारम्भ करके माघ सुदि १५ तक समाप्त किया था ।उसी का पाठकों को सङ्केप से स्मरण कराता हूं जिससे अन्य यज्ञों के भी व्यय आदि का अनुमान हो सकेगा।
इस यज्ञके समय यज्ञशाला-यज्ञ मण्डप कुण्ड आदि बनाके अग्निकुण्डमें ७ दिन तक लगातार आहुति लगती रही और उस कुण्ड में एक घृतकी अखण्ड धारा भी साधारण रूपसे ऊपरसे गिरती थी । इस यज्ञके लिये घृत के पात्र (लोहे के कड़ाह ) इतने बड़े भरेथे कि उतने कभी पानीसे भी भरे हुये देखने में नहीं आये होंगे। इस 'विष्णुयज्ञ' के समय उपर लिखे अनुसार सम्पूर्ण पुष्करणे ब्राह्मण निमन्त्रित किये गये थे । एकत्र हुये सहस्रों ब्रा
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