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मनोवाकाययोगेन पूजयस्व द्विजर्षभान् । तेन तुष्टा भविष्यन्ति ब्राह्मणा भगवत्प्रियाः ॥ ते तुष्टा विप्रेषु कष्टशान्तिर्भविष्यति । न मे मृत्युः शरे राजन् कदाचिदिह विद्यते ॥ परं द्विजहितायैव समयः क्रियते मया ।
राजाके पूछने पर साका करने लगी कि अंगिरस ब्रामणों ने क्रोध के निरपराध सैन्धवारण्यवामी ब्राह्मणों को शाप दे दिया। उसी अपराधके कारण इम नगर को मैंने वोरान ( उजाड़) किया । अब हे राजा ! उन सैन्धवारण्य वासी उत्तम ब्राह्मणों को यहां बुलाके मन, वचर, और कायामे पूजा करो जिससे वे भगवत्मिय ब्राह्मण प्रमन होंगे। और उन ब्राह्मणों के तुष्ट-पसन्न-होनेसे इन ( श्रमालो) ब्राह्म गों के कटकी शान्ति हो जावेगी । आपके वाणसे मेरी मृत्यु तो कदापि नहीं हो सकती परन्तु मैंने यह उपाय इन ब्राह्मणों के हित के लिये बतलाया है।
वसिष्ठ उवाच । इति तद्वचनं श्रुत्वा श्रीपुजेन महौजला । प्रेषिताः सैन्धवारण्ये दूना द्विजवरान प्रति ॥ तैर्गत्वा वचनं राज्ञः प्रश्रियावनतैर्नृप। निवेदितं विजेन्द्रेभ्यो हृदयानन्दवर्द्धनम् ॥
इस प्रकार सारिकाके वचन सुन के श्रापुञ्ज राज.ने मैन्धवारण्यके ब्राह्मणों को बुलाने के लिये दून भेने । उन दूताने वहां जाकं प्रामणों के हृदय में आनन्द बढ़ाने वाला राजा का सन्देशा कह सुनाया।
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