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सारिकोवाच । नमोक्तव्यो महेपुस्ते मयि राजन् कथञ्चन । सैन्धवैः सिंधमाराध्य प्रार्थिताऽहं द्विजोत्तमैः ॥ कर्तुं श्रीमालविध्वंसं तेन सबै कृतं मया। कुरु प्रतिपणं राजन् नित्याणे मम किञ्चन ॥ यथा भवामि विप्राणामहं नित्यं सहायिनी।
हे राजा सिन्ध के उत्तम ब्राह्मणोंने श्रोमाल नगरका नाश करनेके लिये समुद्रकी आराधना करके मेरी प्रार्थना किई इसी से यह सब मैंने किया है। अतः आप मुझपर वाण मत चलायो किन्तु मेरा कुछ प्रतिपण करो जिससे इन ब्राह्मणों का कष्ट दूर करने में मैं भी इनकी सर्वदा सहायता करने वाली हो जाऊं।
श्री पञ्जराजोवाच । कोहक प्रतिपणः कार्यस्त्वदर्थं वद खेचरि । येन त्वं द्विजवर्याणां साहायं कुरुषे सदा ॥
राजा बोला कि हे खेचरी ! तेरे लिये किस प्रकारका प्रण करना चाहिये कि जिससे तू ब्राह्मणों की सदा सहायक हो जावे।
सारिकोवाच । शापो दत्तो द्विजेन्द्राणां सैन्धवारण्यवासिनाम् । क्रुद्वैरागिरसविप्रेस्तेषां निरपराधिनाम्॥ तेनापराधयोगेन पुरं शून्यं कृतं मया । तानामन्त्रय राजेन्द्र सैन्धवारण्यवासिनः॥
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