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१५७ "सुरा मत्स्याः पशोसिं द्विजादिनां वलिस्तथा। धूर्तेः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतवेदेषु कथ्यते ॥"
अर्थात् सुग, मत्स्य, पशुका मांस और पक्षी आदिकी वलि करना आदि कर्म धूर्त मनुष्योंने अपने स्वार्थके लिये वेदोंके नामसे प्रवर्त्त कर दिये हैं, किन्तु वेदों में ऐसे निन्द्य कर्मों का विधान कहीं भी नहीं है । अन्तमें सिन्धी ब्राह्मणों का पक्ष प्रबळ हो जानेसे श्रीमाली ब्राह्मणों को असली पशु की हिंसा तो त्याग देनी पड़ी परन्तु बिलकुल ही बलि नहीं करने पर कुलदेवीके रूठ जानेके भय से उसकी प्रसन्नता के अर्थ असली पशुके स्थान में आटे में मुड़का पानी डालकर भैंसे के आकार का नकली पशु बना के अपनो कुल देवीको बलि चढ़ाने लग गये। ( उस समयकी चलाई हुई इसी प्राचीन प्रथानुसार अब भी कई श्रीमाली ऐसा करते हैं। ) और सिन्धी ब्राह्मण बलि करनेसे एक प्रकार पशुका अनादरसा करते थे इसी कारण से 'पशु तिरस्करणिया' कहलाये जाने लग गये उसी 'पशु तिरस्करणिये' का धोरे२ अपभ्रंश 'पुष्करणिया' हो जाने से कालान्तरमें फिर 'पुष्करणे' कहलाने लग गये।
परन्तु जब कि स्कन्द पुराणोक्त श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्य में के 'पुष्करणोपाख्यान' की कथासे स्पष्ट है कि ये लक्ष्मीजीके वर प्रदान से 'पुष्करणे' कहलाये हैं उसी कथाका सारांश ऊपर लिखा भी जा चुका है। तो फिर ऐसे शास्त्र प्रमाणों के विद्यमान होते हुये ऐसी 'जनश्रुति' क्योंकर सत्य मानी जा सकती है ? इसके
अतिरिक्त पुष्करणे ब्राह्मणों का जो कुछ प्राचीन इतिहास आज . तक मुझे मिला है उसमें भी इस जनश्रुतिका कहीं भी पता नहीं
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