Book Title: Pushkarane Bbramhano Ki Prachinta Vishayak Tad Rajasthan ki Bhul
Author(s): Mithalal Vyas
Publisher: Mithalal Vyas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra स्वजाति सेवा में भेट । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता विषयक टॉड-राजस्थान की भूल । 'निर्माता व प्रकाशकव्यास मीठालाल, पाळी- मारवाड़ । For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - DES ॥ श्रीः ॥ पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता विषयक टाड-राजस्थान की भूल का संशोधन। जिसको पाली-मारवाड़-निवासी व्यास मीठालाल अनेक प्राचीन इतिहासों तथा शास्त्र प्रमाणों सहित निर्माण करके प्रकाशित किई और समस्त पुष्करणे ब्राह्मणों की सेवा में अर्पण किई । सं० १९६६ वि० प्रथमावृत्ति विना मूल्य वितरण किई गई। इस के सर्वाधिकार प्रकाशकने स्वाधीन रखे हैं। For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "उष्ट्र वादिनी सारिका थे कीनो उपकार । द्विज पुष्करणा ताहि सुमरें वारं वार ॥" For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका। 'टाड' कृत ग्रन्थ टाड़ 'राजस्थान' इतिहास, जानत जहान वह कैसो 'भ्रम पूर' है। 'पुष्टिकर' द्वि जनकी 'उत्पत्ति' विषय माँहि, टाड के विचार अविचार रु अधूर है ।। ताके 'भ्रम नाशन' को, सत्यके प्रकाशन को, शुद्ध अनुशासन को, सुपथ ज़रूर है । पुष्टिकर कुल की 'प्राचीनता' प्रमाण सह' नाना 'इतिहास' ते दिखायवे को सूर है॥१॥ - बहुत प्राचीन काल में सैन्धवारण्य देशके (मिन्धी ) ब्राह्मण श्रीमाल क्षेत्र में ब्राह्मणों की पुष्टि करने के लिये श्रीमाली ब्राह्मणोंके पूर्वजों से वादानुवाद करने पर अन्तमें सारिका राक्षसी (उष्ट्रासिनी-ऊँटा-देवी) को सहायतासे श्री लक्ष्मीजी से वरदान प्राप्त करके 'पुष्टिकरने' तथा 'पुष्करणे' कहलाये जाने लगे हैं। जिप्तका वृत्तान्त स्कन्द पुराणान्तर्गत श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्य में है। उसमें से थोड़े से चुने हुये मुख्य २ श्लोकों सहित उस कथा का अभिप्राय रूपी संक्षिप्त सारांश इस पुस्तक के अन्त में भी लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि ब्राह्मणों की अन्यान्य जातियोंकी भाँति पुष्करणे ब्राह्मणों की भी जातिकी उत्पत्ति आदिकी कथा पुराणों में विद्यमान है। । परन्तु थोड़े से वर्षों से किन्हींर अंग्रेजी पढ़े हुये लोगों के मुखसे पुष्करणे ब्राह्मणों को उत्पत्ति पुष्करजी पर होने और इ For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीसे पुष्करणे कहलाने-की वात सुनने में माती देखके इस मि. थ्या लोकोक्ति का मूल कारण जानने की खोज किई तो इसका मूल कारण टाह साहब कृत 'राजस्थान नामक राजपूताने के इतिहास की अंग्रेजी पुस्तक ही विदित हुई । उसके दूसरे भाग में जैसलमेर के इतिहास के ७ वें अध्याय में पुष्करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति पुष्करजी पर होने की एक मिथ्या 'अजब कहानी' लि. ख दी है । और कुछ भी परिश्रम न उठाने वाले इतिहास लि. खने वालों के लिये तो आजकल टाड-राजस्थान पुस्तक ही आधारभूत होने से किसी अन्य अंग्रेज़ने भी वही वात अपनी२ पुस्तक में 'भेड़ियाधसान' की तरह आँख मीचके लिख दी है। किन्तु यह विचार करने का कुछ भी कष्ट न उठाया कि जिस टाड-राजस्थान के आधार वा भरोसे पर हम ऐसी ऊट पटाँग वात लिखते हैं उसी पुस्तक में-और उसी जैसलमेर ही के इतिहास के २ रे ही अध्याय में-पुष्कर खुदने से २०० वर्ष पहिले ही एक पुष्करणे हो ब्राह्मण द्वारा भादी राजा देवराजजी का शत्रुओं से बचाये जानेका वृत्तान्त लिखा हुआ विद्यमान है. जिसे तवारीख जैसलमेर व रिपोर्ट मर्दुम शुपारी राज्य मारवाड़ भी स्वी कार करती हैं और जिसका खुलासा इस पुस्तक के पृष्ठ ३१ से ३९ तक में किया गया है । जबकि पुष्कर खुदने से ३०० वर्ष पहिले की तो पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता वयं उन्हीं टाड साहब ही के उक्त कथन से स्पष्ट सिद्ध है और अन्यान्य इति. हासों से तो इससे भी सैकड़ों ही वर्ष पहिले की प्राचीनता के अनेक पुष्ट प्रमाण मिलते हैं तिसपर भी इनकी उत्पत्ति पुष्कर खुदने पर होने की 'अजब कहानी' लिख देना ठीक वैसा ही है For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैसा कि परपोतेके विवाह समय में लड़दादे का जन्म होना। ___टाडसाहब व उनके मतानुयायियोंकी भूलवाभ्रम दिखलानके लिये तो प्रथम तो स्कन्द पुराणोक्त श्रीमानक्षेत्र माहात्म्यमें के पुष्करणोपाख्यान' आदिकी शास्त्रोक्त कथाही सूर्य के समान प्रकाशमान है,तिस परभो इस देशके प्राचीन इतिहासवेत्ता 'रिपोर्ट मर्दुमशुमारी राज्य मारवाड़' (सन् १८९१) के निर्माता महाशयने तो प्राचीन इतिहासों के कई पुष्ट प्रमाण बताकर पुष्करजी के तालाब खुदने के समयसे सैकड़ोंही वर्षों पहिले हो से पुष्करणे ब्राह्मणों की विद्यमानता स्पष्ट सिद्ध कर दी है। - इसके अतिरिक्त टाडसाहब के सहधर्मी प्राचीन इतिहास लेखक पादरी एम. ए. शैरिङ्ग साहिब, एम, ए., एल एल. बी.' ने भी अपनी इतिहासकी पुस्तक में जहां १० प्रकार के ब्राह्मणों का वर्णन किया है वहां. पुष्करणे ब्राह्मणों की गणना पञ्च द्राविड़ों में से गुर्जर ब्राह्मणों में किई हैं। यही नहीं किन्तु स्वयं भारत गवर्नमेण्ठने भी सन् १९०१ ई० की भारतवर्षीय मनुष्य गणनाकी रिपोर्ट की २५ वीं जिल्द (राजपूताने के प्रथम भाग) के पृष्ठ १४६ में स्पष्ट स्वीकार किया है कि "The Pushkarnas are a section of the Gurjar Brahmans" अर्थात् पुष्करणे ब्राह्मण गुर्जर ब्राह्मणोंकी एक शाखा होएवं फिर पृष्ठ१६४में पश्च द्राविड़ों में के गुर्जर ब्राह्मणों के२ भेदों में से प्रथम में नागर परोशनोरा, उदम्बर, पल्लीवाल, पुष्करणा और श्रीमालियोंकी गणना किई है। यदि टाडसाहेब व उनके अनुयायी गण थोड़ा सा भी परिश्रम उठाकर अन्यान्य इतिहासों का कुछ भी मिलान कर लेते तो निश्चय है कि नतो टाटसाहब ही ऐसी भूल करते और न उनके अनुयायीगणभी 'मक्षिकास्थाने मक्षिका' की भाँति मिथ्या पातको लिखकर अपनी पुस्तक को दूषित करते । For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यद्यपि इतिहास लेखकोंके लिये ऐसी भूल करना बड़े खेद व आश्चर्य की बात है किन्तु टारसाहब तथा उनके अंग्रेज़ अनुयायी लोगोंके विदेशी व अन्य धर्मावलम्बी होने और हमारे धर्मशास्त्रों तथा प्राचीन इतिहासों से अनभिज्ञ रहने आदि कारणों से-एक ही क्या ऐसी कई भूलें कर लेने परभी-हमें उनकी तो भूलोपर नतो कुछ उतना आश्चर्यही आता है ओरन उनपर कुछ अधिक विचार ही करने की आवश्यकता दीखती है । क्यों कि उपरोक्त शास्त्र प्रमाणों तथा प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से टाड साहबकी भूलतो स्वयं ही सिद्ध है अतः इस पुस्तकके बनाने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी। परन्तु आजकल के कोई२ अविचारवान् एतद्देशीय लोग भी प्राचीन इतिहासों से अनभिज्ञ रहने आदिके कारण वही टाड-राजस्थानवाली ऊटपटांग वात कह बैठते हैं। उनकी ऐसी बेढंगी वात सुनकर इतर लोग भ्रममें न पड़ जावें इसी लिये मैंने यह 'टाड भूदलर्शक' पुस्तक प्रकाशित किई है। इसमें तवारीख़ जैसलमेर, रिपोर्ट मर्दुमशुमारी राज्य मारवाड़ आदि के उपरान्त अन्यान्य अनेक प्राचीन इतिहासोंके कई पुष्ट प्रमाण लिखने के अतिरिक्त उसी टाड-राजस्थानही के ऐसे प्रमाण लिखे हैं कि जिनके देख लेने मात्रही से 'टाडसाहब की तो भूल' 'उनके मतानुयायियों की अन्ध परम्परा' एवं 'पुकरणे ब्राह्मणोंकी माचीनता' अनायासही स्पष्टविदित होजावेगी। ___ अतः जो लोग टाड-राजस्थानहीको 'बाबा वाक्यं प्रमाणम' मानते हों उन्हें भी इस पुस्तक को देखकर निश्चय कर लेना चाहिये कि टाड-राजस्थान में ऐसी २ और भी कई भुलें हुई होंगी। परन्तु साथ ही यहभी समझ लेना चाहिये कि वे भूलें, किसी द्वेष भावसे नहीं, किन्तु टाड साहबकी अनभिज्ञता आदि ही कारणों से हुई हैं। और यदि उन्हें ही कोई विदित कर देता तो वे उसका धन्यवाद मानकर उन भूलोंको स्वयं तत्काल निकाल देते। पर अब स्वयं ग्रंथ कर्चाके विद्यमान न रहने से उस पुस्तकों का लेख न्यूनाधिक करनेका तो अधिकार अब किसी को भी नहीं है, For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसलिये जे भूलें टाड- राजस्थानमें हो चुकी हैं वे तो अब अमिट हैं। किन्तु जो कोई सत्य शोधक परोपकारी सज्जन उन भूलोको मुधारनी चाहें तो उन २ मूल लेखोंके नीचे प्रमाण सहित 'टिप्पणियें (फुट नोट)' दे देने से वे भूलें सुधार सकती हैं ।* अत: . 'पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता विषयक टाड-राजस्थान की भूल सुधारने के लिये टाड-राजस्थान के समस्त प्रकाशक व अनुवादक महाशयों से सविनय निवेदन है कि उस पुस्तक की पुनरावृत्तियों में मेरी इस इस पुस्तक के अभिप्राय के सारांश को टिप्पणि रूप से यथा स्थान प्रकाशित करके मुझे कृतार्थ करें। मैंने यह पुस्तक केवल टाड-राजस्थान की भूल और पुष्क. रणे ब्राह्मणों की प्राचीनता दिखलाने ही के उद्देश्यसे लिखी है। अतः मुख्य करके तो इन्हीं दो विषयों सम्बन्धी थोड़े ही से प्रमाणों का उल्लेख मात्र किया है। और उसीके अन्तर्गत प्रसंगवश पुष्करणे ब्राह्मणों के सदा से ब्राह्मणोचित कार्य करते आने तथा राज्य सन्मानित होने आदि के भी ऐतिहासिक वृत्तान्त संक्षेप ही से दे दिये गये हैं। किन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों के सम्बन्ध की जोर कथाएं पुराण आदि शास्त्रों में जहां २ आई हैं वे सम्पूर्ण कथाएं तथा इस जाति के प्रारम्भ से लगाके अद्यावधि के लो___ * इस प्रकारका टाड-राजस्थान का हिन्दी अनुवाद उदयपुर के श्रीमान् पण्डित गौरीशङ्कर हीराचन्दजी ओझा द्वारा, टिप्पणियों सहित, स. म्पादन किया हुआ मासिक अङ्क रूपसे बाँकीपुरके खड़विलास प्रेससे प्रका. शित होना सन् १९०५ में प्रारम्भ हुआ था, किन्तु शोक है कि उस के थोड़े ही से अङ्क प्रकाशित होकर रह गये । यदि इसी प्रकार सारी ही 'भूलों का' संशोधन करके सम्पूर्ण ही ग्रन्थ प्रकाशित कर दिया जाये तो इधर तो लोगों को तो सच्चे इतिहासों का पता लग जाये और उधर दाड-राजस्थान जैसी उपयोगी पुस्तक का भी गौरव बना रहे । For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org किक प्राचीन ऐतिहासिक सम्पूर्ण द्वत्तान्त बहुत विस्तार पूर्वक 'पुष्करणोत्पत्ति नामक एक महान् पुस्तक में लिखे जावेंगे । वह पुस्तक कई वर्षों के परिश्रम द्वारा संग्रह करके कई भागों में अभी मैं बना रहा हूँ जिसका विवरण इस भूमिका के पीछे 'पुष्करणे ब्राह्मणों से निवेदन' में लिखा है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठकों से निवेदन है कि इस पुस्तक को कमसे कम एक बार तो आद्योपान्त अवश्य पढ़ लें वा सुन लें। क्यों कि इस का पूर्ण रहस्य तभी विदित होगा कि जब प्रारम्भ से लगा के अन्त तक पढ़ लेंगे वा सुन लेंगे । किन्तु ऐसा न करके केवळ आगे पीछे के १०।५ ही पन्ने देख लेने से तो न तो आपको ही कुछ आनन्द प्राप्त होगा और न मेरा ही परिश्रम सफल हो सकेगा । यद्यपि मैंने ज्योतिष, वैद्यक, धर्म शास्त्र आदि कई विषयों पर तो ग्रन्थ लिखे हैं, तथा उनमें से कुछ तो प्रकाशित भी कर चुका हूं और शेष क्रमसे प्रकाशित करता जाता हूं, किन्तु इस ( इतिहास ) विषयका मेरा यह कार्य प्रथम ही बार होने से इस में यदि किसी प्रकार की त्रुटि रह गई हो तो मुझे क्षमा करें । सूचित करनेपर द्वितीयावृत्ति में उसका उचित संशोधन कर दिया जावेगा । सं० १९६६ वि० कार्त्तिक कृष्णा १० इस के अतिरिक्त प्रेस दूर होने और पुस्तक छपाने में शीघता करने तथा कार्य वशात् मेरा भी निवास बराबर एक ही स्थान में न रहने आदि कारणों से प्रूफ ठीक न शोध सकने आदि के कारण जो अशुद्धियें रह गई हैं उनकी पाठकों से क्षमा चाहता हूँ । पुनरावृत्ति में शुद्ध कर दी जायेंगी । स्वजाति का लघु सेवक, व्यास मीठालाल पाली - मारवाड़ । For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणों से निवदन । आपको ज्ञात होगा कि कच्छ देश निवासी पणिया जाति के पुष्करणे ब्राह्मण श्रीमान् पण्डिव ज्येष्ठाराम मुकुन्दजी स्कन्द पुराणोक्त श्रीमाल क्षेत्र महात्म्य में की "पुष्करणो पाख्यान" ना. मक पुस्तक गुर्जर भाषा टीका सहित सं० १९४५ में बम्बई में छपवाकर पुष्करणे ब्राह्मणों में विना मूल्य वितरण करके धन्य. वादके भागी हुये थे ।* उस कथा में पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वज सिन्ध देशसे श्रीमाल क्षेत्र में जाके लक्ष्मीजी से वर प्राप्त करके, फिर पुष्करणे कहलाये जिसका वृत्तान्त लिखा है। (१)पुष्करणोत्पत्ति नामक पुस्तक की आवश्यकता___ परन्तु पुष्करणे कहलाने के पश्चात् अद्यावधिका लौकिक माचीन ऐतिहासिक वृत्तान्त उस में न होने से उसे जानने की जिज्ञासा रखने वालों की इच्छा पूर्ण करने के लिये हमारे परमपूज्य पितृव्य (बड़े बाप ) श्रीमान अटलदासजीकी आज्ञानुसार मेरा विचार हुआ कि 'पुष्करणोत्पत्ति'नामक एक ऐसी महान् पुस्तक कई भागोमें संग्रह की जावे कि जिस एकही पुस्तक, पुराण आदिकी सम्पूर्ण कथाएं तथा लौकिक ऐतिहासिक सम्पूर्ण वृत्तान्त आ जायें। (२) उक्त पुस्तक के विषय (१) शास्त्र भाग-इस में पुराण आदि ग्रंथों में जहां२ पुष्करणे ब्राह्मणों का वृत्तान्त आया है, वह एकत्र करना तथा पुष्करणे ब्राह्मणों के बनाये हुये प्राचीन व आधुनिक सम्पूर्ण ग्रन्थों का मूचि पत्र बनाना. इसादि । (२) जाति निर्माण भाग-इस में जाति मर्यादा स्थापित * उसी पुस्तक का गुजराती से हिन्दी अनुवाद जैसलमेर निवासी पुरोहित मोतीलालजीने छपवाके पुष्टिकर हितैषिणी सभा'मोधपुर के भेट की थी, For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करने आदि का कारण, स्थान, और समय आदि का निर्णय -इसादि। (३) गोत्र प्रवर भाग-इसमें इस जाति के सम्पूर्ण ब्रामणों के गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, सूत्र, तथा गणेश, भैरव, देवी आदि और खाँप वा नख आदि को प्राचीन व्यवस्था तथा पोछे से मिली हुई उपाधियों आदिका वृत्तान्त-इत्यादि । (४) संस्कार भाग-इम में गर्भाधान, उपनयन, विवाह आदि सम्पूर्ण संस्कारों की शास्त्र मर्यादा का विधान, और जाति मर्यादानुसार उनके निमित्त द्रव्य लगाने आदि की प्राचीन व्यवस्था-इत्यादि। - (५) कुलाचार्य भाग-इस में यदुवंशियों से लगा के आज पर्यन्तके राजा महाराजाओं आदि को पुरोहिताई (गुरु यजमान वृत्ति) आदि सम्पादन करनेका प्रारम्भिक वृत्तान्त और राज्य मुत्सद्दी आदि होने का कारण-इसादि । (६) राज्य सन्मान भाग-इस में राजा महाराजाओंसे मिले हुये ग्राम आदि के निमित्तसे ताम्रपत्र तथा राज्यशासन पत्र मादि राज्य सन्मान सूचक सम्पूर्ण लेखों की नकलें-इत्यादि । - (७) जाति महिमा भाग-इसमें जाति मरयादास्थिर होने के समय से लगाके आज पर्यन्तके महानुभावों के जीवनचरित्र अर्थात् उनके किये हुये परोपकारी कार्यों का विस्तार पूर्वक वर्णन-इत्यादि। . (८) वंश वृक्ष भाग-इस में प्रत्येक खाँप वा नखके मूळ पुरुष से लगा के वर्तमान समय तककी वंश परम्परागत बंशापलिये ( पीदिये-कुरसी नामें) और मनुष्य गणना के सदृश समस्त देशों के पुष्करणे ब्राह्मणों की जन संख्या-इत्यादि । (९) जात्युमात भाग-इस में प्रचलित कुरीतियों से होने For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ वाली हानियों का वर्णन और उनसे बचने के उपाय तथा प्रा." चीन औरस मयोचित नवीन सुरीतियों के गुणों का वर्णन और उनसे लाभ उठाने के उपाय-इत्यादि। (१०) मिश्र भाग-इस में जाति के उपयोगी अन्यान्य अनेक विषयों का वर्णन-इत्यादि इत्यादि । (३) पुस्तक बनाने के लिये मुख्य साधन विचार करनेसे निश्चय हुआ कि ऐसी परम उपयोगी पुस्तक बनाने के लिये जिन२ साधनों की आवश्यकता हैं उनमें चारही साधन मुख्य हैं । (१) तो पुराण आदि शास्त्रों की क. थाएं,.(२) भाटों व तीयों पर के पण्डों आदि की बहिये, शकरमण सेवगों की कविताएं, तथा ढोली आदिकों के गीत, (३) प्राचीन इतिहास की पुस्तकें, व बहु श्रुत वृद्ध पुरुषों आदि की वार्साएं और (४) राजाओं के दिये हुये ता. म्रपत्र शिला लेख राज्यशासन पत्र प्रादि । यद्यपि ये माधन इस समय प्रायः लुप्तसे हो रहे हैं तथापि परिश्रम करने पर इन का एकत्र करना अन्यान्य लोगों की अपेक्षा पुष्करणों के लिये इतना दुर्लभ नहीं है। क्यों कि प्रथम तो यह जाति स्वयं सदा से विद्वान् व राजाओं के कथा व्यास पुस्तका ध्यक्ष आदि होने से पुराण आदि ग्रन्थ तो बहुधा इन्हीं के यहां से प्राप्त हो सकें. गे।* दूसरे यह जाति सदासे उदार भी होनेसे भाटों आदि की * इस ग्रन्थ कर्ता के पूर्वज भी विद्यानुरागी होनेसे उन्हीं के संग्रह किये हुये हमारे यहांके हस्तलिखित 'प्राचीन पुस्तकालय' में वेद, पुराण, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पशास्त्र (असली विश्वकर्मा संहिता आदि), ज्योतिष् व्याकरण, मन्त्रशास्त्र, पदार्थ विद्या, तथा प्राचीन इतिहास आदि की कई पुस्तकें विद्यमान हैं। For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ बहियों में इनके पूर्वजों का परम्परासे शृंखलाबद्ध वृत्तान्त लिखा हुआ मिल सकेगा। नीमरे यह जाति स्वयं इतिहास प्रेमी भी होने से इन्हीं के यहां से जब कि बहुधा अन्यान्य लोगों का भी प्राचीन वृत्तान्त मिल सकता है तो फिर इनके निजका वृत्तान्त मिक जाने में तो आश्चर्य हो क्या है । और चौथ यह जाति व हुत प्राचीनकाल से राजाओं के कुलाचार्य - पुरोहित, गुरु ब राज्य मुसाहिब - आदि होने से राजाओं के दिये हुये ताम्रपत्र, शिळालेख, राज्य शासन पत्र आदि मिलने के उपरान्त राजाओं के निजक इतिहास में भी इनका बहुतसा वृत्तान्त मिल सकेगा । (४) जाति सभा की आवश्यकता - : परन्तु इतना सुविधा होने पर भी सर्वत्र घूम फिर कर पत लगा के उक्त साधनों का संग्रह करना मेरी अकेलेकी शक्ति से बाहर जान के इस महान् कार्यको पूर्ण करने के लिये पुष्करणे ब्राह्मणों की एक जातीय महा सभा स्थापित करानी उचित दे खकर मैंने उद्योग करके सं० १९४७ के कार्त्तिक कृष्ण १३ सो + सं० १८७७ में जोधपुर के एक चत्ताणी व्यासने गाँव बाँब लड़ी में पुष्करणे ब्राह्मणों के भाट सदारामसे तकरार हो जाने से उसकी बहियें छीन की। तभी से जोधपुर, पाली, नागोर, मेड़ता आदि के पुष्करणों के यहां भाटों का आना जाना बन्द हो जाने से अब भाटों की बहियों में इन के नाम भी नहीं लिखे जाते हैं । किन्तु यह परम आवश्यकीय प्राचीन प्रथा उठ जानी दोनों ही के लिये महान् हानिकर हुई है । अतः उभय पक्षको अवश्य ही चाहिये कि विना विलम्ब के उसका पुन: प्रचार कर दें ताकि पुष्करणों के तो पूर्वजों की कीर्त्ति और भाटों की जीविका सदाकाल बनी रहे । For Private And Personal Use Only * जोधपुर में भी चोहटिया जोशी जाति के पुष्करणों के यहां प्राचीन इतिहास लिखने की प्रथा कई पीढ़ियों से चली आती हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मवार को जोधपुर में 'पुष्टिकर हितैषिणी' नामक एक सभास्यापित करवाई। (५) सभा का उत्साह किन्तु अन्त में शिथिलता समाने प्रारम्भ ही में तो ऐसा उत्साह दिखाया कि एक जोधपुर ही के पुष्करणोंने-सो भो सम्पूर्ण जाति भरके नहीं किन्तु थोड़ेही से सज्जनोंने-बात ही बात में १५०००।२०००० रुपये एकत्र करके समाके लिये एक बड़ा विशाल 'सभाभवन' बना लिया । और मेरे कथनानुसार उक्त पुस्तक बनाने क लिये प्रबंध होने लगा, अर्थात् 'प्रश्न पत्रिका' नामक एक पुस्तक छपक्षा कर जहां२ पुष्करणे ब्राह्मणों का निवास स्थान है वहां भेजी जाकर पूर्वोक्त साधन एकत्र करके सभामें भेजने का अनुरोध किया जाने लगा। इतना ही नहीं किंतु कई कुटुम्ब वालों के तो वंश वृक्ष (कुरसी नामें ) एकत्र करके छपवाकर विना मूल्य बॉटे भी जाने लगे। इसके उपरांत स्व जातीय वालक ब्रह्मचारियों को यज्ञोप. वीत धारण होते ही त्रिकाल सन्ध्या पूर्वक वेदादि शास्त्र पढ़ाये जाने का भी सभा से उचित प्रबन्ध हो गया, जिस से कई वि. धार्थी घेद पाठी हो गये । इसी प्रकार फोटोग्राफी, घड़ीसाजा, गिल्ट आदि शिल्पविद्या शिखलानेका भी प्रबन्ध होने लगा * विद्यार्थियों के लिये चारों वेदों की ४ संहिताएं तथा त्रिकाल सध्या की २००० पुस्तकें तो मैंने अपनी निज की और से, और षट कर्म की २००० पुस्तकें जोधपुर निवासी जोधाबत व्यास ऋषिदत्तजी के पुत्र ( मेरे मित्र ) व्यास पूनमचन्द की और से मैंने ही बम्बई में छपवा कर सभा की भेट की थी। मैंने स्वयं ४००) ५००) रुपये व्यय करके फोटोका सामान ख. रीदकर विद्यार्थियों को इस विद्यासे विज्ञ किये। For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके उपरान्त सभा की उदारता से स्वजाति की उन्नति होने के उपाय सोचर कर सभा में निवेदन करने का अधिकार सं० १९४४ के मृगशिर कृष्ण ६ को मुझे दिया गया। यद्यपिः । मैं अकेला ही इस महान् कार्य का भार उठाने के योग्य कदापि नहीं था, तथापि सभा को आज्ञा को शिरोधार्य करके कई वा. तोंका उचित प्रबन्ध कराने के लिये समय २ पर सभा से निवे. दन करता रहा जिससे देश काल की प्रचलित आधुनिक रूढ़ि के अनुसार जो कई कुरीसिये इस जाति में भी स्थान पाने लग गई हैं उन के तो निर्मूल करने और मुरितियों से लाभ उठगने का प्रबन्ध सभा से होने लगा। इस प्रकार सभा का उद्योग व उत्साह देखकर लोगों को दृढ़ विश्वास हो गया था कि इस सभाद्वारा पुष्करणे ब्राह्मणोंकी अनेक शुभ कामनाएं पूर्ण हो सकेगी। किन्तु बड़े दुःखके माय कहना पड़ता है कि- श्रेयांनि बहु विघ्नानि' अर्थात् श्रेष्ठ कामों को पूर्ण करने के बोचही में बहुत से विघ्न आ पड़ते हैं । वही वात इस सभाके लिये भी चरितार्थ हुई, कि जिससे सभा - पने उद्देश्य को पूर्ण करने में बिलकुल ही असमर्थ हो गई। (६) पुस्तक बनाने में मेरा उद्योग इस सभाद्वारा भविष्य में जो स्वजातिकी उमति होने की आषा की गई थी वह आशा निराशा होती देखकर उस समय मुझे जो क्लेश हुआ था वह अकथनीय है। किन्तु मैं तो अपने विचारें हुये ('पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्तक निर्माण करने के) कार्य को पूर्ण करने में किञ्चित् भी पीछा नहीं हटा । वरन प. हिले से भो विशेष दृढ़ हाके उसकी पूर्ति में प्रवृत हो गया,सो आजतक यथावकाश उसकी खोज में लमा ही हुआ हूँ, और For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुत से वृत्तान्त एकत्र करभो लिये हैं तथापि उस महान् पुस्तक के लिये अभी तक बहुत आवश्यकीय विषय एकत्र करने शेष (बाकी) हैं, अतः उपरोक्त सम्पूर्ण भागों से युक्त 'पुष्करणो. त्पत्ति' नामक पुस्तक बनकर प्रकाशित होने में अभी बहुत विलम्ब हो जाने की सम्भावना देखकर कई सज्जनों ने प्रथम इस 'टाह भ्रमोच्छेदक' पुस्तक को बनाकर शीघ्र प्रकाशित करनेका अनुरोध किया । इसलिये मैंने भी उनके आज्ञानुसार प्रथम इस पुस्तक को बनाकर प्रकाशित को है । इस छोटी सी पुस्तक को देख कर आप अनुमान कर सकते हैं कि 'पुष्करणोत्पत्ति' ना. मक पुस्तक कितनी वृहत् और कैसी महान् उपयोगी बनेगी। (७) स्वजातीय प्राचीन ऐतिहासिक वृत्तान्त इस पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने के लिये मैंने कई स्त्र जातीय विद्वानों से प्राचीन ऐतिहासिक वृत्तान्त लिख भेजनेकी प्रार्थना किई थी । परन्तु अधिकांश सज्जनो ने मेरी इस प्रार्थना के उचित और आवश्यक होने पर भी कुछ भी ध्यान नहीं दिया। हां किन्हीं ने जो कुछ लिख भेजने को कृपा की हैं, उन में से तो अधिकांश तो इसमें पहिले हो से सम्मिलित कर दिये गये हैं किन्तु कई आवश्यकीय वृत्तान्त समय पर न पहुंचने के कारण रहभी गये हैं। अतः जो रह गये हैं वे तथा और भी जो कोई लिख भेजेंगे वे सब इम पुस्तक की द्वितीया वृत्ति में तथा पुष्करणोत्पत्ति में भी सनिविष्ट कर दिये जायेंगे। (८) इस पुस्तक प्रकाशनार्थ उत्तेजकोंका उपकार मुझे इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिये जिनर सज्जनोंने उत्तेजनादी है उन सबका मैं उपकार मानता हूं ।इसी प्रकार भीमान् जोशीजी आशकरजी, व्यासजी (चण्डवाणी जोशी) For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ भैरूदासजी, चोइटिया जोशीजी शिवचन्दजी, पुरोहितजी शिबनायजी ( लाडजी ), पुरोहितजी श्रीनाथजी, थानवीजी गोरूरामजी, व्यासजी बदरीदासजी, व्यासजी जवानमलजी, स्वर्गीय कल्लाजी शिवदत्तजी के भतीजा व चतुर्भुजजी के पुत्र कल्लाजी वंशीधरजी तथा स्वर्गीय 'बृहत्कावे,' 'विद्याभास्कर', 'पण्डित गुरु', पुरोहितजी कालचन्द्रजी (लाळजी महाराजा ) *इत्यादि इत्यादि अनेकानेक स्वजातीय सज्जनोंने मेरे इस कार्यको पसन्द किया उन सबका भी उपकार मानता हूं । उन में भी जोधपुर निवासी श्रीमान् कल्लाजी नारायणदासजी का विशेष उपकार मानता हूं; क्यों कि इस पुस्तक के प्रकाशित होने में विलम्ब होता देख एक आध बार उन्होंने मुझे कटु वचन भी कहे थे । यह उन्हीं के कटु वचनों का अमृतरूपी भिष्ट फल आज मैं स्वजाति की सेवामें इतनी शीघ्रता से भेंटकर सका हूं । (९) घनकी सहायता स्वीकार न करने का कारण इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिये कई स्वजातीय सज्जनोंने मुझे घन की सहायता देनी चाही थी । किन्तु यह एक स्वजाति सेवा का बघु कार्य होने से प्रथम ही आवृत्ति में धनकी सहायता लेनी उचित न जानकर मैंने किसी से भी कुछभी लेना स्वीकार नहीं किया । इस के लिये क्षमा माँगता हूँ । (१०) मेरे निःस्वार्थ परिश्रम उठाने का कारण - मैंने इतना परिश्रम नतो आप लोगों से किसी प्रकारका * खेद हे कि लालजी महाराज इस पुस्तक के प्रकाशित होनेसे पहिले ही स्वर्ग सिधार गये यदि वे विद्यमान होते तो मुझे 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्तक प्रकाशित करने में भी उत्तेजना मिळती । For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ तगमा (मेडल ) मिलने के लिये किया है, और न कोई प्रशंसा पत्र पाने के लिये किया है और न इसकी विक्री करके धन क माने ही के लिये किया है। यदि मुझे धनही का लोभ होता तो इस पुस्तक की बहुत अधिक प्रतियें छपवाकर कमसे कम || ) | ) में भी बेच देता तो भी २०००) ४०००) रुपये तो मिल ही जाते । परन्तु मैंने यह परिश्रम किसी भी प्रकारकी स्वार्थ ह टिसे नहीं किया है, किन्तु किया है केवल हमारे सजातीय पूर्वजों की महान् कीर्त्तिको प्रगट करनेके लिये। अतः जो कुछ समय, परिश्रम, और द्रव्य इस पुस्तक के प्रथम निर्माण करने में लगने की जो आवश्यकता थी वह तो मैं लगा चुका, उसी का फल स्वरूप यह पुस्तक समग्र पुष्करणे ब्राह्मणों की सेवामें भेट किई है । यदि मेरा यह परिश्रम आप महाशयों को पसन्द आया तो पूaa 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक विस्तार पूर्वक महान् पुस्तक जो इससे भी अधिक परिश्रम द्वारा अभी में बना रहा हूं शीघ्र ही प्रकाशित करके इसी प्रकार स्व जातिकी सेवामें भेंट करने की पूर्ण इच्छा रखता हूं । परन्तु इसके साथ आपको यह भी जानना चाहिये कि यह कार्य कोई मेरे अकेले हो का नहीं है, किन्तु सम्पूर्ण जाति भरका है । अतः उक्त पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने और शीघ्र प्रकाशित कराने के लिये जाति भरके समस्त महानुभावों को भी कुछ उद्योग करके उक्त पुस्तक के उपयोगी -प्रत्येक भाग की पूर्ति करने योग्य लेख आदि भेजकर मेरे परिश्रम में सहायता पहुंचानी चाहिये । (११) इस पुस्तक के अंग्रेजी अनुवादकी आवश्यकता - इसके अतिरिक्त मैं यह भी चाहता हूं, और यह है भी आवश्यक, कि इस पुस्तक को अंग्रेज़ी में प्रकाशित कराके भारत गवर्मेण्ड के ऐतिहासिक तथा मनुष्य गणना आदि विभागों की For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ सेवा में भेजी जावे, परन्तु मैं स्वयं अंग्रेज़ी विद्या से अनभिज्ञ होनेसे ऐसा नहीं कर सकता हूं । अतः स्वजातीय अंग्रेज़ो के त्रिद्वानों से प्रार्थना है कि वे कृपाकर इस पुस्तक का अंग्रेज़ी में पूर्ण अनुवाद वा ममानुवार्द ही बनाकर मेरे पास भेजने की कृपा करें। (१२) पाठकों से प्रार्थना स्वजातीय सज्जनों से यह भी प्रार्थना है कि जब तक इस पुस्तक की दूसरी आवृत्ति छपवाकर समस्त देशों में प्रत्येक पुकरणे ब्राह्मण के पास नहीं पहुंचाई जाय तब तक जिनके पास यह पुस्तक पहुँचे वे केवळ आपही पढ़के न रख दें किन्तु जिनके पास पुस्तक न पहुंची हो उनको भी पढ़नेको दें अथवा आपही उन्हें सुना दिया करें जिससे सब लोग इसके विषयों से अभिज्ञ ( जानकार ) हो जावें । (१३) नरेशोंका उपकार व उनकी मंगल कामना अन्त में समस्त पुष्करणे ब्राह्मणों को जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, कृष्णगढ़, जयपुर, उदयपुर, बूँदी, कोटा, ईंडर, रतलाम, झाबुआ, सीतामऊ, नरसिंहगढ़, इन्दोर, बड़ौदा, भुज, पटियाला - इत्यादि रियासतों के श्रीमान् नरेशों को अनेक धन्यवाद देना चाहिये कि जिनके सुराज्यों में पुष्करणे ब्राह्मणों का सदा सन्मान व सत्कार होता आया है । आशा है कि श्रीमान् आगे को भी सर्वदा अपने पूर्वजों का अनुकरण करते ये अपनी इस शुभ चिन्तक जाति का वैसा ही सत्कार करते रदेंगे । इसी प्रकार श्रीमती भारत गवर्मेण्ट का भी उपकार मानना चाहिये कि जिसके शान्तिमय शासन काल में हम सब अपने२ कर्त्तव्य स्वतन्त्रता पूर्वक कर सकते हैं। श्री जगदीश्वर से प्रार्थना है कि वह उक्त श्रीमानों का सदा अखण्ड प्रताप बनाये रखे । For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन इतिहास से पता लगता है कि पूर्व काल में ब्राह्मणों का एक ही समुदाय था। इस समय की भांति पहिले कुछ जाति भेद आदि नहीं था। केवल गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, आदि ही से पहिचाने जाने का व्यवहारथा । सम्पूर्ण ब्राह्मण चार वेदों के उपासक और १२८ गोत्र वाले थे। जिनमें ३३ गोत्र वाले सो ऋग्वेदी, ३२ गोत्र वाले यजुर्वेदी, ३२ गोत्र वाळे सामवेदी और ३१ गोत्र वाले अथर्ववेदी थे । समयान्तर में देश भेद से इनकी उत्तर और दक्षिण,-ऐसी दो सम्पदायें बन गई। अर्थात्, जो विन्द्याचलके उत्तर वा पूर्व के देशों में जा बसे वे तो गौड़, और दक्षिण वा पश्चिम के देशों में जा बसे वे द्राविड़ कहलाये। वहां भी जुदे २ देशों के कारण इन प्रत्येक के भी ५।५ भेद हो जानेसे १० प्रकारके ब्राह्मण हो गये । इन में-सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, उत्कल और मैथिल, ये पाँचों तो उत्तर सम्प्रदाय के होनेसे पञ्च गौड़ कहलाये । और कर्णाटक, तैलग, महाराष्ट्र, द्राविड़ और गुर्जर, ये पांचों दक्षिण सम्प्रदायके होनेसे पञ्च द्राविड़ कहलाये । इनमें से भी बहुत दूर २ तक जा बसनेसे और बहुत समय तक दूर २ देशों में रहने से एक दूसरे के प्राचार विचार में भेद पड़ जाने के कारण अपने २ देशके अनुकूल हों, ऐसे २ नियम बना लेनेसे इन की ८४ जातियें बन गई, जो अब . 'ब्राह्मणों की चौराशी' नामसे प्रसिद्ध हैं। इन ८४ जातियों में से कई तो देशों के नामसे, कई ग्रामों के नामसे, और कई गुणों के नामसे, इत्यादि कारणों से पृथक् २ नामों वाली जाति मसिद्ध हो गई। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे मारवाड स्थ-जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, जयपुर, आदि की रियासतों में भी कई जाति के ब्राह्मण बसते हैं। उनमें राज्य पुरोहित, राज्यगुरु और राज्य मुत्सद्दी आदि के लिये पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति प्रसिद्ध और प्रधान है । इनकी जाति सिन्ध देश में बनी है। इनके पूर्वज यदुवंशियोंके पुरोहित (कुलगुरु) होने से यदुवंशियों की राजधानी द्वारिकाके आसपास के देशों में अर्थात् सिन्ध, कच्छ और मारवाड़ की हद्द पर अधिक बसते थे । अतः उस देश के अनुकूल और जाति के उपयोगी हों, वैसे नियम बनाके अपनी जाति म. र्यादा स्थिर करली। स्कन्द पुराणादि में लिखा है कि प्राचीन काल में पुष्करणे ब्राह्मण सिन्ध देशमें निवास करते थे और उस समय सिन्धी ब्राह्मण कहलाते थे। फिर लक्ष्मीजीने अपना विवाह होने के पश्चात् प्रसन्न होकर श्रीमाल नगर में इनको 'उदार, राज्यपूज्य शुद्ध, सन्तोषी, ब्राह्मणों के पुष्टिकर्ता, धर्मके पुष्टिकर्ता और ज्ञान के पुष्टिकर्ता' कहकर पुष्करणा कहलाने का वर दिया उदारा राज्यपूज्याश्च शुद्धाः सन्तोषिणः सदा । ब्राह्मणानां पुष्टिकरा धर्मपुष्टिकरास्तथा ॥ ज्ञानपुष्टिकरास्तस्मात् पुष्करणाख्या भविष्यथ । तबसे ये पुष्टिकरणे अर्थात् पुष्करणे ब्राह्मण कह लाने लगे और इसका अपभ्रंश पोकरणा होने से अब पोकरणे ब्राह्मण भी कहलाते हैं । सारांश यह कि पूर्व कालमें जो ब्राह्मण पश्च द्राविड़ो में गुर्जरों की एक शाखा सिन्धी ब्राह्मण कहलाते थे वेही श्री लक्ष्मीजी के वरदान से पुष्करणे वा पोकरणे ब्राह्मण कहलाने कगे हैं। For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिछले समय में परस्पर के द्वेष से इस देश का प्राचीन इ. तिहास प्रायः नष्ट हो गया और देशमें बहुत काल तक शान्ति न रहने से नवीन इतिहास लिखने का भी लोगोंको अवकाश नहीं मिला था। अब अंग्रेज सरकार के राज्य में सर्व प्रकार की शान्ति हो जाने से प्राचीन इतिहास की खोज होने लगी। तदनुसार थोड़े वर्ष हुये कि लेफ्टिनेण्ट कर्नल जेम्स टाड साहब ने भी अपने नामपर 'टाड राजस्थान' नामक राजपुताने का इतिहास ईस्वी सन् १७३५ में बनाया है, जिसे आज ७४वर्ष व्यतीत हुये हैं । उस में पुष्करणे ब्राह्मणों के लिये एक भूल हुई है। परन्तु इस पुस्तक में भूल हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी । क्योंकि प्रथम तो टाड साहब स्वयं विदेशी होने से हमारे देश की जाति, धर्म, मर्यादा आदि से तो अनभिज्ञ ( अनजान ) थे ही; फिर इस देश के प्राचीन इतिहास सम्बन्धी लेख भी उनके हाथ यथा तथ्य न लगने से कई बातें अटकल पच्चू सुनी सुनाई लिखनी पड़ी। ऐसी दशामें, एकही क्या, कई भूलें हो जानी सम्भव हैं, और कई मूलें हुई भी हैं। यदि ये भूलें टाड साहब को ही कोई बता देता तो वे स्वयं उन्हें प्रसन्नता पूर्वक अवश्य पीछी सुधार देते । परन्तु यह पुस्तक अंग्रेजी में होने से इस में की भूलें उस समय लोगों की दृष्टि में नहीं आई । जिस से उसका सुधार अब तक नहीं हो सका। किन्तु अब अंग्रेजी विद्या का प्रचार बहुत हो जाने से इस में की भूलें लोगों को मालूम होने लगी हैं। उनमें जो भूल पुष्करणे ब्राह्मणों के लिये हुई है वह आगे दिखलाता हूं। टाड राजस्थान के दूसरे भागके जैसलमेर के इतिहास के ७ वें अध्याय में जहां पुष्करणे ब्राह्मणों का वृत्तान्त लिखा है. वहां, इनकी उत्पत्ति की एक अजब कहानी बताई है: For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " Tradition of their origin is singular it is said that they were Beldars and excavated the sacred lake of Poshkur or Pokur, for which act they obtained the favour of the deity and the grade of Brahmins, with the title of Pokurna. Their chief object of em. blematic worship, the Khodala, a kind of pick-axe used in digging, seems to favour this tradition". [ Tod Vol. II. J. R Chap. VII. ] "इन की उत्पत्ति की एक अजब कहानी है। कहा जाता है कि ये बेलदार थे, और पुष्कर वा पोकर की पवित्र झील को खोदी जिस कार्य के लिये देवता की कृपा, और पोकरणा की उपाधि के साथ ब्राह्मणों का पद प्राप्त किया । इन के पूजने की मुख्य वस्तु खुदाला है जो कि खोदने का एक औजार है, इस से इस कहानी की अनुकूलता ज्ञात होती है। " (टाड राजस्थान, भाग २, जैसलमेर, अध्याय ७ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम तो स्वयं टाड साहब को भी इस कहानी पर कुछ भी विश्वास नहीं हुआ था, तभी तो इसे ' अजब कहानी ' करके लिखी है । क्यों कि जो बात असम्भव, नामुमकिन नहीं होने योग्य हो, उसी को अजब कहानी कहते हैं । > इस के अतिरिक्त इनके पूजने की मुख्य वस्तु खुदाळा लिखा यह भी सर्वथा मिथ्या है । पुष्करणों के यहां खुदाला तो क्या इस प्रकार का अन्य भी कोई औज़ार किसी काल में भी और कहीं भी नहीं पूजा गया है । इसी टाड राजस्थान को देख के विना परिश्रम किये हो सीधी खिचड़ी खाने वाले, और भी कइयोंने धोखा खा लिया है । जैसे- मिस्टर जॉन विल्सनने अपनी तवारीख़ में और अविसन साहिबने रिपोर्ट मर्तुम शुमारी पञ्जाब में भी यही बात टाड राजस्थान से ही लेके लिख दी है । For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी प्रकार मर्दुमशुमारी राज्य मारवाड़, बाबत सन् १८९१ ई०, के तीसरे भाग के १६० वें पृष्ठ में भी पुष्करणे ब्राह्मणों का वृत्तान्त लिखते समय टाट राजस्थान के उपरोक्त लेखका आशय लिखके एक 'लोक अफ़वाह' * अपनी ओर से अधिक लिख दी * मारवाड़ की मर्दुमशुमारी ने ऐसी मिथ्या 'लोक अफवाह' केवल पुष्करणे ही ब्राह्मणों के लिये नहीं लिखी है किन्तु ऐसी ही एक मिध्या लोक अफवाह 'श्रीमाली ब्राह्मणों' की उत्पत्ति के विषय में भी लिख दी है । वह यों है : " भीनमाल में एक समय राक्षस ब्राह्मणों को व्याह नहीं करने देता था, और कोई करता तो चँवरी में से उसका शिर काटके ले जाता था । उस के भय से व्याह बन्द हो गया और ब्राह्मणों की सैकड़ों लड़कियां कुंवारी रह गई । तब वहां के राजा जगाम ने चण्डीश्वर महादेव जी के मन्दिर पर धरना दिया | महादेवजी ने कहा कि 'मैंने तेरा मतलब समझ लिया । तू ब्राह्मणों से कह दे कि एकही चँवरी में सभी लड़कियों को व्याह देवो राक्षस कुछ विन नहीं कर सकेगा। मगर शर्त यह है कि तू रातभर हाथयार बाँध के चौकसी पर खड़ा रहना ।' राजाने ऐसा ही किया कि एक रात में सब लड़कियों का व्याह करा दिया । सिर्फ एक बींद देर करके तड़के के वक्त आया, उस वक्त राजा ऊँघ गया था। राक्षस, जो मौका देख रहाथा, झट उसका शिर ले गया । उस की माँग राजाको श्राप देने लगी। राजा महादेवजी के मन्दिर पर जाके मरने को तैयार हुआ । महादेजीने कहा कि ' तू ऊँघ क्यों गया ? अबतो वह शिर तो नहीं आ सकता मगर दूसरा शिर उस ब्राह्मण के चिपका दे ।' राजा मन्दिर से निकला, तो एक माली सामने आता हुआ मिला । राजा ने उसका शिरकाटके उस ब्राह्मण के घड़ पर रख दिया । वह फौरन भी उठा | माळी का शिर होनेसे उसका और उसकी भौलाद का नाम 'शिरमा की ' हुआ | " ( देखो मर्दुमशुमारी के तीसरे भाग के पृष्ठ १४० से 1 ) .. For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। वह यों है: लोक अफवाह में ऐसा कहा जाता है कि नाहरराव पडिहारने पुष्करजी की रेत खुदाई थी। उस वक्त एक लाख बा. मणों को जिमाने का सङ्कल्प किया था । मगर ८०००० से ज़ियादा ब्राह्मण नहीं आये, जिससे उसने २०००० ओडों को जनेऊ पहिनाके ब्राह्मणों के साथ जिमा दिया । उस दिन से पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति पैदा हुई।" । जिस प्रकार टाड साहिबने विश्वास न होने से 'अजब कहानी' कह के लिखी है, वैसे ही इस रिपोर्ट लिखने वाले को भी इस पर कुछ भी विश्वास नहीं था, तभी तो इसे 'पुष्करणों की उत्पत्ति का इतिहास' न कह के 'लोक अफवाह' कहा है। इतना ही नहीं किन्तु यह लोक अफ़वाह बिलकुल बेबुनियाद मन घटित, कपोल कल्पित, सर्वथा मिथ्या होनेसे उसी रिपोर्ट मर्दुम शुमारी, राज्य मारवाड़ने ही कई पुखता प्रमाण दे के उसी स्थान पर पृष्ठ १६१ वें में इसका पीछा खण्डन भी कर दिया है । वह यों है: "नाहरराव पड़िहार के वक्त में पुष्करणों की उत्पत्ति होना भी ग़लत है । क्योंकि नाहररावसे कई सौ वर्ष पहिले देवराज भाटी हुआ है। उस के ज़माने में पुष्करणे थे । बल्कि उस के पुरोहित* रत्नासे रत्न चारणों की जाति पैदा हुई है । और रत्ना का भानजा जो १ चोहटिया* जोशी था, वह चारण होने के पीछे उसका पुरोहित हो गया । सो अब तक रत्नू चारणों ___ * ये दोनों पुष्करणे ब्राह्मण थे। इन में पुरोहित रत्नू को देवराज भाटी को अपने साथ भोजन कराने से चारणों की जाति में जाना पड़ा, तब से उसकी सन्तान रत्नू चारण कहलाती है । For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की विरत ( वृत्ति - पुरोहिताई ) चोहटिये जोशियों की चली आती है । इससे साबित होता है कि पुष्करणे ब्राह्मण नाहरराव + क्या देवराज भाटी के भी पहिले से हैं । " इस के उपरान्त पुष्करजी की उत्पत्ति आदि का इतिहास लिखते समय टाड राजस्थान व अजमेर की तवारीख़ आदि में जहाँ पुष्कर का तालाब खुदवाने आदि नाहरराव पड़िहार का आदिसे अन्त तक का सम्पूर्ण वृत्तान्त लिखा है वहां पुष्करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति की बात भी लिखे बिना नहीं रहते । जब कि अजमेर की तवारीख़ ने पुष्करजी के पण्डों तक का पूर्ण - तान्त लिखा है तो फिर पुष्करणे ब्राह्मणों का वृत्तान्त क्यों नहीं लिखती और टाट साहिब को तो अपनी कहानी की पुष्टि के लिये इस स्थान पर अवश्य लिखनी चाहिये ही थी । परन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों की पुष्करजी पर उत्पत्ति होना तो दर किनार रहा किन्तु इस जातिका पुष्करजी पर कभी निवास भी नहीं हुआ था । तो फिर पुष्करजी के इतिहास में इनकी उत्पत्ति आ दिका प्रमाण कहांसे मिळता ? और बिना प्रमाण मिले क्यों कर कोई लिख सकताथा ? यदि कुछ भी प्रमाण मिळा होता तोपुष्करजी के इतिहास में इनका वृत्तान्त लिखे बिना कभी नहीं रहते । पुष्कर जी के इतिहास से निश्चय होता है कि जब नाहर + नाहर राव पड़िहार का सं० १२०६ में विद्यमान होना टाड राअस्थान के भाग १ के अध्याय ५ वें में माना है । और देवराज भाटी सं० ८९२ में जन्मे थे यह बात भी टाड राजस्थान के भाग २ अध्याय २ में मानी है । अर्थात् पुष्कर खुदवाने वाले नाहरराव पड़िहार से ३०० वर्ष पहिले देवराज भाटी हुये हैं उनके समय में पुष्करणे ब्राह्मण विद्यमान थे। For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राब पड़िहारने पुष्करणी का तालाब खुदवाया था उस समय न तो १ लाख ब्रामण जिमानेका सङ्कल्प ही किया था और न २० हज़ार ओडों को जनेऊ पहिनाके ब्राह्मण बनाये थे। किन्तु यदि क्षण भर के लिये इस मिथ्या कपोल कल्पना को मान भी . लें तो भी नाहरराव पड़िहार ने सङ्कल्प १ लाख ब्राह्मण जिमाने का किया था न कि १ लाख मनुष्य जिमाने का। फिर २०००० शूद्रों को जिमाने से क्या कभी १ लाख ब्राह्मण जिमाने का राजाका सङ्कल्प (मण) पूर्ण हो सकता है ? कदापि नहीं। यदि कहो कि राजाने शूद्रों को जनेऊ पहिना दी थी इस से वे ब्रामण हो गये थे तो यह बात भी नहीं बन सकती । क्यों कि मन्वादि धर्म शास्त्रों में शूद्रों को जनेऊ पहिनाने की आज्ञा ही नहीं है और न जनेऊ पहिनाने से शूद्र कभी ब्राह्मण हो सकते हैं। ब्राह्मण तो ही माने जावेंगे जो वंश परम्परा से ब्राह्मणों के कुल में जन्मे हों और उनके यज्ञोपवीतादि संस्कार भी विधिपू. र्वक किये गये हों । फिर नाहरराव पड़िहार जैसे धर्मात्मा राजा एक महान् धर्म कार्य के समय शास्त्रसे विरुद्ध ऐसा अधर्म का कार्य कदापि नहीं कर सकते । यदि उन्हें पूरे १ लाख ही ब्रा. ह्मण जिमाने थे तो जितने ब्राह्मण इकठे हुये थे उतनों को तो प्रथम दिन जिमा देते और जितने घटते उतने ब्राह्मण फिर उन्हीं में से दूसरे दिन जिमाके अपना प्रण पूर्ण कर सकते थे। अत: इस प्रण को पूर्ण करने के लिये शूद्रों को ब्राह्मण बनाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। * न शूद्रे पातकं किञ्चिन्न च संस्कारमर्हति । भास्याधिकारोमर्धेऽस्ति न धर्मात्प्रतिषेधनम् ॥ मनु अ० १० श्लो० १२६ अर्थात् शूद्रों को यज्ञोपवीत आदि किसी संस्कार का अधिकार नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HTRA और वे पुष्कर खोदने वाले एकदम २० हजार ओड भी केवल एक जनेऊ के धागे के लिये क्यों ठाली ब्राह्मण बनने बैठ थे? क्यों कि नाहररावने उन्हें कोई जागीर तो दो ही नहीं थी कि जिसके लोभसे भी वे गीताकी आज्ञा भंग करके दूसरी जाति का धर्म धारण करते । ऐसे ही उन ८० हज़ार ब्राह्मगों पर भी ऐसी क्या आपत्ति आ पड़ी थी कि वे केवल एक ही दिन के भोजन के लिये २० हजार शूदों को अपने साथ भोजन कराके ब्राह्मण बनाते। इस देश में (१) ब्राह्मण, (२) क्षत्रिय, (३) वैश्य और (४) शूद्र-ऐमे चार वर्ण वा दर्ने परम्परा से चले आते हैं । इन में से ऊपर के दर्जे वाली जाति में से कोई भी मनुष्य अपना आचार भ्रष्ट कर दे तो वह उस जाति से अलग कर दिया जाता है। और अपने आचार के अनुकूल किसा नीचे दर्जे वालो जातिमें जा मिलता है। ऐसे उदाहरण सब नातियों में मिलते हैं। किन्तु नीचे के दर्ने वाली जातिमें से कोई भी मनुष्य, चाहे जैसा श्रेष्ठ आचार धारण करे तो भी, अपने से ऊँचे दर्जे वाली किसी जाति में कदापि नहीं जा सकता । ऐसा उदाहरण केवल एक विश्वामित्र के क्षत्रिय से ब्राह्मण होने के अतिरिक्त और कोई नहीं मिलता। अर्थात् पूर्व काल में विश्वामित्रने राजऋषिसे ब्रह्म ऋषि होना चाहा, किन्तु ब्राह्मणोंने स्वीकार नहीं किया। इस से क्रोधित होके विश्वामित्रने महर्षि वसिष्ठजी के १०० पुत्र मार दिये तो भी वसिष्ठजीने ब्रह्मऋषि कहना स्वीकार नहीं ___+ स्वधर्मे निधनः श्रेयः परधर्मो भयावहः । गीता. . अर्थात् दूसरी श्रेष्ठ जाति का धर्म धारनेकी अपेक्षा अपनी ही नीच जाति में मरना अच्छा है। For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किया। अपवतः अत्यन्त उग्र तपस्या के कारण जब विश्वामित्र ब्रह्मऋषि मानने योग्य हो गये तब तो स्वयं ब्राह्मणोंने उन्हें राजऋषि से ब्रह्म ऋषि मान लिया, किन्तु भय से वा लोभ से नहीं माना। तो फिर ८० हजार ब्राह्मणों के सामने सब से नीचे दर्जे वाले अति शूद्र जाति के २० हजार ओड लोग क्यों कर एकदम क्षण भर में सबसे ऊँचे दर्जे वाली ब्राह्मण जाति में जा सकते थे। सच तो यह है कि इस देश के जाति, धर्म व मर्यादा को तोड़ के न तो नाहरराव पड़िहार शूद्रों को ब्राह्मण बना सकते थे और न २० हजार ओड ही ब्राह्मण बन सकते थे और न ८० इ. जार ब्राह्मण ही अपने सामने ऐसा धर्म विरुद-अधर्म का-कार्य होने देते। .... इतने पर भी यदि कोई ऐसा ही हठ करे कि नाहरराव प. डिहार ने पुष्करजी पर २० हजार ओड़ों को जबरन ब्राह्मणों के साथ जिमा के ब्राह्मण बना ही दिये थे तो भी यह बात तो कदापि साबित नहीं होती कि ओड़ों से जो ब्राह्मण बनाये गये हों वे पुष्करणे ही बामण हैं। क्यों किः सृष्टि का नियम है कि जिन की उत्पत्ति जहाँ होती है बे. वहीं अधिकता से पाये जाते हैं। जिस प्रकार कि सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों की उत्पत्ति हिमालय पर्वत पर होने के कारण जितनी आबादी हिमालय के आसपास के देशों (भारत वर्ष और चीन) में है उतनी अन्य देशों में नहीं है। ऐसे ही १० प्रकार के ब्राह्मणों में से पञ्च गौड़ों में तो सारस्वत तो सरस्वती नदी के पास पंजाब में, कान्यकुब्ज कन्नौज में, गौड गौड़ देश में, मै. थिळ मिथिला में और उत्कल उड़ीसामें; तथा पञ्च द्राविड़ों में कर्णाटक कर्णाटकमें, तैलङ्ग तैलङ्ग में, महाराष्ट्र महाराष्ट्र में, द्रा अधिक की उनके आनही है For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विड़ द्राविड़ में और गुर्जर गुजरात में ही आज तक अधिकतासे पाये जाते हैं। ऐसे ही यदि पुष्करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति पुष्करजी ही पर हुई होती तो इन की आबादी भी पुष्करजी पर - वश्य होनी चाहिये थी। किन्तु पुष्करजी तो क्या पुष्करजी के आसपास भी पुष्करणे ब्राह्मणों की वस्ती बिलकुल ही नहीं है और न पुष्करजी से समूले कहीं चले जाने ही का कोई प्रमाण मिलता है। वरन इसके विपरीत ये बहुत माचीन काल में गुजरात के समीप वर्ती सिन्ध देश में वसते थे और फिर वहां से कच्छ और मारवाड़ में आये और मारवाड़ से सर्वत्र फैले हैं। अब भी इन की आबादी जितनी सिन्ध, कच्छ और मारवाड़ में है उतनी और कहीं भी नहीं है । इन की बोल चाल में अब तक सिन्धी शब्द विद्यमान हैं । इतना ही नहीं किन्तु स्त्रियों के वस्त्र तथा आभूषण आदि में भी सिन्ध देश का अनुकरण चला आता है । इस के कई प्रमाण मिलते हैं, जिसे मारवाड़ की मर्दुम शुमारी सन् १८९१ ई. के तीसरे भाग के पृष्ठ १५५ व १६१ में समयाण स्वीकार किया है, सो देखिये: "पुष्करणा वा पोकरणा ब्राह्मण-ये मारवाड़ में सिन्ध से आये हैं इनके गोत और गालियों में अब तक सिन्धी लफ्ज़ मौजूद हैं। * इस समय अजमेर किशनगढ़ आदि में जो कोई थोड़े से पुष्करणे. ब्राह्मण बसते भी हैं, वे भी थोड़े ही वर्ष हुये कि मारवाड़ ही से जाके वसे हैं । और पुष्करजी पर जो तीर्थ के पण्डे - ( पुष्कर गुरु ) वसते हैं वे पु. करणे ब्राह्मणों की जाति में से नहीं है और न पुष्करणों की मातिसे उन की माति का कुछ सम्बन्ध ही है। For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... "पुष्करणे ब्राह्मण मारवाड़ के उत्तर और पश्चिम थल यानी निर्जल हिस्मों में ज़ियादा वसते हैं। उससे आगे बीकानेर, जैसलमेर भौर सिन्ध तक इनकी वसती चली गई है, बल्कि मारबाड़ में उधर ही से भाये हैं। अकसर खोपों के बयानों से पाया जाता है कि वे पहिले जैसलमेर के इलाके में रहती थीं। वहां से फलोधी आई और फलौधी से जोधपुर वगैरः परगनों में जाकर पसी है । इन के पुराने गीतों से जो रसम के तौर पर व्याहों में गाये जाते हैं निर्जळ मुल्क में इन के असली वतन होने का पता लगता है।" इन सब के उपरान्त एक बात बहुत ही अधिक ध्यान देने की यह है कि पुष्करजी के आसपास चारों ओर बहुत दूर १ तक ब्राह्मणों की आबादी पञ्च द्राविड़ों को बिलकुल नहीं है किन्तु पञ्च गौड़ों ही की है । तो पुष्करजी पर जो ८० हजार ब्राह्मण इकट्ठे हुये होतो वे भी तो अवश्य ही गौड़ ही होने चाहियें, इस लिये उस समय जो २० हज़ार ओड ब्राह्मण बने हों तो वे भी अपने आचार विचार, खान पान, आदि सब व्यवहारोंमें उन गौड़ ही ब्राह्मणों का अनुकरण करते क्योंकि उन ओडोंने उन गैड ही ब्रह्मणों से तो ब्राह्मण पन सीखा होगा। किन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों में आचार विचार, खानपान, आदि सम्पूर्ण व्यवहारों का अनुकरण गौड़ ब्राह्मणों का कुछ भी नहीं है वरन (पञ्च द्राविड़ों में गुर्जर होने से) द्राविड़ों ही का है। हाँ बहुत काल तक निर्मल देश में रहने और वहां के राज्य कर्ताओं के पुरोहित, कुल गुरु और मुसाहिब आदि होने से उन के साथ २ आपत्काल में जहां तहां भटकते फिरने आदि देश काल के कारण आचार विचार में कुछ शिथिलता तो हो गई हतोभी For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाज तक इन का आचार द्राविड़ों ही के अनुकूल बना हुआ है नकि गाड़ों के अनुकूल । फिर एक बात यह.भी विचारने योग्य है कि टाह राजस्थान में तो लिखा है कि "ये पुष्कर खोदने से देवता की उपासे ब्राह्मण हो गये" किन्तु मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ में लिखा है कि "२० हजार ब्राह्मणों के अभाव में इनको राजाने ब्राह्मण बना दिये" । अतः इन की उत्पत्ति का कारण इस प्रकार परस्पर विरुद्ध भिन्न २ लिखा होने-अर्थात् इस कल्पित कहानी का मूल कारण ही एक न होने से फिर इस के मिथ्या होने में स. न्देह ही क्या है ? __अतः पुष्करणे ब्राह्मण न तो वेलदारों ( ओंडों) से ब्राह्मण हुये हैं और न पुष्करणों के यहाँ कभी खुदाले की पूजा होती थी, वरन जिस प्रकार से अन्य ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई है उसी प्रकार पुष्करणे ब्राह्मणों की भी हुई है। इसके अतिरिक्त इन का 'पुष्करणा' नाम भी बहुत माचीन काल से चला आता है जिस के कई प्रमाण मिलते हैं । जैसे___ महर्षि सौनक कृत "चरण व्यूह" नामक ग्रन्थ में चारों ही वेदों की शाखा आदि का वर्णन है । वहां यजुर्वेद के ८६ भेदों का वर्णन करते हुये प्राचीन भाष्यकारने 'गालव' के २४ भेदों में से २० वाँ भेद 'पुष्करणीया' माना है। इसी प्रकार बहुत प्राचीन काल में एक पुष्करणे. ब्राह्मणने व्याकरण एक की पुस्तक बनाई थी जिसका प्रमाण भट्टोजि दोलित कृत सिद्धान्त कौमुदी के हल् सन्धि विषय के एक वात्तिक में मिलता है। "चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादे' रिति वाच्यम्"। इन के अतिरिक्त प्राचीन इतिहास लेखक पादरी एम...ए. For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शैरिङ्ग साहिब, एम. ए., एल एल. बी.' ने भी अपने बनाये हुये इतिहास की पहिली जिल्द में जहां सम्पूर्ण ब्राह्मणों का वर्णन लिखा है वहाँ ९९ वें पृष्ठ में पुष्करणे ब्राह्मणों की गणना पञ्च द्राविड़ों में से गुर्जर ब्राह्मणों में की है। फिर टाड साहिब का कुछ भी निश्चय किये विना हो ऐसी विना प्रमाण को धोखे की बात अपने राज स्थानमें लिख कर लोगों को भ्रम में डालना.कितनी भूल है ? परन्तु इस भूल का कारण यह प्रतीत होता है कि उस तीर्थ का नाम 'पुष्कर' और इस जाति का नाम 'पुष्करणा ' देख के किसी धूर्त ने ऐसी कहानी घड़के धोखा दे दिया होगा, और टार साहिबने भी विदेशी होने के कारण ऐसा धोखा खालिया होगा। किन्तु इस प्रकार केवल नाम की कुछ सदृशता मात्र ही से ऐसा अनुमान कर लेना क्या कम भूल है ? इस जाति का एक नाम 'पोकरणा' भी है और मारवाड़ में, जोधपुर से पश्चिमकी ओर .४० कोश की दूरी पर, 'पोकरण' नामका एक गाँव भी है । तो फिर क्या इन की उत्पचि उस गाँव से भी माननी पड़ेगी ? नहीं नहीं क. दापि नहीं। इस के अतिरिक्त इन की उत्पत्ति पुष्करजी पर हुई होती तो इनका नाम 'पुष्करणे' वा 'पोकरणे' ब्राह्मण नहीं होता किन्तु 'पुष्करिये' वा 'पोखरिये' ब्राह्मण होता । फिर पु. करणे ब्राह्मणों के ये ही दो नाम नहीं हैं किन्तु 'सैन्धव' ( वा सिन्धी') तथा 'पुष्टिकरा' आदि नाम भी हैं। इन नामों का कारण यह है कि पूर्व काल में ये सिन्ध देश में वस्ते थे जिस से तो सिन्धी ब्राह्मण कहलाते थे। फिर श्रीमाल क्षेत्र में लक्ष्मीजी के यज्ञ में ब्राह्मणों की पुष्टि करने से लक्ष्मीजी ने प्रसन्न हो के ' पुष्टिकरा' होने का वर दिया तब से ‘पुष्टिकरा' तथा For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "पुष्करणा' कहलाये (और पुष्करणों का अपभ्रंश 'पोकरणा' हुआ है), जिसका वर्णन स्कन्द पुराणोक्त श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्य बाद में हैं । वह सम्पूर्ण लेख तो 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्तक में लिखा जावेगा परन्तु उस में से कुछ प्रमाण इस पुस्तक के अन्त में भी लिखेंगे जिससे कि सब लोगों को भले प्रकार से ज्ञात हो जावे कि पुष्करणे ब्राह्मण पञ्च द्राविड़ों में से गुर्जर ब्राह्मणों का एक भेद है । किन्तु प्रथम इस पुस्तक के पारम्भ में लौकिक प्राचीन इतिहासों के अनेक प्रमाण लिखता हूं जिस से सर्व साधारण को भी भळे प्रकार से ज्ञात हो बावे कि पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति पुष्करजी का तालाब खुदने से सैकड़ों ही वर्ष पहिले ही से मारवाड़ में विद्यमान है, और मारवाड़ में आने से पहिले ये सिन्ध में वसती थी। यह बात केवल रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ ही स्वीकार करती है,सो नहीं किन्तु यह बात स्वयं टाड राजस्थान से भी स्पष्ट सिद्ध होती है। फिर टाड राजस्थान की 'अजब कहानी' व मारवाड़ की मर्दुम शुमारी की 'लोक अ. फवाह' लिखने वालोंने जान बूझकर कितना भारी धोखा खा लिया है ? सो वह धोखा लोगों पर प्रगट करने के लिये प्रथम हमें इस बात का निर्णय करना है कि पुष्करजी का तालाब किसने खुदवाया? और कब खुदवाया? तथा पुष्करजी कातालाब खुदने से पहिले पुष्करणे ब्राह्मण थे वा नहीं ? और.थे तो कप थे ? और कहां थे ? यह निर्णय हो जाने से 'टाड राजस्थान की भूल' आपसे आपही स्पष्ट विदित हो जावेगी और टार रा. जस्थान की भूल सिद्ध हो जाने से फिर राजस्थान से धोखा खाने वालों की तो भूल स्वयं ही सिद्ध हो चुकेगी।' For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ पुष्कर उत्पत्ति का इतिहास | पुराणों का मत - पुष्करजी की उत्पत्ति प्रथम ब्रह्माजी से हुई है जिसका वर्णन - पुराणों में विस्तार से लिखा है उन में से पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १५ वें से जो पुष्कर माहात्म्य है, तदनुसार पुष्कर माहात्म्य सारोदार बना है, जिसमें से कुछ श्लोक यहां लिखता हूँ । "एवं विभु चिरं ध्यात्वा हस्तात् कमलमुत्तमम् | प्रक्षिपेद्धरणीतीरे स्वस्त्यपिति समालयातू । ततस्तत्पतितं यत्र पुरा तस्माद्वितीयकम् । स्थाने गतं तृतीयं च वेगे तात्पत्ति वारिजम् ॥ तेषु तोयं सुनिःक्रान्तं सर्वेष्वपि सु निर्मलम् । एतान्य पुष्करं पृष्टं यावन्मात्रं धरातलम् । पुष्करं नाम विख्यातं त्रैलोक्येऽपि भविष्यति ॥ " एक समय ब्रह्माजी की इच्छा यज्ञ करने की हुई । तब उन्हों ने 'पृथ्वी पर कौनसी भूमि यज्ञ करने योग्य है, इस की परीक्षा करने के लिये अपने हाथ से एक कमळ का पुष्प ऊपर से पृथ्वी पर डाला । वह पुष्प प्रथम जिस भूमि पर गिराया वहां से उछल के दूसरे स्थान पर गिरा और फिर वहां से भी उछल के तीसरे स्थान पर गिरा । ऐसे जिन ३ स्थानों पर वह पुष्प गिरा था वहां स्वयं ही निर्मल जल निकल आया, जिससे वे ३ कुण्ड हो गये । फिर ब्रह्माजीने वहां पर यज्ञ किया । भूमि में से जल कमल का पुष्प गिरने से निकला था । और कमल का दूसरा नाम पुष्कर है, इसी लिये यह स्थान 'पुष्कर' ( वा त्रिपुकर ) नाम से प्रसिद्ध तीर्थ हो गया । " इत्यादि । For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टाड राजस्थान का मतBefore creation began, Brahmá assembled all the celestials on this very spot, and performed the Yuga; aroundt he hallowed spot, walls were raiesd, and sentinels placed to guard it from the instrusion of the evil spirits. In testimony of the fact, the natives point out the four isolated mountains, placed towards the the cardinal points, beyond the lake, on which, they assert, rested the Kanats, or cloth-walls of inclosure. That to the south is called Rutnagir, or the hills of gems,' on the summit of which is the shrine of Sàvittri. That to the north is Nilagir, or the blue mountain! East, and guarding the valley, is the Kutchacter Gir; and to the West Sonachooru, or 'the golden'. Nanda, the bullsteed of Mahadeva, was placed at the mouth of the valley, to keep away the spirits of the desert ; while Kaniya himself performed this office to the north. The sacred fire was kindled: but Såvittri, the wife of Brahmå, was nowhere to be found, and as without a female the rites could, not proceed, a young Goojari took the place of Savittri; who, on her return, was so enraged at the indignity, that she retired to the mountain of gems, where she disappeared. On this spot a fountain gushed up, still called by her name; close to which is her shrine, not the least attractive in the precincts of Poshkur. During these rites, Malà deva, or, as he is called, Bhola Náth, represented always in a state of stupefaction from the use of intoxicating herbs, omitted to put out the sacred fire, which spread, and was For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir likely to involve the world in combustion ; when Brabmà extinguished it with the sand, and hence the teebås of the Valley. Such is the origin of the sanctity of Poshkur. In after ages, one of the sovereigns of Mundore, in the eagerness of the chase, was led to the spot, and washing his hands in the fountain, was cured of some disorder. That he might know the place again, he tore his turban into shreds, and suspended the fragments to the trees, to serve him as guides to the spot?-there he made the excava. . tion. (Tod Vol. I, personal narrative. Chap. XXIX.) Excavated by the last of the Purihåras of Mun. dore. ( Tod Vol. I, personal narrative, Chap. XXIX. Dec. 1, in the Lake. of Poshkur.) Nahur Rio, the last of the Purihoras. ( Tod's personal narrative Vol. I, Chap, XXVII.) • "सृष्टि रचने के पहिले ब्रह्माने इसी स्थान पर सर्व देवताओं को एकत्र किये, और यज्ञ किया इस गढ़े के स्थान (पुष्कर) के चारों ओर दीवारें खड़ी की गई थीं, और उस ( यज्ञ) को राक्षसों के अनधिकार प्रवेश होने (मदाखलत बेजा) से बचाने के लिये रक्षक रक्खे गये । इस बात की साक्षी में देशी लोग इस झील से बाहर मुख्य स्थान में रखे हुये, भिन्न २ चार पर्वतों को बताते हैं जिस पर वे लोग ज़ोर देकर कहते हैं कि कनाते अ. र्थात् कपड़े की घेरे की दीवारें लगाई गई थीं। दक्षिण को ओर का पर्वत रत्नागिरि अर्थात् रत्नों की पहाड़ी कहलाती है, जिस की चोटी पर सावित्री का मन्दिर है,उत्तर की ओरको नीलगिरि अर्थात् नीला पहाड़, पूर्व की ओर, और घाटी की रक्षा करने वाला क For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टचकटर गिरि, और पविम की ओर सोनाचूर अर्थात् सोनेका प. हाड़ है। जङ्गल के राक्षसों को दूर रखने के लिये घाटी के द्वार पर नन्द (बैल) रूपी महादेव का ऐश्वर्य युक्त घोड़ा (वाहन) रखा गया, और उत्तर की ओर का यह (पहरे का) काम स्वयं कन्हैयाने किया। पवित्र अग्नि प्रज्वलित की गई; परन्तु (उस समय) ब्रह्मा की स्त्री सावित्री का पता कहीं नहीं लगा, और चूंकि एक स्त्रीके विना कर्म का प्रारम्भ हो नहीं सकताथ , ( इसलिये) एक युवा गूजरी (ब्रह्माके पास) सावित्री के स्थान पर बैठाई गई, जो (सा: वित्री) लौटने पर इस अपमान से इतनी कोपायमान हुई कि वह रत्नके पर्वत पर जाकर लुप्त हो गई। इस स्थानपर एक कुण्ड खुद निकला जो अभी तक उस (सावित्री) के नामसे प्रसिद्ध है। जिस के समीप ही उसका मन्दिर है जोकि पुष्कर की सोमा के अन्दर विशेष ध्यान देने योग्य नहीं है । इस यज्ञ के अन्दर महादेव, अर्थात् जैसे कि वे भोलानाथ कहलाते हैं, सदा भङ्ग आदि के नशोंके प्रयोगसे एक मूर्खता की दशामें आते थे, (उस यज्ञ की) पवित्र अग्नि को बुझाना भूल गये, जो कि (सवत्र) फैल गई, और सारे संसार को जला देने ही को थी, जब कि नमाने उसको बालू रेतसे बुझाई, और इस से घाटी के टीवे हुये । यह पुष्कर की पवित्रता की प्राचीन उत्पत्ति है। बहुत सपय के पश्चात् मण्डोर के एक पड़िहार राजा का अपनी शिकार का पीछा करने की आकाङ्क्षा में उस स्थान को जाना हो गया, और अपने हाथ उस कुण्ड में धोने से वे किसी रोग ( कुष्ट रोग) से आरोग्य हो गये । और इस विचार से कि उस स्थान को पीछा जान जाऊँ उन्होंने अपनी पगड़ी फाड़ के चिथड़े कर डाले और वे टुकड़े (पोछे आते समय मार्ग में के) क्षों पर बाँधते For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आये कि उस स्थान को ( पीछा) ढूँढने में पथ दर्शक का काम देवें । फिर उन्होंने उस (गड़े) को खुदवाया ॥" "इस (पुष्कर) को मण्डोर के अन्तिम पड़िहार (राजा) ने खुदवाया था ॥" (टाड राजस्थान, भाग १, अध्याय २९ ।। "और मण्डोर के ये अन्तिम पडिहार (राजा) नाहरराव थे ॥" (टाड राजस्थान, भाग १, अध्याय २७) रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ का मत"पड़िहारों का राज्य पहिले मण्डोर में था । नाहरराव पड़िहार मारवाड़ में बहुत मशहूर हुआ है उसने पुष्करजी का ताल खुदाया था और सूर खाना छोड़ा था सो अब तक पड़िहार सूर नहीं खाते हैं।" (देखो रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मार वाड़ ई. सन् १८९१ के भाग ३ का पृष्ठ १५ वां)। अजमेर को तवारीख़ का मत"ब्रह्माजी के यज्ञ के पीछे समय के हेर फेर से यह स्थान किसी समय उजाड़ हो गया था। अनुमान ४००० वर्ष हुये कि इस मुल्क में जैन धर्म बहुत फैल गया था। किसी राजा पद्मसेन नामी ने यहां एक बड़ा भारीनगर बसा के अपने नाम पर पद्मावती नगरी उस का नाम रखा । इस नगरी की वस्ती एक लाख घरों की थी । कहते हैं कि इस नगर में प्रायः धनवान् मनुष्य वस्ते थे, और जब कोई मनुष्य यहां पर बसने को आता था तो प्रत्येक घर से एक २ रुपये के हिसाब से एकठे कर के एक लाख रुपये उस को दे के वसा लेते थे । राजा जैनी था और तमाम प्रजा भी जैनी थी । इस नगर को उस समय में जैनी For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ लोग कोकन* तीर्थ के नामसे पुकारते थे । दैवात् एक महात्मा इस नगर में आये और १२ वर्ष तक तपस्या करते रहे । एक दिन चेले के मस्तक में घाव देख के बहुत दुःखित हुये । यद्यपि चेलेने इस के भेद को प्रगट करना उचित तो नहीं समझा, परन्तु न. म्रता पूर्वक प्रार्थना की कि यहां की सारी प्रजा जैनी है और राजा भी वही धर्म रखता है, अन्य मत वालों को दान नहीं देते। इस कारण मैंने अति कठिनता से अपना निर्वाह किया और लकड़ी बेचने से सिर पर घाव हो गया। इस से वे महात्मा जैनियों पर बहुत क्रोधित हुये यहां तक कि उनकी दुराशीष से व परमात्माकी इच्छासे पवनका वेग रेत संयुक्त ऐसा आया कि यह बड़ा नगर पल भरमें नष्ट हो गया। कहते हैं नगर नष्ट हो जाने के पीछे एक बहुत बड़े समय तक यह स्थान बिलकुल उजड़ रहा और जंगल की तरह हो गया। राठोड़ों से पहिले पड़िहार राजपूत मरुस्थलके राजा थे। उ. नमेंसे नाहरराव, राजा मण्डोर, को शिकार खेलने के समय एक श्वेत शूकर दृष्टि गोचर हुआ । राजाने लश्कर से जुदा हो के उसका यहां तक पीछा किया कि वह पुष्कर के जङ्गल में आ निकला । शूकर तो दृष्टिसे छिप गया और राजा सूरजकी गरमी और दौड़ भाग के परिश्रमसे थकके और प्यासा हो के घोडेसे उत्तर पड़ा, बहुत घबराया और पानी तलाश करने लगा। अचानक जङ्गलमें एक स्थानपर थोड़ासा पानी दृष्टि में आया । राजाने ऐसे समयमें इस पानीको अपना अच्छा भाग्य समझके * कमल का नाम 'कोकनद' भी होने से पुराणों में पुष्करका दूसरा नाम 'कोकामुख' तीर्थ भी लिखा है । इसी नाम के आधार पर जैनियोने इसका नाम 'कोकन' तीर्थ रख लिया था। For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुरन्त पथ मुंह धोके उस मेंसे घोड़ासा लिया। और फिर को अपने हाथों पर दृष्टि डाली तो जो दाग़ कोड़के अपने हाथोंपर ये ले बिलकुल जाते रहे । राजाको बड़ा आनन्द हुआ। और यह फळ उस पवित्र जलका सोचके वहां ठहर गया और उस पवित्र स्थानके समाचारों का तलाश करने लगा। आखिर को शास्त्रों से सारे समाचार जानके और पूर्ण रीति से पता लगाके राजाने बनको कटवाया और उस पवित्र स्थान को खोदकर एक बड़ा भारी तालाब बनवा दिया। राजाने हर एक स्थान अपनी २ जगह ठहरा कर बनवा दिये और बारह धर्मशालायें पक्के घाट सहित पुष्कर सरोवरके तीनों तर्फ तयार कराई, एक तर्फ पानी मानेके लिये खाली छोड़ दो। ये स्थान अब बिलकुल नष्ट हो गये हैं, परन्तु तब भी अब तक दो तीन जगह कुछ २ फूटे हुये मकानों के चिह्न मौजूद हैं। उस ही राजा नाहरराव पड़िहारका स्थान है.।" (जे. डी. लाटूश साहिब बहादुर की आज्ञा से सं. १९१३ में लाहोर वाले एक्स्ट्रा असिस्टेण्ट कमिश्नर पं० महाराज कृष्ण की बनाई हुई अजमेर की तवारीख़ का पृष्ठ १५ वाँ । इस की नकल उसे हिन्दीमें सन् १८९२ ई० में मौलवी मुहम्मद मुराद अलीके चिराग़ राजस्थानमें छपी उसके पृष्ठ १, २ और ३) इन तवारीखों से यह बात तो निश्चयही है कि पुष्करजी का तालाब पारम्भमें तो मनुष्योंका खोदा हुथा ही नहीं है किन्तु ब्रह्माजीने कमलका पुष्प डालके स्वयं उत्पम किया था इसीलिये इसे 'देष खास' कहते हैं यथा 'पुष्कराया देवखाता' परन्तु वह तीर्थ काळ पाके अदृश्य हो गया था। उस को पीछा प्रकट कराने के लिये श्री बाराइ भगवान् ने श्वेत शूकर का रूप धारण कर के मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहार को पुष्कर के जङ्गल में For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ફ लाके उस तीर्थ के जल का चमत्कार दिखलाके, आप अन्तर्धान हो गये । तब नाहरराव पड़िहारने पुष्करजी के तालाबका जीर्णोधार कराके वहां पर श्री वाराह भगवान् का मन्दिर बनवा दिया तथा शूकर मारने की तलाक़ ( शपथ) कर दी तब से पडिहार राजपूत मात्र शूकर नहीं मारते हैं। यह बात पड़िहारों के इतिहास में प्रसिद्ध है । नाहरराव पड़िहार का समय । पुष्करजी का तालाब खुदवानेवाले मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहार विक्रम संवत् १२०० के लगभग हुये थे, जिस के कई प्रमाण मिलते हैं; उनमें से कुछ प्रमाण यहां लिखता हूँ । टाड राजस्थान का मत (1). “ In Putun is Bhola Bheem the Chalook, of iron frame. On the mountain Aboo, Jeit Pramara, in battle immoveable as the star of the north. In Mewar is Samar Singh, who takes tribute from the. mighty, a wave of iron in the path of Delhi's foe. In the midst of all, strong in his own strength, Mundore's prince the Arrogant Náhur Ráo, the might of Mároo, fearing none. In Delhi the chief of all Anunga. (Tod Vol, I., annals of Mewàr, Chap. V.) (2) "In the battle between the Chohans of Ajmer and the Parihàrs of Mundore, a body of four thousand Mair bowmen served Nàhur Rào, and defended the pass of the Arávali against Prithwiraj (Tod Vol. I. personal narrative, chap. XXVI.) " For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (3) " ........., and the brightest page of their history is the record of an abortive attempt of Nabur Rao to maintain his independence against Prithwiràj. Though a failure, it has immortalized his name and given to the scene of action, one of the passes of the Arávali a merited celebrity." (Tod . Vol. I. Rajpoot Tribes, Chap. VII.) Samarsi was born in S. 1206 ( Tod. Vol. I. Annals of Mewár, Chap. V. ) and reign of Samarsi S. 1249 ( Tod. Vol. I. Annals of Mewar, Chap. IV.) टाड राजस्थान के भाग १ के अध्याय ४, ५, ७ और २६ वें के उपरोक्त लेखों के अनुसार पाटन (गुजरात) में तो भोला भीम, आबू पर्वत पर जैत पँवार, मेवाड़ में समरासिंह, दिल्ली में अनङ्गपाल और अजमेर में पृथ्वीराज चौहान,-मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहार के समकालिक थे । और इन में समरसिंह सं० १२०६ में जन्मे थे और १२४९ तक राज्य कियाथा, अतः ये राजा सं० १२०० और १२५० के बीच में हुये थे। इसलिये यही समय नाहरराव पड़िहार का है। मारवाड़ के भूगोल का मत.."सं० १२०० के करीब मण्डोर को ( जो साँवत पंवार के हिस्से में आया था उस की औलाद से ) पड़िहारोंने ले लिया। पड़िहारों में नाहरराव पड़िहार बड़ा राजा हुआ । उसने पुष्करजीकी रेत निकलवा कर वहां वाराहजी का मन्दिर बनवाया और एक बड़ा बन्धा बंधाया। नाडसर नाम एक बड़ा तालाब For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खुदवाया जो अब अगरचे रेत और मिट्टी से भर गया है मगर फिर भी उसको पाल कोशों तक नज़र आती है, जिस में बड़े भारी पत्थर लगे हैं।" "नाहरराव के भाई बालराव का बनाया बाळ समन्द का तालाब अब तक जोधपुर और मण्डोर के रास्ते पर मौजूद है।" (देखो 'मारवाड़ की जागराफी (भूगोल) सन् १८८३-८४ का ५० वाँ पृष्ठ) आशिया जातिके चारणों के इतिहास का मत पड़िहार राजपूतों के पोलपाट बारहट पहिले आशिया जाति के चारण थे । किन्तु नाहरराव पड़िहार के बेटे धूम कुंवर को उसके पोलपाट बारहट वीरभान आशियाने चौपड़ (चौसर )के खेल में तकरार हो जाने से मार डाला । इस पर क्रोधित होके पड़िहारोंने आशिया जाति के चारणों को निकाल के सिडायचे जातिके चारणों को अपना पोलपाट बारहट बनाया । उस समय का यह एक दोहा है कि: धूम कुँवर नै मारियो चौपड़ पासै चोळ । तिण दिन छोडो आशियाँ पड़िहाराँरी पोळ॥ तब वोर भान राठौड़ों के यहां जा रहा । और मारवाड़ में राठौड़ कन्नौज से सं० ११९६ में आये हैं; अतः यही समय ना. हरराव पड़िहार का प्रतीत होता है। पृथ्वीराज रासे का मत(१) मण्टोर के राजा नाहरराव पड़िहारने अपनी कन्या For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जम्भावती (कञ्चनमाला ) की सगाई पृथ्वीराज चौहानसे की थी। किन्तु पीछे से नाहरराव की इच्छा बदल जाने से विवाह करने की यह कह के नांहीं कर दो कि अजमेर के चौहानों का कुल हमारे योग्य नहीं है । इसी पर पृथ्वीराज ने आनन्द* नामक संवत् ११२९ (विक्रम संवत् ११२५) अष्टमी रविवारको नाहररावपर चढ़ाई की। ५ दिन तक घोर युद्ध होनेके पश्चात् नाहरराव हारके भाग गया, और मंत्री आदिकों की सम्मतिसे पृथ्वीराजको अपनी कन्या व्याह देने का लग्न भेजा। पृथ्वीराज ने भी प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करके पञ्चमी रविवार को नाहरराव की कन्या से विवाह किया। (२) आनन्द सं० ११४४ (विक्रम सं० १२४० ) में पृ. थ्वीराज शाहबुद्दीन के सामने लड़ने को गया था । उस समय अवसर देखके पाटन (गुजरात) के चालुक्य (सोलंखी) राजा भोलाभीमने भी पृथ्वीराज पर चढ़ाई की । तो पृथ्वीराज की ओर से सेनापति ‘कैमाप्त' ने मण्डोर के राजा नाहरराव पहि. हार सहित मारवाड़ के गाँव धणले, परगने सोजत, में उस का सामना किया था। वहां पर राजा नाहरराव पड़िहार मारा गया। तब पृथ्वीराजने उसके पुत्र पड़िहार मोवणसी और अल्ह को मण्डोर का राज्य दिया । ये दोनों भाई पृथ्वीराज के १०० सामन्तों में से थे । इन में अल्ह तो पृथ्वीराज के लिये कन्नौज की लड़ाई में आनन्द सं० ११५४ (विक्रम सं० १२५०) में मारा गया और मोवणसी आनन्द सं० ११५५(विक्रम सं० १२५१) * पृथ्वीराज रासे में चन्द भाटने जो संवत् लिखा है वह 'आनन्द' नामक संवत् है । उस में ९६ वर्ष मिलानेसे 'विक्रम संवत् होता है । For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में, पृथ्वीराजको शाहबुद्दीनने पकड़ा तब, मारा-मया। महा कवि चन्द भाट कुन पृथ्वीराज रासे से भी यही समय नाहरराव पड़िहार का विदित होता है। हमारे यहाँ के प्राचीन पुस्तकालय का मत नाहरराव पड़िहारने मण्डोर नगर को आनन्द सं० ११०० (विक्रम सं० ११९६) में फिर से वसाया था, और आनन्द सं० ११११ (विक्रम सं० १२०७ ) में उस का कोट बनवाया था। नाहरराव पड़िहार का दामाद (जमाई ) पृथ्वीराज चौहान था। उसने मारवाड़में नागोर नगरका कोट आनन्द सं० १११२ (विक्रम सं० १२०८ ) में बनवाया था। नाहरराव पड़िहार की 'पिङ्गला' नामको बहन चित्तौड़के राणा तेजसी को व्याही थी। राणा तेजाके उत्तराधिकारी राणा समरसी हुये । वे विक्रम सं० १२०६ में जन्मे थे । उपरोक्त आशय का लेख हमारे यहां को एक बहुत प्राचीन हस्त लिखित इतिहास को पुस्तकमें, जो सं० १७९९ की लिखी हुई है, लिखा है । इस से भी ज्ञात होता है कि मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहार सं० १२०० के लगभग ही हुये थे। पुष्कर खुदने का समय । उपरोक्त मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहारने पुष्करजी का तालाब विक्रम सं० १२१२ में खुदवाया था जिस के प्रमाण का एक दोहा, जो सर्वत्र ही प्रसिद्ध है, यहां लिखता हूं:संवत् बार बारोत्तरै पुष्कर बाँध्यो धाम । पेमपालरा नाहराव थें कियो निश्चल नाम ॥ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता. ऊपर लिखे प्रमाणों से स्पष्ट हो विदित हो गया है कि मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहार सं० १२०० के लगभग हुये थे और उन्होंने संवत् १२१२ में पुष्करजीका तालाब खुदवाया अर्थात् जीर्णोद्धार कराया था। परन्तु पुष्करणे ब्राह्मण तो नाहरराव पड़िहार से सैकड़ों ही वर्ष पहिले ही से विद्यमान हैं। इस के कई एक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से थोड़े से यहां लिखता हूं। विक्रम संवत १२१२ में जब कि मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहारने पुष्करजी का तालाब खुदवाया था उसी • वर्ष में श्रावण मुदि १२ को लुद्रवा नगर के भाटी राजाजैसलजीने अपने नाम पर 'जैसलमेर नगर वसाके अपनी राजधानी वहाँ पर नियत की, तब लुद्रवा नगरमें निवास करनेवाले पुष्करणे ब्राह्मणों को भी अपने साथ लाके जैसलमेर में वसा दिये । और उन पुष्करणों में से जो राज्यके पुरोहित, गुरु, मु. त्सद्दी, किलेदार आदि थे उनको तो किलेके भीतर राज्यके महलोंके समीप ही स्थान देकर वसाये थे जिनको सन्तान आज तक जैसलमेर के किलेमें निवास करती है अर्थात् पुरोहित, व्यास, आचारज, पणिया, विशा आदि जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों के ७०० घर इस समय जैसलमेर के किले में विद्यमान हैं। संवत् ११२१ में लुद्रवे नगर में पुष्करणे ब्राह्मणा चोवटिया जोशी पोतीरामजी का विवाह हुआ था। विवाह के पीछे जव पहिली ही पहिली होली आई तब वे अपनी स्त्री सहित 'होली' की पूजा करने के लिये गये। वहां दैव योग से पैर फिसल के होली में जा गिरे, और जल मरे । तब उन की स्त्री भी For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उनके साथ सती हो गई, और अपने कुल में होली की झाल देखने तथा उसका उत्सव करनेवालों को श्राप दे गई। उस दिन से चोटिये जोशी मात्र न तो जलती हुई होली की प्रथम झाल देखते हैं और न होली का उत्सव करते हैं। और जो कदा. चित् भूल से भी ऐसा हो जावे तो वह वर्ष उनके लिये आनन्द कारी नहीं होता है। इस बातको चोवटिये जोशी सदासे मानते चले आये हैं। । इन्ही मोतीरामजी से कई पीढ़ी पहिले चोवटिया 'प्रवरजी' हुये थे, जो ज्योतिष विद्या में साक्षात् बृहस्पति तुल्य थे । इन की परीक्षा करने के लिये शुक्र और बृहस्पतिने मनुष्य का स्वरूप धारण कर इनके पास आके प्रश्न किया कि 'इस समय शुक्र और वृहस्पति कहां है ?' तो 'परवरजी' ने प्रथम स्वर्ग की और फिर पाताळ को गणित की तो वहां पर इनका होना सिद्ध नहीं हुआ | तो फिर मृत्यु लोककी गणित करते करते अन्त में कह दिया कि 'आप ही दोनों हैं। इससे प्रसन्न हो करज्योतिषविद्या का वरदान व ज्योतिषी की पदवी दी। तबसे चोवटिये मात्र 'चोवटिये जोशी' कहलाते हैं। यह बात चोवटिये जोशियों के इतिहास में प्रसिद्ध है। - संवत् १०२५ में लुद्रवे नगर में पुष्करणे ब्रामण लुद्र (कल्ला) पद्मसीजीने पंचपर्वी नामक लघु विष्णु यज्ञ किया था। तब अपनी जाति भर के समस्त लोगों को आसपास के गाँवों से बुलाके एकत्र करके ५ दिन तक भोजन कराके प्रत्येक ब्राह्मण को एक एक रुपया दक्षिणा दिया। तथा पुष्करणे ब्राह्मणों के भाट दूदाराम को कड़े, कण्ठी, मोती आदि का शिरोपाव और रु०२००) नकद दिये थे। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्हीं पदमसीजी से कई पीढ़ी पहिले लुद्र आयस्थानजी बड़े प्रतापी हुये थे । उन्होंने सिन्ध देश में अपने नामपर 'आशनीकोट' नामक एक गाँव बसाया था । यह बात कल्लों के इतिहास से प्रकट ही है। सं ९९६ में वैशाख सुदि ३ को लुवा नगर में पुष्करणे ब्राह्मण ढङ्कशाली व्यास लल्लूजी ने 'लक्ष (लख) भोज' नाम एक बड़ा भारी महा विष्णु यज्ञ किया था। उस समय पुष्करणे ब्राह्मणों की समस्त जाति को दूर २ से बुला के कई दिनों तक इच्छा भोजन कराया । फिर विदा के समय प्रत्येक को थाली, लोटा, कटोरा आदि पात्र तथा घोती, दुपट्टा, पगड़ी आदि वस्त्र और एक एक सुवर्ण मुद्रा ( सोने की मोहर) दक्षिणा दे के बड़ा सत्कार किया; उस समय पुष्करणे ब्राह्मणों के भाट तेजराज को लाख पसाव में रोकड़ रु. ५०००) तथा कड़े, कण्ठी, मोती आदि शिरोपाव दिये थे । इस समय की अपेक्षा उस समय धान्य घृतादि सम्पूर्ण वस्तुएं बहुत ही सस्ते भाव से मिलती थीं, तब भी इस कार्य में कई लाख रुपये लग गये थे । ऐसा महा यज्ञ पुधकरणे ब्राह्मणों में आजतक फिर नहीं हुआ है । (देखो जैसकमेर की तारीख़ के पृष्ठ २३२ वें की पंक्ति १७ वीं । ) 'लल्लू लक्ष समापिया हीवर दोना दान | कवियां घर काछी किया डंकर भरता डान ॥' सं० ९९२ में वैशाख सुदि ९ के दिन उपरोक्त पुष्करणे ब्राह्मण टङ्कशाली लल्लूजीको लुद्रबे नगर के भाटी राजा मुन्धराबलजीने अपना गुरु बनाके व्यास पदवी दी थी। तभी से टल्लू जीके वंशवाले पुष्करणों की जाति में अबतक व्यास कहलाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्हीं लल्लूजीसे ८ पीढ़ी पहिले कमलापतिजी हुये थे । वे स्वर्णसिदि (रसायन वा कीमियाँ करना) जानते थे। यह विद्या वंश परम्परासे लल्लूजीको भी प्राप्त हुई थी। इसी विद्या के प्रतापसे उन्होंने अनेक परोपकारी कार्यों में असङ्ख्य धन व्यय करके बड़ी कीर्ति माप्त की थी। सं० ९२६ में भाटी राजपूतों के पुरोहित (कुल गुरु) देवायतजी के पुत्र दीनजीने लुद्रवा नगर में 'दीदासर' नाम एक तालाब बनवाया था, जो आजतक उनके नाम से प्रसिद्ध है। सं० ९०९ में भाटी देवराजने अपनी राजधानी देरावल में बनाई। फिर सं० ९१५ में लुद्रवा नगर के पँवार राजा जसभानको मार के अपनी राजधानी लुद्रवे में नियत की । उस समय लुद्र (पँवार) राजपूतों के वंश परम्परा के कई पीढ़ियों के पुरोहित ( कुलगुरु ) विमलाजी को, जो आचारज ( आचार्य ) जाति के पुष्करणे ब्राह्मण थे, किलेदारी व गङ्गाजल की नौकरी दी। और उन की सन्तान को परदेश बैठों को भी कन्दोरे बन्ध दक्षिणा देनेका ताम्र पत्र कर दिया । अतः आजतक ब्रह्मभोजके समय उनकी सन्तान को परदेश बैठों को भी दक्षिणा दी जाती है। (देखो जैसलमेर की तवारीख़ का पृष्ठ २३ वाँ)। सं० ८९८ में वारह जाति के राजपूतो के कई पीढ़ियों के कुल गुरु पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित देवायतजीने अपने शरण में आये हुये, जैसलमेर के वर्तमान महाराजा के पूर्वज, भाटी 'देवराज' को अपना पुत्र कह के अपने रत्नू नाम के पुत्र के साथ भोजन कराके शत्रुओं से प्राण बचाये थे। जिस का वृत्तान्त स्वयं टाड राजस्थान के भाग २ में जैसलमेर के इतिहास के अध्याय दूसरे में ऐसे लिखा है: For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 46 ३२ Beeji Raé succeeded in S. 870 (A. D. 814). He commenced his reign with the teeka-dour against his old enemies, the Barahas, whom he defeated and plundered. In S. 892, he had a son by the Bhoota queen, who was called Deoraj. The Barahas and Langahas once more united to attack the Bhatti prince; but they were defeated and put to flight. Finding that they could not succeed by open warfare, they had recourse to treachery. Having, under pretence of terminating this long feud, invited young Deoraj to marry the daughter of the Baraha chief, the Bhattis attended, when Beeji Raé and eight hundred of his kin and clan were massacred. Deoraj escaped to the house of the Purohit (of the Barahas, it is presumed ), whither he was pursued. There being no hope of escape, the Brahmin threw the Brahminical thread round the neck of the young prince, and in order to convince his pursuers that they were deceived as to the object of their search, he sat down to eat with him from the same dish." (Tod. Vol. II, Jaisalmey, Chap. II.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " ( - जैसलमेर के महाराजाओं के पूर्वजों का राज्य पहिले तोट नगर में था । वहां के भाटी राजा तराडजीके पत्र ) बिजयराजजी संवत् ८७० [ ई. सन् ८१४ ] में राज्यगद्दी बैठे। उसी दिनसे ही अपने पुराने शत्रु बाराहोंके पीछे पड़े और उनको उन्होंने पराजित किये और लूट लिये । सं० ८९२ में उनके भुट्टा जातिकी राणी से देवराज नामक एक पुत्र हुआ । बाराह और लांगाह भाटीराजा पर चढ़ाई करने को एकवार और सम्मिलित For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुये, परन्तु वे ( फिर भी पहिले की तरह ) पराजित हुये और भगा दिये गये । यह जान कर, कि हम खुल्लम खुल्ला लड़ाई क. रने में ( भाटियों से) नहीं जीत सकते, उन्होंने (एक) छलरचा । ( परस्पर को) कई वर्षों की लम्बो लड़ाई का अन्त करने के बहाने से उन्होंने (भठिण्ड के ) बाराह (जाति के ) राजाको पुत्री व्याहने के लिये कुँवर देवराजको निमन्त्रण दिया (विवाह का लग्न भेजकर जान भठिण्डे बुलाई)। भाटी उपस्थित हुये जब कि विजयराज और उनके ८०० भाई बेटे मार दिये गये । देवराज पुरोहित के घर में भाग गये (छिप गये ) [उस पुरोहित को लोग बाराहों का पुरोहित समझते हैं ] वहां भी उनका पीछा किया गया । उस ब्राह्मणने ( देवराज के ) वचनेकी कोई आशा न देख के उस राज कुमार के गले में जनेऊ डाल दी और उस के साथ एक थाली में भोजन करने को बैठ गया । जिससे कि उनका पीछा करने वालों को यह विश्वास हो जावे कि जिस पुरुष को हम ढूँढने को आये हैं उस में हमको धोखा हुआ है (अर्थात् यह तो देवराज नहीं है, किन्तु इसी ब्राह्मणका लड़का है तभी तो एक थाली में भोजन करते हैं, ऐसा समझ कर देवराज को जीता छोड़के पीछे लौट गये । )" (टाड राज स्थान भाग २ जैसलमेर के इतिहास का अध्याय २) इसी प्रकार पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित देवायतजी और उन के रत्न नामक पुत्रने भाटी देवराज के प्राण शत्रुओं से बचाये थे, जिसका पूर्ण वृत्तान्त जैसलमेरकी तवारीख के पृष्ठ १८ में लिखा है। उस का अभिप्राय यों है: पँवारों, झालों, वाराहो आदि ने मिलकर तणोट नगर के भाटी राजा तराइजी व उनके युवराज कुँवर विजयराज से कई For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ वार युद्ध किये । परन्तु कभी भी जय प्राप्त नहीं हुई । तब भाटियों का राज्य धोखेसे छीन लेनेके विचार से परस्पर का वैर मिटाकर सन्धि कर लेने का बहाना करके भठिण्डे के बाराह जाति के राजाने विजयराज के पुत्र भँवर देवराज को अपनी कन्या व्याह देनेका लग्न भेजा । भाटी भी इनके छल को न समझकर जान भठिण्डे ले गये। वहां चूक हुआ और १३०० लोको सहित विजयराज मारे गये । भाटियों की इष्ट देवी श्री स्वांगियाजी की आज्ञासे देवराज को 'नेग' नामका एक राईका अपनी ऊँटनी पर बैठाके ले भागा । किन्तु पीछे से शत्रुओं की सेना अती देखके देवराज की रक्षा करने में अपने को अब असमर्थ समझ के एक खेत में पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित देवायत - जीको पिछला वृत्तान्त कह के देवराज को एक खेजड़ी वृक्ष की शाखा पकड़वा के चलती ही हुई ऊँटनी परसे उतार के सौंप गया । देवायतजीने उसको तुरन्त जनेऊ पहिना के खेति में नैदान करने को खड़ा कर दिया । इतने में पीछे से देवराज को पकड़ने वाली सेना आई । उस में एक ऐसा चतुर पागो ( खोज - पैरों के चिह्न - पहिचानने वाला ) था कि भूमि पर ऊँटनी के पि छले पैरो के चिह्न देखने ही से कह दिया कि यहां तक तो ऊँटनी पर सवार दो थे परन्तु यहां से आगे अब ऊँटनी पर सवार केवल एक ही रह गया है; अतः अपना चौर, भाटी देवराज, इन्हीं खेतवालों में है । तब पीछा करनेवालोंने पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित देवायतजी को कहा कि हमारा चौर भाटी देवराज तुम्हारे यहां हो है सो हमको दे दो, नहीं तो तुम सब को मार डालेंगे | परन्तु देवायतजीने कहा कि यहां कोई चौर नहीं है । ५ तो मेरे बेटे और छठा मैं हूं । इतने में अचानक देवायतजी के For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ रत्नू नामक एक बेटे को बहू आ गई । वह इस मामले से पिछ कुछ अनजान थी । उसको पोछा करने वालोंने पूछा कि 'तेरे ससुर के कितने बेटे हैं ?' उसने उत्तर दिया कि '४ बैटे है ।' फिर उन्हों ने पूछा कि 'तो फिर यह पाँचवां कौन है ?' तब उसने कहा कि 'कोई चौर होगा ।' यह बात सुनते हो देवराजने रत्नू की बहु के एक थप्पड़ मारी, और यह दोहा बोला:मरजेहे भाभी थारै दासै । चोर नेदानैके न्हासै ? ॥ इस दोहे का अभिप्राय यह था कि चोर होता है वह तो भाग जाता है, किन्तु खेत में नेदान नहीं करता । तूतो भोजाई होके ऐसा ठट्टा करती है परन्तु यह समय ठठ्ठा करने का नहीं हैं, क्यों कि तेरे ठठ्ठा करने से सचमुच चोर समझा जाके मै मारा जाऊंगा । इस दोहे के तात्पर्य को समझ कर रत्नू की बहुने पहिलेकी बात का अर्थ तुरन्त बदल दिया और कहा कि 'मैंने अपने ससुर के ४ बेटे बतलायें हैं उनमें मैंने अपने पतिको नहीं गिना है । क्यों कि इतने मनुष्यों में पतिको बताना खोके लिये लज्जाकी बात है । और जिसको मैंने चोर कहा है वह मेरा छोटा देवर है केवल प्यार करने को मैंने इसका ऐसा ठठ्ठा कर दिया था ।' किन्तु तभी इस बात से पीछा करनेवालों का संशय मिटा नहीं । तब अन्त में देवायतजी को कहा कि आपके यहां कोई दूसरा नहीं है तो 'आप सब एक साथ एकही थाली में भोजन कर लें तब तो छोड़ देंगे वरना सब को मार डालेंगे ।' तब देवायतजीने सोचा कि देवराज के साथ सब के सब भोजन करने से तो हम सभी जाति से खारिज हो जायेंगे और इधर किसी के भी ओ. For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन न करने से देवराज मार डाला जावेगा। अतः उन्होंने उस समय बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया और कामसे खोटी हो जाने आदि का बहाना करके सब एक साथ नजीमके दो दो जनों को भेले जिमा दिये । जिनमें भाटी देवराज के साथ अपने बेटे रत्नू को जिमा दिया । यह देखके पँवारों, झालों, वाराहों की सेना आगे चली गई और भाटियों की राजधानी तणोठ को बरबाद कर दी। जिन लोगोंने विश्वास घात करके १३०० मनुष्य मार डाले उन के लिये ६ मनुष्यों को मार डालना क्या कोई बड़ी बात थी ? नहीं परन्तु शत्रुओ की सेनामे जो वाराह जाति के राज पुत्र थे उनकी पुरोहिताइ ( कुलगुरु पन) कई पीढ़ियों से इन्हीं देवायतजी के कुलमें चली आती थी इसी लिये इन को अपना पुरोहित जान के जीते छोड़ दिये वरना सबको मार डालने । फिर पुरोहित देवायतजी व उनके बेटे रत्नू के प्रयत्न व सहायतासे भाटी देवराजने अपना राज्य पीछा स्थापित करके सं० ९०९ माघ सुदि ५ सोमवार को अपने नाम पर 'देरावळ' का किला बनाया जिस के प्रमाण का यह एक दोहा है: संवत् नवनवोनरै दीवी देरावल नींव । भुट्टाँ, रोहिल, भाटियाँ. सबलां घाली सीव ॥ उस समय भाटी देवराजने अपना प्राण बचाने वालो का बड़ा उपकार मान के पुरोहित देवायतजी को तो अपना पुरोहित (कुलगुरु) बनाया और रत्न को, जो उन के साथ भोजन कर लेने से पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति से अलग कर दिया For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गया था, अपना पोलपाट बारहट बना के चारणों की जातिमें मिला दिया। तब से देवायतजी के अन्य ३ बेटों के वंशवाले तो पुष्करणों में भाटी राजपूतों के पुरोहित कहलाते हैं और समस्त भाटी राजपूत उनको अपना कुलगुरु मानते हैं । इतनाही नहीं किन्तु जैसलमेर के राज्य में 'जोइजत' व 'मुसाहिब' हर ओहदों पर रहते हैं, और चौथे पुत्र रत्नू के चारण हो जाने से उसकी स. न्तान अब तक 'रत्न चारण' कहलाती है। इसी प्रकार पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित रतनू का भाटी देव. राज को अपना भाई कह कर उसके साथ भोजन करके शत्रुओंसे बचाने का सम्पूर्ण वृत्तान्त रिपोर्ट मर्दुम शुभारी राज्य मारवाड़ बाबत् सन् १८९१ ई०, के भाग तीसरे के पृष्ठ १८३ में भी लिखा है। विचार का स्थल है कि यदि पुष्करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति पुष्कर खोदने वाले शूद्र ओडों (बेलदारों) से ही हुई होती तो एक यदुवंशी राजपूत राजा के प्राण बचाने के लिये, आपत्काल के समय, एकान्त जङ्गल में, उस के साथ, केवल एक ही वार भोजन कर लेने पात्रही से स्वयं देवायतजीको अपने प्राण प्यारे पुत्र रत्न को सदा के लिये जाति से अलग करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। बहुत होता तो उचित प्रायश्चित कराके उसे श्रुद्ध कर लेते । परन्तु धर्म शास्त्र को मर्यादानुसार एक तो ह. त्यारा ( मनुष्य मारनेवाला) और दूसरा नालभ्रष्ट (किसी अन्य जाति वाले के साथ भोजन करने वा मद्य मांस आदि अभक्ष्य पदार्थ खाने वाला ) इन को जाति से बाहर कर देने का नियम पुष्करणे ब्राह्मणों में भी परम्परा से चला आता है इसी लिये For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वयं देवायतजीने ही अपने पुत्र रतन को जातिसे बाहर कर दिया। तभी तो उसे चारणों की जाति में मिला देने की राजा को आवश्यकता पड़ी थी। जब कि पुष्करजी का इतिहास लिखते समय टाड साहबने राजस्थान के भाग १ अध्याय २९ वें में पुष्करजी को प्रारम्भ में तो ब्रह्माजी का उत्पन्न किया हुआ और ब्रह्माजी के पोछे मण्डोर के अन्तिम पड़िहार राजा नाहरराव का खुदवाया हुआ होना और नाहरराव पड़िहार का विद्यमान होना विक्रम संवत् १२०६ में भाग १ के अध्याय ४, ५, ७ और २६ वें मेंमाना है, तो टाट राजस्थान के लेखानुसारभी पुष्करजी का तालाब सं० १२००, के लगभग खुदा है, अतः टाड राजस्थानकी पूर्वोक्त 'अजब कहानी, के अनुसार पुष्करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति भी तो तभी से होनी चाहिये । किन्तु उसी टाड राजस्थान के भाग २ के जैसलमेर के इतिहास के अध्याय २ में वर्तमान जैसलमेर के महाराजाओं के पूर्वज भाटी राजा विजयराज के पुत्र देवराजको सं० ८९८ में भठिण्डे के वाराह जाति के राजाओं के वंश परम्परा के पुरोहित (कुलगुरु) ने अपना भाई कह कर अपने साथ एकही थाली में जिमा के शत्रुओं से प्राण बचाना लिखा है । भाटी देवराज के साथ भोजन करने वाला वह पुष्करणाब्राह्मण पुरोहित देवायतजी का पुत्र रत्नू था इस बात को जैसलमेर की तवारीख व रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ भी स्वीकार करती है । इतनाही नहीं किन्तु भाटी राजा देवराज के साथ भोजन करने वाले रत्नू को पुष्करणे ब्राह्मणों ने अपनी जाति में नहीं रखा; तब भाटी राजा देवराजने उसको अपना पोळपाट बारहट बना के चारणों की जाति में मिला दिया था। उसकी For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन्तान अब तक चारणों की जाति में विद्यमान है और पुष्करणे ब्राह्मण रत्नू की सन्तान होने से रत्नूचारण कहलाती है। और रतुनू के दूसरे भाइयों को भाटी राजा देवराज ने अपने पुरोहित बनाये जिन की सन्तान अद्यावधि पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति में विद्यमान है । और भाटी देवराज के वशधर होने से जैसलमेर के महाराजाओ की पुरोहिताई सदासे करते आये हैं। विशेष ही विचार करने का स्थल है कि कहां तो पुष्कर खुदने पर (सं० १२१२ में) पुष्करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति को अजब कहानी और कहां पुष्कर खुदने से ३०० वर्ष पहिले (सं. ८९८ में) ही पुष्करणे ब्राह्मणों का विद्यमान होना ? ये दोनों परस्पर विरुद्ध बातें एक ही जैसलमेर के इतिहास में लिखी गई हैं इस से बढ़कर टाड साहब की और क्या भूल होगी? टाड राजस्थान के इस लेख से पुष्कर खुदने से ३०० वर्ष पहिले पुष्करणे ब्राह्मण विद्यमान थे इतना ही नहीं किन्तु पुष्कर खुदने से ५०० । ७०० वर्ष पहिले भी पुष्करणे ब्राह्मणों का वि. द्यमान होना स्पष्ट सिद्ध होता है। क्यों कि देवराज को बचाने वाला पुष्करणा ब्राह्मण पुरोहित रत्नू भठिण्डे के वाराह जाति के राजाओं के वंश परम्परा का पुरोहित था अतः कमसे कम १०।२० पोढ़ियों से तो इन की पुरोहिताई होनी ही चाहिये तब तो सं० ८९८ से भी २०० । ४०० वर्ष पहिले ही से पुष्करणे ब्राह्मणों का विद्यमान होना स्वयं सिद्ध हो गया तो फिर पुष्कर खदने से ५०० । ७०० वर्ष पहिले से पुष्करणे ब्राह्मणों का विद्यमान होना तो मानना ही पड़ेगा । परन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों के इति. हास से इस से सैंकड़ों ही वर्ष पहिले से विद्यमान होने का पता लगता है जिन के और भी कई प्रमाण आगे लिखता हूं। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० सं० ८७७ में तणोट नगर के भाटी राजा तराड़ जी ने अपने पुत्र विजयराज को युवराज नियत करके आप स्वयं श्री लक्ष्मीनाथजी की सेवा करने लगे । और उस राज्य मन्दिर में कथा बाँचने के लिये पुष्करणे ब्राह्मण टङ्कशाली (जो पोछे से व्यास कहलाये) मानजी को रखे । इन्ही मानजी की रम्भा नाम की कन्या भठिण्डे के वाराह जाति के राजाओं के वंश परम्परा के पुरोहित देवायतजी के पुत्र दीनजी को व्याही थी। सं० ८७५ में भठिण्डे के वाराह जाति के राजा जूने का पुत्र नाईया तणोट नगर के भाटी राजा तराड़ जी व उनके पुत्र विजयराज से पहिले की पराजय का बदला लेने को गजनी के बादशाह हुसैनशाह की सेना अपनी मदद के लिये मुलतान से ले आया। इस घोर सङ्गाम में दोनों ओर के सहस्रों मनुष्य मरे। तो भी जय तो भाटियों ही की हुई। परन्तु बहुत से नाटी मारे जाने के उपरान्त कइ अन्य जातियों में भी जा मिले। उन में कुं. वर डुला, चूडा और डागे की सन्तान महेश्वरी पहाजनों में जा मिली, जिनसे दुला, चण्डक और डागा जातिये प्रसिद्ध हुई। इन में डागेने तो रंगा और चण्डकने विशा जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों की कुलदेवियों के शरण में जा के रक्षा पाई थी, इस उपकार में अपने वंश के लिये डागोने तो रंगों की कुलदेवी 'सच्चाई' को और चण्डक ने विशोंकी कुलदेवी 'आशपुरा' को कु. लदेवी मानीथी सो आजतक वैसे ही मानते आये है।। सं० ७२७ में सातलमेर के तुबर राजा शङ्करने अपनी कन्या गढ़ मरोट के भाटी राजा मूलराज कोव्याहो । उस समय उन के वंश परम्परा के पुरोहित कपिलस्थ लिया (छाँगणी) For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१ जाति के पुष्करणे ब्राह्मण थे । उन के वन्य से विवाह की शोभा अधिक हुई। इससे भाटी राजा मूलराजभी बहुत प्रसन्न हुये । सातलमेर के कुंवर राजाओंने अपने पुरोहितों को 'बाँ ना' नामक एक गाँव (जो पोकरण से दक्षिण की ओर एक कोश की दूरी पर है ) दत्त दियाथा सो वह गांव आज तक छांगांणी जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों की अधीनता में चला आता है । सं० ५७५ में लुवा नगर में लुद्र (कल्ला ) जाति के पुष्करणे ब्राह्मण हरवंशजीने सहसभोज ( अशेषभोज ) नामक विष्णु यज्ञ किया था । उस समय अपनी जातिके सम्पूर्ण ब्राह्म को दूर २ से बुलाके एकत्र किये और ७ दिनतक भोजन कराके प्रत्येक ब्राह्मणों को २) २) रुपये दक्षिणा देके विदा कियें। उस उत्सवमें पुष्करणे ब्राह्मणों के भाट जैतराज को कड़े, कण्ठी, मोती आदि शिरोपाव के अतिरिक्त ५००) रुपये रोकड़ दिये थे । इस यज्ञ का वृत्तान्त भाटों की बहियों में तथा कल्लों के इतिहास में विस्तार से लिखा है । सं० ५३१ में लाहौर के भाटी राजा 'गजूराव' लाहौ रका राज्य अपने पुत्र 'लोमनराव' को दे के आप गजनी (खुरासान ) की गद्दी पर जा बैठे । लोमनराव का विवाह लुद्रवा नगरके पँवार राजा 'वीरसिंह' की कन्यासे हुआ । उस समय वीरसिंहने अपने वंश परम्परा के पुरोहित आचारज ( आचार्य जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों को 'काला' नामक एक गाँव (जो जैसलमेर से पश्चिम की ओर ५ कोश की दूरी पर है ) दत्त देके ताम्र पत्र कर दिया था । पीछे से आचारजोंने वह गाँव अपने सवासने गजा जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों को सङ्कल्प कर दिया। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ફર लुवा नगरके पँवारोंका राज्य सं ९१५ में नष्ट हो गया अर्थात् भाटी राजा देवराजने छीन लिया था तब से इस देश मे देवराज की सन्तान जैसलमेर के भाटी महाराजाओं का राज्य है जिसे आज १०५१ वर्ष हो गये किन्तु पँवारोंके दिये हुये गाँवको भाटी राजाभी वैसा ही साँसन मानते आये हैं जैसा कि पँवारोंने माना था | अतः यह 'काहला ' ग्राम आज तक गजा जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों की स्वाधीनतामें चला आता है जिसे मिले आज १४३५ वर्ष व्यतीत हो गये हैं । (देखो जैसलमेर की तवारीख के पृष्ठ १३६ वें में परगने जैसलमेर के गाँव नम्बर ५२ वें की कै फ़ियता) सं० २२२ में जैनाचार्य रत्नप्रभुसूरि ने पारवाड़ में ओसियां नगर के १८ खांपके पँवार राजपूतोंको जैनी बनायेथे जिस का सम्पूर्ण वृत्तान्त ओसवालोंके इतिहासमें विस्तारसे लिखा है । उसका सारांश यह है कि वहां के राजाकी वृद्धावस्थामें उन का एक लौता पुत्र सर्प के काटने से मर गया था । उसको रत्नप्रभुसूरिने इस प्रण पर निर्विष करके पीछा जिला दिया था कि वे सब लोग जैन धर्मको धारण करें । इस लिये वे पंवार राजपूत जैनी हो गये । जैनी हो जानेपर पँवारोंने अपने पुरोहितों को कहा कि "तुम हमारी विरत रखना चाहते हो तो हमारे घर का अन्न जल को और हमारे जैन मन्दिरों की सेवा करो" | वब ६ गोत्र के तो गूजर गोड़, ६ गोत्र के खण्डेलवाल और ४ गोत्रके पुष्क रणे कुल १६ गोत्रके ब्राह्मणोंने विरत के लोग उनके घर में भोजन किया जिससे भोजक कहलाये जिसके ममाण की यह एक कहावत परम्परा से चली आती है कि: variघर प्रोहिताँ । ओसवालाघर भोजकाँ ॥ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर वे १६ गोत्र के ब्राह्मण अपनी जाति अलग बनाके ओमवालों की विरत और उनके मन्दिरोंकी सेवा करने लगे जिससे फिर सेवग कहलाये। कितनेक लोग कहते हैं कि जैनी भोसवालों कीजाति सं० ८०० के लगभग बनी है । किन्तु ऐसे तो सं० ८०० ही क्यों सं० १५०० के लगभग तक ओसवालोंकी जाति बनती रही है, अर्थात् दूसरी जाति के लोग इनमें मिलते चले आये हैं। परन्तु इस जातिका प्रारम्भ तो पँवार राजपूतों से सं० २२२ ही में हो गया है. जिसके प्रमाणका एक दोहा ओसवालोंके इतिहासमें से यहाँ लिखता हूं:संवत् दोय बावीस के ओसवाल क्षत्री हुआ । चवदैलो चवालीस नख सकल कहु जुआ जुआ॥ यद्यपि यह दोहा ओसवालों की जाति बन चुकने पर बना है परन्तु इसके बनानेवालेने भी ओसवालों की जाति बनने का प्रारम्भ होना तो सं० २२२ ही में माना है। अतः सेवगों की जातिभी सं० २२२ हीमें बनी है उसी समय ४ गौत्रके पुष्करणे ब्राह्मण भी उस जातिमें शामिल हुये थे। - यही बात स्वयं सेवगोंने भी अपनी उत्सत्ति के इतिहास में लिखाई है। (देखो रिपोर्ट मम शुमारी, राज्य मारवाड़, सन् १८९१ ई०, के भाग तीसरे के पृष्ठ ३२१ में सेवगोंकी उत्पत्ति । सं० २१३ में बोधा जातिके पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित हरवंशनी जिनके वंशवाले भाटी राना देवराजको बचाने के स. मय पे भाटियों के पुरोहित हुये हैं, अपनी कुलदेवी 'डेहरूमाता' को सिन्ध से अपने साथ मारवाड़ में लाये थे ( उस समय मार For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ वाड़में यादवों का राज्यथा ।) फिर जहां पर डेरा कियाथा वहां माताको आज्ञासे उसी माताके नामपर 'डेहरू' गाँव वमाया जो कि जोधपुर से ईशानकोण की ओर परगने नागोर में विद्यमान है; और पुरोहित जातिके समस्त पुष्करणे ब्राह्मण तभीसे अपनी उस कुलदेवी की मानता करने को वहीं पर जाते हैं। सं० २०९ में पुष्करणे ब्राह्मण लुद्र ब्रह्मदत्तनीने विद्या के बलसे शुक्रजी की आराधना करके उन्हें प्रत्यक्ष बुलाये थे । उस समय शुक्रजी से शुक्र का तारा अस्त होने के समय शुभ कार्य करने में तारेका दोष न लगने का वर मिला था । तबसे लुद्रं जातिके समस्त पुष्करणे ब्राह्मण (जो पोछे से कल्ला कहलाये) तारे के अस्त होने का दोष नहीं मानते हैं । इसी लिये लोग कहते आये हैं कि कल्लोंने तारा उतारा था । (देखो रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ का पृष्ट १८६ वाँ।) पुष्करणे ब्राह्मणो की प्राचीनता के इतने प्रमाण लिखे गये वे विक्रम संवत् के आधार पर लिखे गये हैं परन्तु इस से पूर्व विक्रम संवत् प्रारम्भ ही नहीं हुआथा इस लिये इस से पहिले के प्रमाण संवत्के आधार परतो नहीं किन्तु पीढ़ियों के आधार पर तो विक्रम संवत् के भी सैकड़ों ही वर्ष पहिले के और भी कई लिख सकता हूं। पर जब कि इतने प्रमाणों से भी यह बात ता स्पष्ट हो गई कि पुष्करका तालाब तो सं० १२१२ में स्तुदा है और पुष्करणे ब्राह्मण सं० २०९ में भी विद्यमान थे। जिससे पुष्कर खुदने के समयसे १००० वर्ष पहिले तक को तो पुष्करणे ब्राह्मणों को विद्यमानता इन प्रमाणोंही से सिद्ध हो गई तोफिर अब अधिक प्रमाण लिखना गोया पाठकों के अमूल्य समय को वृथा नष्ट करना है। अतः ऐसे प्रमाणों को तो अब मैं यहीं पर - For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाप्त करता हूं। किन्तु आगे फिर में अन्य प्रकार के कुछ प्र. माण और भी लिखूगा कि, जिससे पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राची. नता और भी अधिक दृढ़ हो जावेगी। पुष्कर खुदने में किसी किसी का मत भेद । सम्पूर्ण लोगों का एकही मत है कि पुष्करजी का तालाब मण्डोर के राजा नाहरराव पडिहारने खुदवाया था और संवत् १२१२ में खुदवाया था जिप्त की सत्यता के कई प्रमाण लिखे जा चुके हैं। परन्तु कोई २ नवीन इतिहास वेता कहलाने वाले अपनी खिचड़ी जुदी ही पकाना चाहते हैं उन का भी मत दिखला के भ्रम दूर करता हूं। पुष्करजो के पण्डों की कहानी। पुष्कर तीर्थ पर पण्डों के २ भेद हैं। एक तो बड़ी वस्ती वाले और दूसरे छोटी वस्ती वाले । इन में बड़ी वस्ती वाले अपनी तीर्थ पुरोहिताई की प्राचीनता की कहानी में कहते हैं कि "पुष्करजी के तालाब को मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहारने सं० ७४४ में खुदवाया था।" परन्तु इस कहानी की सत्यता के लिये वे केवल अपने मुख की कल्पना के अतिरिक्त अन्य कोई पुष्ट प्रमाण नहीं बतलाते अतः विना प्रमाण इनकी यह बात बिलकुल विश्वास करने योग्य नहीं । क्यों कि प्रथम तो अजमेर की तवारीख इस कहानी को बिलकुल स्वीकार नहीं करती। दूसरा जोधपुर से प्रकाशित 'भारत मार्चण्ड' नामक मासिक पुस्तक के सं० १९५५ के श्रावण मासके अङ्क For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में 'मारवाड़के संक्षिप्त इतिहास' में पृष्ठ १९ वें की पंक्ति ११२ में लिखा है कि "पड़िहार राजपूतों की उत्पत्ति विक्रमी संवत् को आठवीं शताब्दि में पाई जाती हैं"। जब कि मण्टोर के पड़िहार राजपूतों को उत्पत्तिही आठवीं शताब्दिमें हुई है तो फिर उनके वंशमें से कई पोढ़ी पोछे होने वाले नाहरराव पड़िहार सं० ७४४ ही में कैसें पुष्कर को खुददा सकते थे? इसके अतिरिक्त सं० ७४४ में मण्डोर में राज्य ही पड़िहारों का नहीं था किन्तु पँवारों का था । पँवारों के इतिहास में यह बात प्रसिद्ध है कि पँवारों में 'धरणी वाराह पँवार' मारवाड़ का बड़ा नामी राजा हुआ, जिसने अपने राज्यके ९ कोट अपने भाइयों को बाँट दिये थे। तभी से मारवाड 'नवकोटी' कहलाती है उसकी तफ़सील रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ बावत सन् १८९१ ई० के तीसरे भागके पृष्ठ १० । ११ वे में यों लिखी है:मण्डोवर सावत हुओ, अजमेर सिन्ध स । गढ़ पूँगल भज मल हुआ, लुवै भान भू ॥ आल पाल अर्बुद, भोज राज जालन्धर (जालोर)। जोग राज घर धाट, हुयो हंसू पारकर ॥ नव कोट किराडू संजुगत, श्रिर पँवारां थरपिया। धरणी वराह धर भाइयाँ, कोट बाँट जुआ जुआ किया। ___ यह बँटवाडा (विभाग) सं० ५७६ से पहिले हो चुका था। जिसका प्रमाण यह है कि जिस सावत पंवार के भागमें मण्डोर आया था उस मण्डारे के राजा सावत्र पँवार को पुत्री का विवाह For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सं० ५७६ में 'मुमण वाण' के भाटी राजा मङ्गलराव से हुआ था इसी प्रकार सात पँवार के वंश में कई पीढ़ी पीछे पँवार उदय राज मण्डोरका राजा हुआ उसकी कन्याका विवाह सं०७१३के पीछे 'मरोट' के भाटी राजा मूलराज से हुआ था। (देखो जैसलमेर की तवारीख़ के पृष्ठ १६ वें की पंक्ति ६७८ तथा पृष्ठ १७ वें को पंक्ति २।३) इन के पीछे भी कई पीढ़ियों तक मण्डार में पँवारों का राज्य रहा है। किन्तु सं० ९०९ के पीछे भाटी राजा देवराजने पँवारों के ९ कोट* जीत लिये उन में से जालोर तो सोनीगरों को और मण्डोर पड़िहारों को दे दिये। तब से मण्डोर में पड़िहारों का राज्य ___* पवारों के ९ कोट भाटी देवराजने जीत लियेथे उनकी तफ़सील जैसलमेरकी तवारीख के पृष्ठ २३ वेंकी पंक्ति ४ से १० तक यों लिखी हैं:देवराज श्रये दुर्ग लद्रवाँ आप घर लाए। सम वहण त्रय सिन्ध जूनो पारकर जमाऐ ॥ आबू फेरो आज भडु जालोर हु भंजै। मारे नृप माहोर मअजमेर हु गंजै॥ पंगल गढ़ लीधा प्रगट कतल विठंडै कीजिये । देव राज चढ़ते दिवस रत्नू आज्ञा धर लोजिये ॥ ___+ जैसलमेरकी तवारीखमें तो लिखा है कि भाटी देवराजने मण्डोर पडि ारों को दे दिया। किन्तु पडिहार राजा बाहुकके शिला लेखमें लिखा है कि पड़िहार राजा शिलुकने भाटी देवराज को युद्ध में जीतके छत्रादि चिद पाये । अतः उसी समय मण्डोर भी जीतकर ले लिया हो । इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि मण्डोर में पड़िहारों का राज्य सं० ९०९ के लगभग ही हुआ है। For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ४८ हुआ। इससे पहिले तो मेड़ते में राज्य था। इससे यह बात निःसन्देह स्वीकार करनी पड़ती है कि सं० ७४४ में मण्डोर में पड़िहारों का राज्य ही नहीं था । तो फिर मण्डोर के पड़िहार राजा नाहररावने सं० ७४४ में पुष्कर के तालाबको खुदवाया था यह बात क्यों कर सिद्ध हो सकती है ? मण्डोर के राजा नाहरराव पड़िहार तो सं० १२०० के लगभग हुये थे और उन्होंने सं० १२१२ मे ही पुष्करजी का तालाब खुदवाया था जिस के कई प्रमाणमैं पहिले लिख चुकाई । किन्तु इबने परभी यदि कोई सं० ७४४ में ही पुष्कर खुदवाना मानले तौभी पुष्करणे ब्राह्मण तो पुष्कर खुदनेसे सैंकड़ों वर्ष पहिलेसे मारवाडमें सिन्धसे आये हैं जिसे जैसलमेर जोधपुर आदिके इतिहास सप्रमाण स्वीकार करते हैं। शिला लेखों से भ्रमपुष्करजी के तालाब को मण्डोर के पड़िहार राजा नाहरावने खुदवाया है । परन्त केवल प्राचीन शिला लेखों परही विश्वास करने वाले कोई २ विद्वान् कहते हैं कि पुष्करजी का तालाब ना. हररावने खुदवाया ही नहीं किन्तु मण्डोर के पड़िहार राजा चेन्दुकके पुत्र 'शिलुक' ने खुदवाया है। जिसके प्रमाण में वे पड़िहार राजा बाहुक का शिला लेख, जो सं०९४० के चैत्र सुदि ५ का खुदा हुआ जोधपुर के कोट में मिला है और इस समय महक में तवारीख राज्य मारवाड़ में रखा है, देते हैं । उसमें यों लिखा है:ततः श्रीशिलुकाजातः पुत्रो दुर्वार विक्रमः। येन सोमा कता नित्या स्त्रवणो वलदेशयोः ॥१८॥ भट्टिकं देवराजं यो वल्लमण्डल पालकं । निपात्य तत्क्षणं भुमौ प्राप्तवाञ्छत्र चिह्नकं ॥१९॥ For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९. पुष्करिणीकारिता येन त्रेतातीर्थे च पत्तनं ॥ सिद्धेश्वरो महादेवः कारितस्तुंग मंदिरः ॥२०॥ ____ अर्थात् उस चन्दुक पड़िहार के शिलुक नाम एक अद्वितीय पराक्रमी अजेता, पुत्र हुआ। जिसने स्त्रवणी और बल्ल देश की सीमा स्थापित की और वल्लमण्डल के राजा भाटी देवरान को युद्ध में जीतके छत्रादि चिह्न पाये । और त्रेता तीर्थ पर पुकरणी (चौकोना तालाब ) बनाके ऊँचे मन्दिर में सिद्धेश्वर महादेवजी की प्रतिष्ठा कराई। परन्तु जब कि यह बात सर्वत्र ही प्रसिद्ध है, और प्रमाण भी मिलते हैं, कि पुष्करजी को मण्डोरके राजा नाहरराव पड़िहारने खुदवाया था तो फिर राजा शिलुक का पुष्कर खुदवाना क्यों कर सिद्ध हो सकता है ? कभी नहीं । परन्तु यह अनुमान उन्होंने उक्त शिलालेख में केवल 'पुष्करणी' शब्द देख ही के कर लिया है। किन्तु यह उनका भ्रम है क्योंकि पुष्करणी शब्द पुष्कर का वाचक नहीं है वरन एक छोटी तलाई का द्योतक है । इसके अतिरिक्त उक्त शिलालेखमें पुष्करणी; पर सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर स्थापित करना भी तो लिखा है किन्तु पु. कर पर इस नामका कोई मन्दिर है ही नहीं। अत: पुष्कर खुदवानेवाला शिलुक नहीं है । फिर भी यदि यह मान भी लें कि पुष्करजी को पड़िहार राजा शिलुक नेही खुदवाया था तो भी पुष्करणों के लिये कुछ हानी नहीं। क्योकि इसी शिलालेख में राजा शिलुक को भाटी राजा देवराज के साथ युद्ध करना लिखा है और यह युद्ध सं० ९१५ के पीछे हुआ है। परन्तु राजा शिलुक से लड़ने वाले भाटी राजा देवराजको, बाल्याव For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्था अर्थात् सं० ८९८ में, बारह जाति के राजपूतों के पुरोहित पुष्करणे ब्राह्मण देवायतीने शत्रुओं से बचाया था जिसका ससविस्तर वृत्तान्त पुष्करणे ब्राह्मणों को प्राचीनताके प्रमाण सं० ८९८ में लिखा चुका है । अत: पुष्करणे ब्राह्मण तो पड़िहार राना शिलुकसे भी पहिले ही से मारवाड़ में विद्यमान थे । पड़िहारराजा बाहुकके उक्त संस्कृत शिला लेख में लिखाहे कि:तस्मा नरभ टाजाः श्रीमान्नागभटः सुतः। राजधानी स्थिरा यस्य महन्मेडन्तकं परं ॥१२॥ राज्ञां श्रीजजिका देव्यास्ततो जाती महागुणौ। द्वौ सुतौ तातभोजाख्यौ सौदर्यो रिपुमर्दनौ॥१३॥ तातेन तेन लोकस्य विद्युचंचल जीवितं । बुध्वा राज्यं लघो. तुः श्रीभोजाय समर्पितं॥१४॥ स्वयञ्च संस्थितस्तातः शुद्ध धर्मासमाचरन् । माण्ड व्यस्याश्रमे पुण्ये नदी निर्झर शोभते ॥ १५॥ ____अर्थात् नरभट के पुत्र नागभटके, कि जिसकी राजधानी मेड़तेमें थी, जज्जिका नाम रानीसे तात और भोज नाम के २ पुत्र हुये । उनमें से तातने तो मनुष्यका जीवन बिजली के समान चञ्चल समझ के राज्य छोड़ के अपने छोटे भाई को दे दिया। और आप संसारको सांगके माण्डव्य ऋषिके आश्रम में शुद्ध धर्मका आचरण करने लगा। परन्तु इसी बाहुक के भाई कक्कुकके मागधी गाथाके एक शिला लेखमें नरभटको 'णारहड' और उप्त के पुत्र नागभट को 'णाह' लिखा है । इसी 'गाइड' का अपभ्रंश नाहरराव समझ For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर कुछ लोग इम नागभट ही के 'नाहरराव' होने का अनुमान करते हैं । किन्तु उनका यह अनुपान करना यथार्थ में ठीक प्र. तीत नहीं होता है क्योंकि प्रथम तो उक्त शिला लेख में नागभट की राजधानी 'मेड़ता' लिखी है, किन्तु पुष्कर खुदवाने वाले नाहरराव को राजधानी 'मण्डोर' थी । दूसरे शिला लेख में नागभट का उपरोक्त अन्य इतिहास लिखा होने पर भी 'पुष्कर का ता. लाब खुदवाने' आदिका कुछ भी वृत्तान्त नहीं लिखा है, किन्तु मण्डोर के नाहरराव का 'पुष्करका तालाब खुदवाना' सर्वत्र ही प्रसिद्ध है । फिर मेड़ते के राजा नागभट क्यों कर पुष्कर का तालाब खुदवानेवाले नाहरराव हो सकते हैं ? फिर भी यदि नाग भट ही का अपभ्रंश नाहरराव मान लें तौभी यह तो कोई.आरश्यक नहीं है कि उन्हें पुष्कर खुदवाने वालेभी मान लें । क्यों कि एकही नामके कई राजा एकही कुल में हो सकते हैं जैसे: जोधपुर के राठौड़ वंशमें महाराजा प्रथम जसवन्तसिंहजी सं० १६९५ में हुयेथे और उनसे ९ पीढ़ी पीछे सं० १९२९ में उसी नामके दूसरे महाराजा फिर हो गये । इसी प्रकार जयपुर के कछवाहा वंशमें जयसिंहजी नामके ३ और रामसिंहजी नामके २ महाराजा हुयेथे । इनमें प्रथम रामसिंहजी सं० १७२४ में हुये थे उनके पिताका नाम जयसिंह जो था । इनसे ९ पीढ़ी पीछे फिर दूसरे रामसिंहनी सं० १८९२ में हुये । उनके भी पिताका नाम जयसिंहजीही था । सो जबकि एकही नामके पिनाओं के एकही नामके पुत्र और एकही रियासत के स्वामी होने पर. भी दोनों जयसिंहजी और दोनों रामसिंहजी एक नहीं थे, जो एक ही वंशम जुदे २ परगनोंके राजा और जुदे २ नामों के पिताओं के एकही नामके पुत्र हो जाने मात्र ही से क्या कभी एकही कार्य For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के कर्ता मान सकते हैं ? कभी नहीं। क्यों कि उक्त शिलालेखों में मेड़तेके राजा नागभटके पिताका नाम नरभट लिखा है किन्तु पुष्कर खुदनेवाले मण्डोर के राजा नाहरराव के पिता प्रेम. पालथे जिसके प्रमाणका एक पूर्वोक्त दोहा सर्वत्रही प्रसिद्ध है कि: संवत् बारै बारोत्तरै पुष्कर बाँध्यो धाम । पेमपाल रा नाहरराव 3 कीयो निश्चल नाम॥ इससे स्पष्ट है कि पुष्कर खुदवाने वाला नाहरराव मेड़तेके राजा नरभटका पुत्र नहीं किन्तु मण्डोर के राजा प्रेमपालका पुत्र था, जिसने सं० १२१२ में पुष्करजीका तालाब खुदवाया था। जब कि शिलालेख ( कीर्ति स्तम्भ ) खुदवाने का मुख्य उ. देशही अपने पूर्वजोंकी कीर्ति स्थापित करनेका है और इसीलिये उपरोक्त शिला लेखों में भी प्रत्येक राजाके नामके साथ २ साधारण इतिहास भी लिखे विना नहीं रहे तो क्या समस्त तीयों के गुरु पुष्करको खुदवाने जैसै महान् कीर्तिवाले इतिहास को क्या कोई शिला लेखमें लिखना भूल गये ? नहीं नहीं कभी नहीं भूले । तभी तो कहते हैं कि नागभट तो क्या इन शिला लेखों में के किसी अन्य राजाने भी पुष्कर नहीं खुदवाया था इसीलिये इन शिलालेखोंमें पुष्करका कुछभी वृत्तान्त नहीं है । अतः पुष्कर खुदवानेवाले नाहरराव पड़िहार इन शिलाले. खोंके खुदवानेवाले पड़िहार राजा बाहुक तथा कक्कुक से कई पीढ़ी पोछे हुयेथे-जिन्होंने सं० १२१२ में पुष्कर खुदवाया था जिसके कई प्रमाण पहिले लिख चुका हूं। फिरभी यदि कोई 'चालकी खाल' उतारनेवाले हठात् ही मेड़तेके राजा नरभटके पुत्र नागभटही को पुष्कर खुदवाने वाला For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाहरराव मानले तो भी वहभी तो सं० ८०० के पीछे ही हुआ है । क्योंकि उसी शिलालेखमें भाटी राजा देवराजसे (सं० ९१५ के पीछे ) युद्ध करनेवाले पड़िहार राजा शिलुकसे नागभट को ५ पीढ़ी पहिले हुआ लिखा है और ५ पीढ़िये अधिकसे अधिक १०० । १२५ वर्षों में तो अवश्य ही समाप्त हो गई होगी। अतः नागभट भी सं० ८०० के तो पहिले कदापि नहीं हो सकता। परन्तु पुष्करणे ब्राह्मण तो नागभट के समयसे भी बहुत ही अ. धिक समय पहिले ही से मारवाड़ में विद्यमान थे जिस के कई प्रमाण पहिले लिखे जा चुके हैं। उपरोक्त प्रमाणोंसे पाठक भली भाँति समझ गये होंगे कि पुष्करजी की उत्पत्तिमें कोई २ लोग जो मतभेद मानते हैं वह केवल उनका भ्रम है। किन्तु फिर भी उस भ्रमकोभी 'दुर्जनतोष न्याय से मानभी लें तोभी पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता में तो कुछ भी बाधा नहीं आती । क्यों कि येतो उपरोक्त मतभेद में बताये हुये समयसे भी सैकड़ों ही बर्ष पहिले से विद्यमान हैं जिसकी सत्यता के कई पुष्ट प्रमाण पाठक पढ़ ही चुके है और आगे भी पढ़ेंगे। पुष्करणे ब्राह्मणों की राज्य पुरोहिताई। यदुवंशी राजपूतों की पुरोहिताईपुष्करणे ब्राह्मणों की जाति के अग्रगण्य (मुख्य ) महर्षि गर्गाचार्यजी थे । इस लिये यह जाति 'गर्गमती' कहलाती है। और गर्गाचार्यजी यदु वंशीयों के पुरोहित (कुलगुरु) थे । अतः यदुवंशी मात्र पुष्करणों की समग्र जाति को भी अपना पुरोहित For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (कुलगुरु) मानते चले आये हैं। और श्री कृष्ण चन्द्र महाराजने अवतार धारण यदुवंशही में किया था। अतः कुल की मर्यादाके अनुसार उन्हों ने भी अपने कुलगुरु गर्गाचार्य जी के पैर पूने थे। यदुवंशियों की राज्य गद्दी द्वारिका में थी और उनका राज्य उसके आसपासके देशों में गुजरात, कच्छ, सिन्ध, पञ्जाव और मारवाड़ तक फैला हुआ था। इसी लिये उनके पुरोहित (कुलगुरु) पुष्करणे ब्राह्मण भी इन्हीं देशों में ही विशेष करके वसते हैं। श्री कृष्ण महाराजसे १२ पीढ़ो पीछे 'गजबाहु नामक य. दुवंशी राजा हुये उन्होंने खुरासान में जाके अपने नामपर 'ग. जनी' नगर विक्रम संवत् से २७३६ वर्ष पहिले ( अर्थात् उस समय जो युधिष्ठिर महाराजका संवत् चलता था, उसके संवत् ३०८ में) बसाया था जिसके प्रमाणका एक दोहा तवारीख़ नै. सलमेर के पृष्ठ १० वें की पंक्ति १ में यों लिखा है:तीन सत आठशक धर्म, वैशाषे सित तीज। रवि रोहिणि गज बाहुने, गजनी रची नवीन ॥ तभीसे खुरासानमें भी यदुवंशीयों का राज्य समय २ पर रहता आया है। और उनोंके पुरोहित पुष्करणं ब्राह्मणभी उ. नहींके साथ २ खुरासान में गये थे तभीसे पुष्करणे ब्राह्मणों का खुरासानमें जाना आना जारी है इस समयभी जैसलमेर आदि के पुष्करणे ब्राह्मण खुरासानमें-गजनी, कावुल, खुलम, कन्धार, हेरात, बल्ख, बुखारा, समरकन्द, यारकन्द आदि कई स्थानों में विद्यमान है और इनके पूर्वजोंके स्थापित किये हुये देवस्थान (जिन्हे अब 'द्वार।' कहते हैं ) कई पीढ़ियों से चले आते हैं। . For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५ भाटी राजपूतों की पुरोहिताईयदुवंशियों में भाटीजी नाम एक बहुत बड़े नामी और प्रतापी राजा सं० ३३६ में लाहोर में हुये । उन्होंने अपने नामपर पञ्जाब में 'भटनेर' नगर बसायाचा जो अब बीकानेरके राज्य में 'हनुमानगढ़' नामसे प्रसिद्ध है। भाटीनीकी तथा उनके ७ भाइयों की सन्तान राजपूतों में भाटी कहलाये। उनसे २० पोढ़ी पीछे तणोट नगरके भाटी राजा विजयराजके पुत्र कवर 'देवराज'ने यात्रुओंके हाथ मारे जानेके भयसे पुष्करणे ब्राह्मण देवायतजी के शरणमें आके रक्षा पाई तब इन्हें गुरु माना । तबसे अर्थात् भा. टियों की ३६ पीढियों से उनके पुरोहित पुष्करणे ब्राह्मण देवायतजीके वंशवाले ही चले आते हैं। पँवार राजपूतों की पुरोहिताईयदुवंशियों के पश्चात् पँवारों का राज्य इस देशमें फैला था तो पँवारोंने भी पुष्करणे ही ब्राह्मणों को अपने पुरोहित बनाये थे जैसे: ओशीयां नगर के पवार राजाओंने ४ गोत्र के तोपुष्करणे ब्राह्मणों को भी पुरोहित मानेथे किन्तु उन पँवारों से सं०२२२में जैनी ओसवालों की जाति बन गई तो उनके पुरोहितभी उनके घर में भोजन कर लेने से "भोजग" कहलाये उन्ही के साथ ४ गोत्र वाले पुष्करणे ब्राह्मणभी मिल गये जिसका वृत्तान्त पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता के सं० २२२ के प्रमाण में लिखा है। उस समय जो पँवार जैनी हो जानेसे बच गयेथे उनोंने छाँगांणी जातिके पुष्करणे ब्राहाणों को अपने लिये पुरोहित माने थे और For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खेतीके उपयोगी कुछ भूमि देकर उन्हें ओशियां नगर वसा लिये थे जिनकी सन्तान आजतक ओशीया नगरमै वसते हैं। लुद्रवा नगर के पँवारोंने आचार्य जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानेथे । फिर कई पोढ़ी पीछे सं० ५३? में 'काहला' नाम एक गाँव भी अपने पुरोहितों को दिया था। जिस का वृत्तान्त पुष्करणे प्राह्मणों की प्राचीनताके सं० ५३१वें के प्रमाणमें लिखा है। अमरकोट तथा घाट आदि के पँवारोंकी एक शाखा सोढा राजपूनोंने भी आचार्य जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानेथे सो आजतक उनकी पुरोहिताई चली आती है। पुगल के पंवार राजाओंने छाँगाणी जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित माने थे । इसी प्रकार अन्यान्य पँवार राजाओं के यहां भी पुष्करणे ही ब्राह्मण पुरोहित नियत थे। - ० बाराह राजपूतों की पुरोहिताईभठिण्डेके बाराह जातिके राजपूत राजाओंने बोधा जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानेथे। फिर कई पीढ़ी पीछे उनके पुरोहित देवायतजीने अपने सरणमें आये हुये भाटी राजकुमार दे. वराजको अपना पुत्र कहकर अपने यजमान बाराह रजपूतों से बचा लिया तबसे फिर भाटियों के पुरोहित हो गये। जिस का वृत्तान्त पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनताके सं० ८९८ में लिखा है। n - C For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुंवर राजपूतों की पुरोहिताईसायलमेर के तुंवर राजपूत राजाओंने छाँगाणी जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानथे । और कई पीढ़ी पीछे 'बाँकना' नाम एक गाँव दत्त दियाथा वह गाँव आजतक पुष्करणे ब्राह्मणों के स्वाधीन है। पड़िहार-ईदा राजपूतोंको पुरोहिताई मण्डोर के पड़िहार राजपूत राजाओंने कपटा (बोहरा) जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानेथे । परन्तु कई पोढ़ो पीछे पड़िहारों की एक शाखा ईदा राजपूतों को कन्याओं का विवाह करा देने की दक्षिणा देने लेने में बहुत विवाद हो जाने से इन की पुरोहिताई छोप दी। इतनाही नहीं किन्तु ईदोंके गाँव में भी नहीं जाते और जो कभी भूलसे भो चले जावें तो उस गाँव में पानी तक नहीं पोते और न ईदोंको आशीर्वाद देते हैं। राठौड़ राजपूतों की गुरु पदवीराठौड़ कन्नौज से जब मारवाड़ में आये तो इनके पुरोहित भी वहींसे इनके साथ आये थे इस लिये पुरोहित तो उन्ही ब्राह्मणों को रखे जो अब सेवड़ नामसे 'राजगुरु पुरोहित 'प्र. सिद्ध हैं । परन्तु इस देशके राजाओं के पुरोहित पुष्करणे ही ब्राह्मण सदासे रहते आये हैं इस लिये राठौड़ोंने भी पुष्करणे ब्राह्मणों को राज्य शुरु' माने सो इस प्रकार मानते चले आये हैं:आयस्थानजीसे लेके चन्द्रसेन जी तक छाँगाणियों को उदयसिंहजी से लेके रामसिंहजी तक नाथावत व्यासोंको, For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वख्तसिंहजी से लेके विजयसिंहजी तक चण्डवाणी जोशियोंको भीमसिंह के समय नाथावत व्यासों को, मानसिंहजी के समय पुरोहित, छाँगाणी, चण्डवाणी जोशी और नाथावत व्यासों को, तख्तसिंहजीके समय पुरोहित, नाथावत व्यास, और चण्डवाणी जोशियों को, और यशवन्तसिंहजी से वर्तमान महाराजा सर्दारसिंहजी साहिबों के समय में चण्डवानी जोशियों को इस समय इस पदपर चण्डवाणी जोशी भैरूंदासजी नियत हैं और जोधपुर दरबारके गुरु होने से व्यासजी कहलाते हैं। .. जोधपुर का नगर वसानेवाले राठौड़ राव जोधाजी के पुत्र 'बीकोजी' ने अपने नांवपर बीकानेरका नगर वसाके अपनी राजधानी स्थापित की तो उनही के यहां भी पुष्करणे ही ब्राह्मण गुरु भावसे पूजे गये थे। वे प्रारम्भ में तो व्यास जातिवाले थे किन्तु सं० १६७० में आचार्य जातिके पुष्करणे ब्राह्मण 'वेणीदास. जी' के कथनानुसार बीकानेर का राज्य सूरसिंहजी को मिलाथा तभीसे वेणीदासनी की सन्तान इस पद पर रहती आई है।व. तमान बीकानेर के महाराज गङ्गासिंहजी साहबों के समय में इस पद पर आचार्य गेरमलजी आदि हैं और राज्य के देरासरी होनेसे देरासरी जी कहलाते हैं। जोधपुर के महाराजा उदयसिंहनी के पुत्र 'कृष्णसिंहजी' ने अपने नामपर कृष्णगढ़ का राज्य स्थापित किया तो वहांपर "भी पुष्करणे ही ब्राह्मणों का गुरु भावसे सत्कार होता आया है। इसी प्रकार ईडर, रतलाम, झाबुवा, अमजरा. सीतामाऊ भादि राजा महाराजा राठौड़ वंश के होने से अपने पूर्वजों के For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माने हुये पुष्करणे ही ब्राह्मणों को गुरु भावसे मान्यकर सत्कार करते आये हैं। _अर्थात् भाटी और राठौड़ राजपूतों के जहां २ राज्य और छोटे बड़े ठिकाने हैं वहां २ पुष्करणे ब्राह्मगों का पूज्य भावसे मान्यकर सत्कार होता आया है। राठौड़ों के राजगुरु सेवड़ पुरोहितोंकी पुरोहिताई__ जोधपुर दरबार के राजगुरु जो सेवड़ जातिके पुरोहित हैं उन्होंने भी कनोजसे मारवाड़ में आनेपर अपने लिये उपाध्याय जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित बनाये थे। इन सेबड़ पुरोहितों की एक शाख दमाणी' है वे जहां २ राठौड़ राजपूतों का राज्य तथा छोटे बड़े ठिकाने हैं वहाँ २ रहते हैं। इनकी संख्या अनुमान १००००० की होगी। इनमें 'तिंवरी' के पुरोहितजी पाटवी होनेसे जोधपुर दरबारको पुरोहिताई करते हैं। उनके भी पुरोहित ओझा जातिके पुष्करणे ही ब्राह्मण हैं। - पुष्करणे ब्राह्मणों की अन्यान्य जातियों को पुरोहिताई। इस प्रकार पुष्करणे ब्राह्मणों की प्रत्येक जाति (नख वा खांप) वाले किसी न किसी राजपूत जाति के पुरोहित थे । फिर उन राजपूतों से और कई जातियें बन गई तो वे जाति वाले भी अपनी पूर्व जाति के पुरोहित पुष्करणे ब्राह्मणों को अपनी नवीन जाति के लिये भी पुरोहित मानते रहे। जैसे: For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाटिये महाजनों को पुरोहिताईभाटी राजपूतोंमें से महाजन भाटियों की एक पृथक् जाति सं० १२२६ में मुलतान में बनी है। वह भी यदुवंशी होने से अपनी कुल परम्परा के कुल गुरु पुष्करणे ब्राह्मणों को गुरु भावसे पूज्य मान के सदा सत्कार करते हैं। इन महाजन भाटियों की पृथक् जाति बनने का संक्षिप्त इतिहास यों है: भाटी राजपूतों का पहिले बहुत बड़ा राज्य था। अत:जैसलमेर के इलाके में भी ये बहुत वसते थे । परन्तु शत्रुओं के उपद्रव से २००० । २५०० भाटी अपना देश छोड़ के सिन्ध तथा पञ्जाव की ओर चले गये। उस समय इनके पुरोहित (कुलगुरु) पुष्करणे ब्राह्मण भी इनके साथ २ गये थे। फिर इन भाटी राजपूतोंने वहां जाके क्षत्रिय धर्म को त्याग के वैश्य धर्म (व्यापार) धारण कर लिया। इस लिये अन्य राजपूतों ने इनके साथ विवाह आदि सम्बन्ध तोड़ दिया। जिससे इनके बेटे बेटी कुँवारे ही बहुत बड़े २ हो गये थे। उनके विवाह की चिन्ता लग जानेसे इन सब भाटियों ने मुलतान में जाके ब्राह्मणों की एक सभा एकत्र करके उनसे व्यवस्था माँगी जिमका सम्पूर्ण वृत्तान्त अजाची भाट 'जसा' कृत भाटियों की 'कुल कथा' नामक ग्रन्थ में छन्दोबद्ध लिखा है। उसमें से थोड़े से छन्द यहां लिखताहूं:बारेसै छब्बोस. में मिले जाय इकठोर । कोन्हों बिचार अब कहा करें,कछु माहे में जोर ॥ ज्ञाति सब चिन्ता करे, अब करें कौन उपाय। For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेटे बेटी सब रहे, नाइजु कछू उपाय ॥ क्षत्रि रोति सब छुट गई, भयो वैश्य व्यापार । वाको कन्या देव नहीं, कहा करें उपचार ॥ मुलतान में आय के, विप्र विनती कराय । ब्रह्म सभा भेली भई, धर्मशास्त्र कढ़वाय ॥ हमसों विधि सब पूछि के, देखो शास्त्र विचार । देखी अन्य एक मतो. करी दियो निर्धार ॥ पीढ़ी दासों पाँच गुनि, तामें एक निकास । तामें बाँधो गोत्र संब, करो प्रस्ताव सुवास ॥ ऊपर पीढी जो रही, जात सबै ज कहाय । तामें करों विवाह सब, शास्त्र आज्ञा दिवाय ॥ यदुवंश में याद वभये, तिन कियो आपस में विवार । बहुत पोढ़ी बीते भई, (तहं) दोष नहीं निर्धार ॥ मुलतान के मध्य में, विप्र सभा सब जोड़। बाको विधि सब पूछ के, दान देत है रोड ॥ भाटिया सब भेले भये, दीन्हों दान अपार । नुख नाम सब बाँधके, चले जु अपने द्वार ॥ ब्राह्मण कुलकी जाति में, पोकरना जु कहाय। तुलसी लोन्ही हायमें, तुम हम गुरु जु कहाय ॥ सिन्ध, कच्छ, हालारमें, और सबै ही ठौर । For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ફર जजहं जाति विराजही ता पठवे सब ओर ॥ उन भाटी राजपूतों ने ब्राह्मणों से पूछा कि हे ब्राह्मणो ! अब हम अपना निर्वाह कैसे करें ? तत्र ब्राह्मणोंने कहा कि धर्म शास्त्र के अनुसार अपने से ७ सपिण्ड अर्थात् ४९ पीढ़ो तक का वंश छोड़कर फिर परस्पर में विवाह करने को दोष नहीं है तभी तो पूर्व काल में यदुवंशियोंने परस्परमें विवाह किये थे । जैसे यदुराज श्री कृष्णचन्द्र महाराजने सतराजित यादव की कन्या सभामा से विवाद किया था । अतः तुमभी अपने २ से ४९ पोढ़ी ऊपर वाले पुरुष के नाम से गोत्र बांधकर विवाह करलो ऐसी आज्ञा देदी । तत्र ये अपनी नवीन जाति तथा पृथक् २ गोत्र बना के वहां से पीछे विदा होते समय सम्पूर्ण ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया और अपनी वंशपरम्परा के पुरोहित (कुल गुरु) पुष्करणे ब्राह्मणों को सदा के लिये अपनी जाति के गुरु माने परन्तु उस आपत्काल में जिन २ जातिवाले पुष्करणे ब्राह्मणोंने जिन २ भाटियों का सङ्ग नहीं छोड़ा था उन २ भाटियोंने अपने २ वंशके लिये उस २ जाति के पुष्करणे. ब्राह्मणों को विशेष करके पुरोहित (कुलगुरु ) नियत किये। जैसे: भाटियों की जाति में से २८ जातिवाले तो पुष्करणों की जाति में से पणियों को, २५ जातिवाळे हरषों को, १३ जातिबाले केवलियों को, २ जातिवाळे लुद्रों ( कल्लों ) को, २ जातिवाले ढाकियों को, २ जातिवाले आचारजों को, १ जातिवाले वासुओं को, १ जातिवाले पुरोहितों को, १ जातिवाले बोड़ों को, १ जातिवाले थानवियों को, १ जातिवाले वामुओं को और ७ जातिवाले अन्याय जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को अपने पुरोहित मानते सो आज तक वैसेही मानते चले आये हैं । For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महेश्वरी महाजनों को पुरोहिताईइसी प्रकार कई जाति के राजपूतों के एकत्र मिलने से 'महेश्वरी नामक महाजनों की एक जाति बनी है। उनमें के कई एक राजपूतों के पुरोहित पुष्करणे हो ब्राह्मण थे अतः उन रा. जपूतों की सन्तान महाजन महेश्वरियोंने भी अपने वंशवालों के लिये पुष्करणे ही ब्राह्मणों को पुरोहित माने थे सो आज तक उनके वंशवाले भी वैसे ही मानते चले आये हैं। जैसे:___'डाहरु' जाति के राजपूत से 'हुरकट' नाम की जाति बनी है जिस को हुरकट, भोलाणी, कयाळ और चौधरी नामक ४ शाखाएं हो गई । वे सब वटु जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानते हैं। निर्वाण' जाति के राजपूत से 'वाहेती' नामकी जाति बनी है जिसकी खडलोया और वाहेती नामक शाखावाले तो छाँगाणियों को, मल्लडं नामक १ शाखाबाले विशों को और मुसाण्या नामक ? शाखाबाले चोहटिया जोशो जाति के पुष्करणे ब्रा. ह्मणों को पुरोहित मानते हैं। __'पचार' जाति के राजपूत से 'राठी' नाम को जाति बनी है जिसको मालाणी, खटमल, कल्लाणी महोता, सालाणो आदि १६२ शाखाओं हो गई वे सब छाँगाणी* जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानते है । 'पँवार ' जाति के राजपूत से विदुहला (वडला ) नाम * छाँगाणियों की जातिमें चार स्थंभा हैं १ छाँगाणी, २ कोलाणी, ३ गंढडिया, और ४ देराशरी । इन चारों ही स्थम्भोंवालों की पुरोहिताईका एकसा अधिकार है। For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ की जाति बनी है जिन की गोड्या और छुर्या नामक २ शाखा एं हो गई । उनके पुरोहित प्रथम तो पुरोहित जाति के पुष्करणे ब्राह्मण थे। फिर उन्होंने अपनी विरत अपने भानजे विशा जातिवालों को देदी तब से वे विशा जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानते हैं । 'भाटी' जाति के राजपूत से ' माळ पाणी ' नामकी जाति बनी है जिसकी माळ पाणी, मूथा, मोदी, जूहर, लुलाणी, कोलण और भूरा नामक ७ शाखाएं हो गईं वे सब छाँगाणी जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानते हैं । 'पवार' जाति के राजपूत से 'पडताणी' नाम की जाति बनी है जिसकी पडताणी, पुण्य पालिया और दागड़िया नामक ३ शाखाएं हो गई इनके भी पुरोहित प्रथम तो पुरोहित जाति के पुष्करणे ब्राह्मण थे । उन्होंने अपनी विरत अपने भानजे विशा जातिवालों को देदी तब से वे विशा जाति के पुष्करणे ब्राह्मणोंको पुरोहित मानते हैं । 'चौहान' जातिके राजपूत से 'सारड़ा' नामकी जाति बनी है जिसकी केला सारड़ा और सेठी सारड़ा आदि शाखाएं हो गई वे वासू जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों कों पुरोहित मानते हैं । 'पवार' जातिके राजपूत से 'सिकची' नाम की जाति बनी हैं वह चोहटिया जोशी जाति के पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानती है | ' झाला ( मकवाणा ) जाति के राजपूत मालदेजी के बेटे हमीरजी से 'टावरी' नाम की जाति लुवा नगर के भाटी राजा सुन्धजीने अपने दीवान महेश्वरी पुरुषोत्तमदास मल्ल की बेटी व्याह के सं० १०३० के लगभग में बनाई है और हमीरजी के सुसराल For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वालों के पुरोहित विशा जाति के पुष्करणे ब्राह्मण थे इस लिये टावरियों ने भी उन्हीं के पुरोहितों को अपने लिये पुरोहित मानेथे सो आज तक वैसे ही मानते चले आये हैं। अग्रवाल महाजनों की पुरोहिताईमारवाड़में के गोयल गोती अग्रवाले विशा जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानते हैं। इसी प्रकार किराड़ वाणिये, रत्नू चारण, काले सुनार, सई मूथार, सेवग ( भोजक ) ब्राह्मण आदि और और कई जाति वाले भी पुष्करणे ब्राह्मणों को पुरोहित मानते हैं। पुष्करणे ब्राह्मणों के पुरोहित भी पुष्करणे ही ब्राह्मण । ब्राह्मण परस्पर में भोजन कराते और करते हैं, परस्पर में पूजते और पुनाते हैं, परस्पर में दान देते और लेते हैं, अतः परस्पर में एक दूसरेको तारते हैं और आप भी तर जाते हैं । इस में 'संवर्तस्मृति' का यह प्रमाण है यथाः अन्योन्यानप्रदा विप्रा अन्योन्य प्रतिपूजकाः। अन्योन्यं प्रतिगृह्णन्ति तारयन्ति तरन्ति च ॥ इसो लिये ब्राह्मण परस्पर में भोजनादि करते कराते हैं परन्तु भोजनादि करानेमें भी अन्य ब्राह्मणो की अपेक्षा स्वजाति के ब्राह्मणों का विशेष फल बताया है और स्वजातिमें भी For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपने सवासनों (दोहितों वा भानजों) को अत्यन्त पूजनीय माने हैं। अतः ब्राह्मणों में पुरोहिताई आदि कार्य अपने २ स. वासनों से करवाते हैं । इसी नियमानुसार पुष्करणे ब्राह्मणों में भी अपने सवासनों को पुरोहित मानने की प्राचीन प्रथा है । परन्तु कालपाके फिर वहो प्रथा ही स्थिर हो गई । जैसे: सिन्ध देशके 'आशनी कोट' नामक गाम में पुरोहित जाति के एक पुष्करणे ब्राह्मणने अपनी 'मण्डी' नामकी कन्या 'खी. मन नामके एक ओझा जाति के पुष्करणे ब्राह्मण को व्याही थी । उसके जो पुत्र हुये उनको अपने वंशवालो के लिये पुरोहित बनाये । और उस मण्डीका नाना आचार्य जाति का पुष्करणा ब्राह्मण था उसने भी अपनी दोहिती के पुत्रों को अपने वंशवालों के लिये पुरोहित बनाये । येदोनों पुरुष प्रतिष्ठित थे इस लिये पुरोहितों के सगोत्री गजा आदिने और आचार्यों के सगोत्री कपटा ( बोहरा) आदिनेभो उन्हींको पुरोहित मान लिये । ऐसे ही जैसलमेर के एक प्रतिष्ठित व्यासजीने भी अपनी 'वाली' नामको कन्या विशाजाति के एक पुष्करणे ब्राह्मण को व्याही थी और उसके पुत्रों को अपने वंशवालों के लिये पुरो। हित बनाये थे। इसी प्रकार अन्यान्य जातिवाले पुष्करणे ब्राह्मणोंने भी अ. पने२ वंशवालो के लिये पुरोहित अपनेर सवासनोंको बनाये थे। यही नहीं वरञ्च पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति में से निकल कर जो किसी कारणसे अन्य जातियों में मिल गये हैं उन्होंने भी अपनी पूर्व जातिके सवासने पुष्करणे ही ब्राह्मणों को अपनी नवीन जातिके लिये भी पुरोहित वनाये हैं। जैसे पुष्करणे ब्राह्मण पु. रोहित रत्नसे चारणों की जातिमें रतनू नामक जाति बनी है। For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसने भी अपनी पूर्व पुष्करणा जाति के सवासने (अपने भानने) 'सज्जोनी' नामक चाहटिये जोशी को अपनी नवीन चारण जाति के लिये पुरोहित बनाया था सो आजतक रत्न चारणों के यहां भो पुगेहिताई पुष्करणे ब्राह्मण चोहटटिये जोशियों की चली आती है । ( देखो रिपोर्ट मर्दुमशुमारी राज्य मारवाड़ के भाग तीसरे का पृष्ठ १६१) ___अतः पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वोक्त सवासनों को सन्तान वाले आजतक सिन्ध, कच्छ, जैसलमेर, फलौधी, पोकरण, जो. धपुर, नागौर मेड़ता, बीकानेर आदिके पुष्करणे ब्राह्मणों की पुरोहिताई करते आये हैं। परन्तु जोधपुर इलाके में पुष्करणे ब्राह्मणो की पुरोहिताई करनेवाले पुष्करणे ब्राह्मगों के घर बहु तही थोड़े होने से अपने सम्पूर्ण यजमानों की पुरोहिताई करने में पूग नहीं आसकने के कारण अपनी ओर से कर्म कराने की दक्षिणा (महनताना) ठहराके श्रीपाली ब्राह्मणों से करा देते हैं किन्तु पुरोहिताई का जो नेग मिलता है उसे तो वे स्वयंही लेते हैं । इसके उपरान्त जिन २ पुष्करणे ब्राह्मणों की पुरोहिताई करनेवाले पुष्करणे ब्राह्मण कहीं पर हाज़िर नहोंतो वहां के वे २ पुष्करण ब्राह्मण भी कर्म तो दक्षिणा दे के श्रीमालि. योंसे करा लेते हैं किन्तु पुरोहिताई का नेग अपने सवासनों को देते हैं। इसके उपरान्त मृतक का तीसरा, नवां, एकादशा, द्वादशा आदि प्रेतकर्म मारवाड़ भर पहिले महा ब्राह्मण (जो अब आचारजिया वा कारटिया नामसे प्रसिद्ध है वे) कराते थे। परन्तु वें लोग कर्म कराने की दक्षिणा लेने में बहुत ही कष्ट देते थे । इस पातको देखकर पुष्करणे ब्राह्मण 'श्रीमान् नाथाजी व्यास'ने सं० For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८० के लगभग अपनी ओरसे उन महा ब्राह्मणों को सहस्रो रुपये दे के लोगों का कष्ट मिटा दिया और प्रेतकर्म कराने के लिये श्रीमाली ब्राह्मणोंको नियत किये क्योंकि मारवाड़ के ब्राह्मणों में कर्म कराने का पेसा करनेवाले प्राय:श्रीमालो ब्राह्मण ही हैं। तबसे पुष्करणों के यहां भी प्रेतकर्म श्रीमालो ब्राह्मण कराते हैं* ___* इस प्रकार मारवाड़में जिन २ पुष्करणे ब्राह्मणोंके यहां कर्म करानेवाले जो श्रीमाली ब्राह्मण हैं वे उन २ पुष्करणोंको अपने २ यजमान समझके आशीर्वाद देने लग्गये और वे पुष्करणे भी अपने २ कर्म करानेवालों को आचार्य समझकर पगे लागना करने लागये हैं। इस बात को देखकर कितनेक अन्यान्य भी अनभिज्ञ श्रीमाली लोग पुष्करणों को समग्र जातिही को अपने यजमान होनेका खयाल करने लगगये हैं । किन्तु ऐसा खयाल करनेवालों की बड़ी भारी भूल है । क्योंकि: प्रथम तो सिन्ध, कच्छ, गुजरात, मारवाड, पञ्जाब आदिमें पुष्करण ब्राह्मणों के घर अनुमान २०००० होंगे जिनमें केवल मारवाड इलाके के ३००० । ४००० ही घरवालों के यहां श्रीमाली कर्म कराते हैं न के सर्व देशों में। दूसरे जो कर्म कराते भी हैं तो पुष्करणों के प्राचीन पुरोहित जो पुष्करणेही हैं उनकी आज्ञासे अथवा उनके अभावमें उन्होंके प्र. तिनिधि बनके कराते हैं न के अपने स्वाधिकार से। तीसरे मारवाड़ में श्रीमालियों के घर सहस्रोही हैं उनमें पुष्करणों के यहां कर्म कराने के लिये तो केवल १० । २० ही घर नियत हैं न के उनकी सर्व जाति । तो फिर क्योंकर सम्पूर्ण श्रीमाली अपने को पुष्करणों की समग्र जातिके पुरोहित वा कर्म करानेवाले कुलगुरु समझ सकते हैं ? यदि इतनीसी वातही से एसा मानना पड़े तबतो फिर ऐसे तो कई श्रीमाली भी तो पुष्करणोंके शिष्य बनके उनसे ज्योतिष् , वैद्यक, व्याकरण आदि विद्याए पढ़ते For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु महा ब्राह्मणों में कर्म छुड़ा देनेपर भी नाथाजीने उनका कुछ नेग नियत कर दिया था वह तो अब तक जारी है। देखो रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़कं तीसरे भागके पृष्ठ १८१) पुष्करणे ब्राह्मणो को तीर्थ पुरोहिताई। सिन्ध और कच्छ देशोंके बीचमें समुद्र के किनारेपर 'नारायण सरोवर' नामका एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। पूर्वकाल में इन देशोंमें यदुवंशियों का राज्य होनेसे इस तीर्थ पर यदुवंशी भी अधिकतासे आते थे । अतः अपनी तीर्थयात्रा सफल करानेके लिये अपने पुरोहित पुष्करणोंको भी साथ २ ले आते थे। फिर अन्त में कई पुष्करणे ब्राह्मण वहीं पर वस गये तब से उनकी सन्तानवाले नारायण सरोवर पर आनेवाले अपने यजमानों की तीर्थ पुरोहिताई आजतक करते आये हैं । पुष्करणे ब्राह्मण राज्य विद्यागुरु । राजकुमारों को विद्या पढानेके प्रारम्भ का मुहूर्त तो जो पुष्करणे ब्राह्मण राज्य ज्योतिषी हैं वे नियत करते हैं परन्तु विद्या पढ़नेका प्रारम्भ भी सबसे प्रथम तो जो पुष्करणे ब्राह्मण राज्य विद्यागुरु हैं उन्ही से करते हैं । इस इदपर बीकानेर के राज्य में तो सदा से रङ्गा जातिके हैं तो इससे क्या पुष्करणोंकी भी समग्र जातिही को श्रीमालियोंकी सम्पूर्ण भातिही का गुरु मानना पड़ेगा ? नहीं । क्योंकि ये दोनों सम्बन्ध समस्त माति भरके साथ नहीं किन्तु व्यक्ति विशेष के हैं । अतः नतो सम्पूर्ण श्रीमाली समग्र पुष्करणों को अपने यजमान समझ सकते हैं और न सम्पूर्ण पुष्करणेभी समग्र श्रीमालियों को अपने शिष्य समझ सकते हैं। For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणही नियत हैं किन्तु जैसलमेर जोधपुर में ऐसे एक जातिवाले नियत नहीं है परन्तु जिस समय इस पदपर जो नियत होते हैं उन्ही के पास विद्याभ्याग करवाते हैं। P पुष्करणे ब्राह्मण राज्य कथा व्यास । इस जातिमें जैसे वेदोंका प्रचार है वैसेही मन्वादि धर्मशास्रो, महाभारतादि इतिहासों और भागवतादि पुराणों काभी प्रचार है। इस लिये मारवाड़ देशमें धर्मके उपदेशक भी बहुधा पुष्करणेही ब्राह्मण हैं । जैसलमेर जोधपुर बीकानेर के पहाराजाओ के राज्य मन्दिरों में तथा इन राज्यों के अन्तरगत के छोटे बड़े जागीरदारों के मन्दिरों में प्रतिदिन कथा बाचने के लिये सदासे पुष्करणेही ब्राह्मण नियत हैं । इसके उपरान्त अपन अन्यान्य यजमानों के यहां भो कथा वाचते है और वंश परम्परा मे कथा वाचनेवालोंकी उपाधि भो 'कथा व्यास' के नामसे प्रसिद्ध हो गई है।। पुराणादिक शास्त्रों का पाठ करने वालों को व्याकरण कोष काव्य अलङ्कार छन्द आदि अन्यान्य ग्रथ भी पढ़ने पड़ते हैं अतः पुष्करणे ब्राह्मण भी इन ग्रन्थों के बडे विद्वान पूर्ण ज्ञाता पण्डित होनेसे नाना प्रकार की उपाधियोंसे विभूषित हैं। पुष्करणे ब्राह्मण राज्य पुस्तकाध्यक्षः । राजाओ के यहां प्राचीन हस्त लिखित पुस्तकोंका सङ्ग्रह सदासे रहता आया है और मारवाड़के ब्राह्मणों में बहुधा पुष्करणे ब्राह्मण ही विशेष विद्वान होते हैं अतः राज्य के 'पुस्तका. For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ लय' का प्रबन्ध करने के लिये प्राय पुष्करणे ही ब्राह्मणों को नियत करते हैं । अतः बहुत समयसे जोधपुर दरबार के यहां पुरोहित जाति के पुष्करणे ब्राह्मण ही राज्य पुस्तकाध्यक्ष हैं। पुष्करणे ब्राह्मण राज्य दानाध्यक्षः। राजाओंके यहां नित्य और नैमित्य समयमें यथायोज्ञ दान किया जाता है। उस दानको लेनेवाले तो अनेकानेक ब्राह्मण आते हैं उन्हीं को दिया जाता है परन्तु दान का संकल्प करानेवाले 'दानाध्यक्ष' सदासे सदा से पुष्करणे ही ब्राह्मण हैं। इस समय जैस लमेर दरबार के यहां तो उन्हीं के पुरोहित, बीकानेर दरबार के यहां कीकाणी व्यास और जोधपुर दरबार के यहां व्यास पदवी. वाले चण्डवाणी जोशी हैं। पुष्करणे ब्राह्मण राज्य के जोशो वेदिया। ___ राजाओं के यहां शान्ति, पूजा, पाठ, मन्त्र अनुष्ठान आदि करने के लिये प्राय पुष्करणे ब्राह्मण भी सदासे नियत रहते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उपरोक्त कर्म करने के लिये उन की वरणी विठलाई जाति है । उस समय वर्ण दक्षिणा तथा कर्म द. क्षिणा देने के उपरान्त उन्हें प्रतिदिन इच्छा भोजन भी कराते हैं। ऐसे कर्म करने का प्रचार जोधपुर की अपेक्षा जैसलमेर तथा बीकानेर के राज्यों में अधिक है। --*-- पुष्करणे ब्राह्मण राज्य ज्योतिषी। इस जाति में ज्योतिष विद्या का प्रचार सदासे चला आता For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ है जिसके प्रतामसे भूत भविष्य और वर्तमानका चमत्कार कई राजा महाराजाओं को दिखलाया है । और कईयों ने तो देवताओं को भी चकित किये थे (जैसे:- चोटिया जोशी परवरजीने शुक्र और बृहस्पतिजी को तथा लुद्र ( कल्ला ) ब्रह्मदत्तजीने शुक्रजीको इत्यादि) I जैसलमेर के भाटी महाराजाओं के वंश परम्परा के पुरोहित राघोजी बडे विद्वान थे उनके पुत्र चण्डजी तो साक्षात भास्कर का अवतार ही हुये । वे जोधपुर के राव माळदेजी जो जैसलमेर परणे थे उनके साथ जोधपुर आ गये । फिर उनोंने अपने नाम का 'चण्डू पञ्चाङ्ग' सं० १५८८ में निकाला था सो आजतक उनके वंशवाले प्रतिवर्ष बराबर बनाते आये हैं । इस भारत देश में जितने पञ्चाङ्ग प्रकाशित होते हैं उनमें प्राचीन व प्रतिष्ठा प्राप्त यही एक चण्डु पञ्चाङ्ग ही गिना जाता है । चण्डुजीने ज्योतिष के कई अद्भुत ग्रन्थ बनाये थे जो उनके वंश वालों के पास विद्यमान हैं । चण्डजी के वंशवाले भी बड़े २ विद्वान हुये हैं और ज्योतिष विद्या के प्रभाव से जोधपुर के महाराजाओं से कईयों ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है । जैसलमेर में व्यास अचलदास जी भी बड़े विद्वान ज्योतिषी हुये थे । उन की फलित विद्या इतनी प्रबलथी कि उस समय में उनकी बराबरी करनेवाला इस प्रान्तभर में सायतही कोई हुआ होगा । बीकानेर में भी किराडू किस्तूरचन्दजी आदि नामी विद्वान हुये थे जिन से इन्दोर मान्त के कई दक्षिणी ब्राह्मणों ने विद्याध्ययन की थीं । मरहट्टों के राज्य सासनकाल में एक कल्ला जातिके पुष्करणे ब्राह्मणने मरहट्टो के सेनापति को युद्ध के समय ज्योतिष का च For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ मत्कार दिखलाया था जिस से प्रसन्न होके 'माँगलियावास' नामका एक गाँव, जो अजमेर के इलाके में है, दिया था; सो आन तकउनके वंशवाले पुष्करणे ब्राह्मणोंकी स्वाधीनतामें चला आता है। बड़ौदाके महाराजा गणपतराव गायकवाड़को चण्डवाणी जोशी 'ज्येष्ठमलनी' ने ज्योतिष के फलित के कई वार अद्भुत२ चमत्कार दिखलाये थे, जिस के प्रभावसे उनको लाखोही रुपये मिले थे। वे भी उन रुपयों को ब्राह्मण भोजन कराने आदि ही में लगा देते थे । आजतक उनकी सन्तानको भी बड़ौदेके राज्यसे कुछ वार्षिक मिलता है। ___ इसी प्रकार कइयोंसे पुष्करणे ब्राह्मणोंको गाँव, कुँए, खेत आदि मिले हैं । और जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, आदि की रियासतों में 'राज ज्योतिषी' के पद पर पुष्करणे ही ब्राह्मण नियत हैं। - - पुष्करणे ब्राह्मण राज्य वैद्य । इस जातिमें आयुर्वेद विद्या भी परम्परा से चली आती है। इस के प्रतापसे बादशाहों के समयमें भी जागीरें मिली थीं, जिनका संक्षिप्त वृत्तान्त टंकशाली व्यास लल्लूजी व व्यास देवऋ. पिजी के इतिहास में लिखा गया है । इस के उपरान्त अन्यान्य राजाओंसे मिली हुई जागीरें तो अब तक विद्यमान हैं। जोधपुर के राव जोधाजी के पुत्र बीकाजी अपना राज्य पृथक् स्थापित करने के लिये 'जाङ्गलु देशकी ओर गये तो वहां 'कोडमदे सर' नामक एक गाँव में ठहरे थे। वहां पर उनकी महाराणी आसन्न प्रसुता होने के कष्टसे बहुत ही अधिक पीड़ीत थी। उस समय जैसलमेर के राजवैद्य व्यास देवऋषिजी के पुत्र 'जू. For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठाजी' तीर्थयात्रा को जाते हुये वहांपर आ गये। उन्होंने तत्काल महाराणी को उस कष्टसे मुक्त किई, जिस से प्रमन्न हो के बीकाजीने बीकानेर का राज्य स्थापित होनेपर उनको एक गाँव दिया था, सो आज तक उनकी सन्तान की स्वाधीनतामें है। और वेही जूठाणी व्यास बीकानेर दरबार के यहां राज्यवैद्य हैं। इसी प्रकार जैसलमेर, जोधपुर आदिमें 'राज्यवैद्य' के पद पर भी पुष्करणे ही ब्राह्मण हैं । पुष्करणे ब्राह्मण राज रक्षक। जिस प्रकार जैसलमेर के भाटी महाराजाओं के पूर्वज भाटी देवराजजी को पुष्करणे ब्राह्मण देवायतजी व उन के पुत्र रत्नू ने प्राण रक्षा किई थी। उसी प्रकार जोधपुर के राठौड़ महाराजों के पूर्वज महाराजा यशवन्तसिंहजी के वालक पुत्र अजितसिंहजी की रक्षा भी पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित जयदेव नोने किई यो। यशवन्तसिंह जी के काबुल में देहान्त हो जाने पर उनको एक गर्भवती गणी उनके साथ मती न होने दिई जाने पर पोछो मारवाड़ को लौट रही था। मार्ग में लाहोरमें उनके गर्भसे अजितसिंहजी का जन्म हुआ। राठौड़ इन्हें जोधपुर का राज्याधिकारी बनाने के लिये दिल्लो ले गये। किन्तु बादशाहने स्वीकार न करके पकड़ने को इन्हें घेर लिये । उस समय उदयसिंहजी कुँपावत दुर्गादासजी करनसोत व गोइन्ददासजी खीची आदि की सम्मति से अजितसिंहजी घेरे में से निकाल लिये गये, जिन्हें पुरोहित जयदेवजीने आबू के अन्तर्वर्ती छप्पन के पहाड़ों में ले जाकर अपनी स्त्रीको सौंप के ७ वर्षों तक तो वहां पर पालन किया। For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर पीछे मारवाड़ में लाये । और इधर मारवाड़का अधिकार कर 1 लेनेवाली बादशाही सेनासे ठाकुर देवीदासजी चाँपावत आदि राठौड़ोंने कई वर्षों तक बड़ी वीरता से लड़कर मारवाड़ का खोया हुआ राज्य पीछा महाराजको दिलाया। उस समय महाराजने भी उक्त दुर्गादासजी आदि स्वामि भक्त वीरोंका बड़ा सत्कार किया और पुरोहित जयदेवजी के पुत्र 'जग्गूजी' को 'श्री पुरोहितजी' की पदवी दी और 'भाई' कहकर पुकारते थे तथा जागीर में गाँव भी दिये थे । उस समय महाराज अजितसिंहजी ने अपने निज हस्ताक्षरों का एक खास रुक्का सं. १७७० में लिख दिया था जिसमें यह एक दोहा लिखा है:माता म्हारी थावरी. पिता प्रोत प्रमाण ॥ जन्म लियो जसवन्त घर, जोध तिलक जोधाण ॥१॥ अर्थात् में ( जोधपुर के महाराजा अजितसिंह ) ने यद्यपि जन्म तो महाराज यशवन्तसिंहजी के घर में लिया है, परन्तु यथार्थ में मेरी रक्षा करनेवाले पिता तो पुरोहित (पुष्करणे ब्राह्मण 'जयदेवजी ' ) ही हैं, और मेरी पालन करनेवाली माता उनकी 'थावरी' नामकी स्त्री है । (देखो रिपोर्ट, मदुर्मशुमारी, राज्य मारवाड़, के भाग तीसरे का पृष्ठ १८३ ). -- ---- पुष्करणे ब्राह्मण राज्य भक्त । मारवाड़ के राठौड़ राव जोधाजीने सं० १५१५ के ज्येष्ठ सुदि १५ को अपने नामपर जोधपुर नगर वसा के पर्वत पर क्रि की नींदी | उस पर्वतपर 'चिड़ियानाथजी' नामी एक सिद्ध पुरुषको जो तपस्या करते थे उनको वहांसे हटा दिये, जिससे For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ क्रोधित होके उन्होंने किला न बन सकने आदि का श्राप दे दिया । अन्त में उस श्रापको मिटानेके लिये एक जीते हुए मनुष्यको किले की नींवमें गाडनेकी आवश्यकता आ पड़ी, तो एक पुरोहित जाति का पुष्करणा ब्राह्मण प्रसन्नता पूर्वक जीता हुआ ही किले की नींवमें गड़ गया, तब उसके ऊपर किला बन सका इससे प्रसन्न होके राव जोधाजीने उनके भाई को अपना गुरु बना के 'व्यास' पदवी तथा गांव दिया था। (देखो रिपोर्ट, मर्दुम शुमारी, राज्य मारवाड़, के तीसरे भागका पृष्ठ १८३) पुष्करणे ब्राह्मण राज प्रतिनिधि । जोधपुर के महाराजा गजसिंहजी के क्रोधित हो जाने से उनके ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंहजी शाहजहाँ बादशाहके पास चले गये थे। बादशाहने इनको नागौरका पृथक् राज्य दे दिया । किन्तु एक समय उन्होंने आगरेमें बादशाह के कृपापात्र बखुशी सलावतखाँ को तकरार हो जाने के कारण सरे दरबार मार डाला और अपने डेरेको प्रस्थान कर दिया । किन्तु गढ़ का द्वार तकाल बन्द कर देने से खिड़की तोड़कर बाहर निकलना ही चाहते ही थे कि उन्हीं के साथी और साले होने पर भी अर्जुन गौड़ ने बादशाहका कृपापात्र बनने के लिये पीछेसे खड्ग चलाके उन्हें मार दिया। फिर बादशाहने उनके शरीरकी दुर्दशा करनी चाही किन्तु उनके डेरेके सब राठौड़ बल्लूजी चाँपाबत व भाऊजी . पाँवत नाम अपने मुख्य दो सरदारों सहित गढ़पर चढ़ आये और द्वार तोड़ के अमरसिंहजी के कलेवर ( शव ) को निकाल लाये । फिर अर्जुन गौड़ के डेरे पर चड़ धाये। For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७७ जिम की मदद को बादशाही सेना भी आई थी उस समय राजाके अभाव में उनकी राणीकी आज्ञा से अमरसिंहजी के गुरु व्यास गिरिधरजी राठौड़ोंके सेनापति बनकर हाथी पर बैठ के लड़े | अन्तमें सं १७०१ के श्रावण सुदि १ । २ । ३ तक बड़ी वीरता से लड़के उन दोनों सरदारों सहित काम आये । अतः उनकी सन्तानवाले ( गिरिधरोत व्यास ) श्रावण सुदि १ | २ । ३ को यद्यपि उनको वीरताका उत्सव तौ अब तक करते हैं किन्तु उस दिनका 'छोटी तीज' का त्यौहार नहीं मनाते । (देखो रिपोर्ट, मर्दुमशुमारी, राज्य मारवाड़, का पृष्ठ १८२ ) --~. ० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मण राज्य सहायक । 1 जोधपुर के महाराजा अजितसिंहजी को और जयपुर के महाराजा जयसिंहजी को बादशाह के खिराज के रुपये देने थे सो, कुछ अवधि में रुपये भेजनेका प्रण करके, दिल्ली से अपने २ राज्य में चले आये | और रुपये पहुँचने तक अपनी एवज़ में जोधपुर के महाराजा तो पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित जग्त्जीके ज्येष्ठ पुत्र शिवकृष्णजी को और जयपुर के महाराजा अपने श्रीजीके महन्तजीको सौंप आये । निदान पीछेसे शिवकृष्णजीने अपनी बुद्धिमानी से बादशाह को ऐसा प्रसन्न कर दिया कि इन दोनों राज्यों के ख़िराज के कई लाख रुपये क्षमा करवाके स्वयं भी जोधपुर चले आये और अति समय जयपुर के महन्तजीको मी साथ लेते आये । इससे प्रसन्न होके जयपुर के महाराजाने शिवकृष्णजी को रु. १२०००) की जागीरका चकवाड़ी नामक गांव जागीर में लिख दिया था । For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मण राज्य बोहरे । जोधपुर के महाराजा राजगयसिंह जीके पुत्र उदयसिंहजी अपने पिताकी आज्ञा से फलौधी में रहते थे। उस समय मलार नामक गांव में रहनेवाले कपटा जाति के पुष्करणे ब्राह्मण शेऊ. जीने उन्हें कई लाख रुपये दिये थे । फिर जब उदयसिंहजी जोधपुर के राजा हुये तो शेऊनीको बोहरा की पदवी देकर जोधपुर बुलाये । परन्तु उन्होंने स्वयं तो अपना घर छोड़ कर आना स्वी कार नहीं किया किन्तु महाराज के बहुत आग्रह करनेसे अपने भानजे व्यास भोजाजी, गांगाजी तापोजी व चोहटिया जोशी गोपालदासजी को जोधपुर भेज दिये। महाराजाने इनमें व्यास भोजाजी को तो अपने गुरु और अन्यों को अपने मुसाहिब बनाये । कपटा शेऊनीकी सन्तान तब से बोहरा कहलाती है। (देखो रिपोर्ट, मर्दुम शुमारी, राज्य मारवाड़, के भाग तीसरे का पृष्ठ १८५) ऐसे ही जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी को चण्डवाणी जोशी श्री कृष्णजीने भी कई लाख रुपये उधार दिये थे। इसी प्रकार जैसलमेर तथा बीकानेर के महाराजाओंको भी आवश्यकता पड़नेपर पुष्करणे ब्राह्मणोंने रुपयोंकी सहायता के अतिरिक्त इस देश के छोटे बड़े जागीरदारों दी है। पुष्करणे ब्राह्मण राज्य हितेच्छु । जोधपुर के महाराजा विजयसिंहजी को मरहट्टों के खिराज के कई लाख रुपये देने थे सो जमा कराने के लिये For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाध्याय जातिके एक पुष्करणे ब्राह्मणकों रुपये दे के पूने भेजा । किन्तु उसने वहां जाके देखा कि अंग्रेज़ों के साथ उनका युद्ध हो रहा है । अतः वह बुद्धिमान् उस ममय रुपये देने उचित न जान कर युद्धका अन्तिम फलाफल ( अख़ीर नतीजा) देखने तक वहां पर ठहर गया; और अन्तमें जब मरहट्टों की हार हो गई तब रुपये बचाके पोछा लौट आया। इससे प्रसन्न होके महाराजने उन्से एक ग्राम पट्टे में लिख दिया था। पुष्करणे ब्राह्मण राज्य मुसाहिब । यदुवंशियों से लेके राठौड़ वंशके राजा महाराजाओं के इ. तिहासों स तथा पुष्करणे ब्राह्मणों के वृत्तान्तों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि पुष्करणे ब्राह्मण पूर्वोक्त राजाओंके यहां राज्य पु. रोहित, राज्यगुरु आदि ब्राह्मणों के करने योग्य ही कार्य करते आये हैं। हां राज्य कार्य में भी बड़े दक्ष ( चतुर) होनेसे समय २ पर राज्याधिकार के भी कार्य करके अपने राजाओं को हर. एक प्रकार से सहायता पहुँचाते थे । यद्यपि सदैव ही राज्यका अधिकार भोगने पर ब्रह्मकर्मकी शिथिलता हो जाने के भयसे बहुधा राज्याधिकार के कार्यों से अपने को बचाते थे परन्तु तथापि रात दिन राजाओं के संसर्गसे राज्याधिकारके कार्य करने में भी प्रवर्त्त हो गये । यहां तक कि अब तो मारवाड़ में राज्यका ऐसा कोई विरला ही विभाग (महकमा) होगा कि जिस में पुष्करणे ब्राह्मण न हों, और ऐसे कोई विरले ही पुष्करणे ब्रा. ह्मण होंगे कि जिनका कुछ भी सम्बन्ध राज्यसे न हो । अर्थात राज्य के साधारण से साधारण ओहदेसे लेके आला दर्जेके रा. For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्यमन्त्री, दीवान, किलेदार. फौज बख़शी, खज़ाञ्ची तथा परगनों के हाकिम आदि प्रत्येक ऊँचे पदपर रहते आये हैं । अतः पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति राज्य पुरोहित तथा राज्यगुरु आदि गिनी जानके उपरान्त राज्यके मुसाहिबों में भी गिनी जाती है। इतना ही नहीं किन्तु मुसाहिबों में भी विशेष रीति से राज्य के विश्वास पात्र और शुभचिन्तक मुसाहिबोंकी पंक्ति में गिनी जाती है। षुष्करणे ब्राह्मण राज्य सन्मानित । पुष्करणे ब्राह्मण सदा से राजाओं के शुभ चिन्तक होनेसे जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, कृष्णगढ़, जयपुर, उदयपुर, बूंदी, कोटा, ईडर, रतलाम, झाबुआ, अमजरा, सीतामझ, नरसिंहगढ़, इन्दौर, बड़ौदा, भुज, पटियाला-इत्यादि रियासतों में इनका समयर पर उचित सत्कार तथा सन्मान होता आया है। अर्थात् कइयों से तो जागीर में गाँव, कइयोंसे पैर में पहिननेको सोना, कइयों से बैठने के लिये हाथी तथा पालखी आदि और कइयों से कड़ा, कण्ठी, मोती, दुपट्टा, दुशाला आदि धनादि पदार्थोके शिरोपाव मिले हैं। गज्य सन्मान पुष्करणे ब्राह्मणों को जातिमें अद्यावधि विद्यमान हैं जिससे इन की जाति के राजाओं की शुभ चिन्तक और सन्मानित होने का पूर्ण प्रमाण मि. लता है। पुष्करणे ब्राह्मणो के पास राज्य शासन पत्र तथा ताम्रपत्र आदि। यदवंशी राजाओं से लेके अद्यावधि के राजा महाराजाओं के दिये हुये सैकड़ों ही राज्य शासन पत्र ( राज्य के परवाने) - - - For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा कई ताम्रपत्र आदि राज्य लेख पुष्करणे ब्राह्मणों की जातिमें विद्यमान हैं। राज्य शासनं पत्र तोन दों में गिने जाते हैं। एक तो राजाकी आज्ञामे दीवान आदि के हस्ताक्षर वाले, दूसरे स्वयं राजाके हस्ताक्षर वाले, और तीसरे सम्पूर्ण लेख ही स्वयं राजाके हस्ताक्षरों से लिखे जानेवाले जो कि 'खास रुक्के' कहलाते हैं । इन में प्रथम की अपेक्षा तो दूसरा और दूसरे की अपेक्षा तीसरा अत्यन्त ही अधिक सन्मान सूचक माना जाता है । 'पुकरणे ब्राह्मणों के पास भी ऐसे अधिक सन्मान सूचक ख़ास रुक्कों की भी कमी नहीं है। जिनके देखने से पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति की बहुत कालसे राजाओंके शुभ चिन्तक होने रूपी महान् कीचि प्रगट होती है। परन्तु इस छोटी सी पुस्तक में तो इतना स्थान कहाँ ही जो वे लेख लिखे जा सकें ? अतः वे सब लेख पुष्करणोत्पत्ति नामक पुस्तक में, जो अब बन रही है, उन परवानों तथा ताम्रपत्रों के देनेवाले राजाओं के और पानेवाले पुष्करणों के पूर्ण वृत्तान्त सहित लिखे जावेंगे। पुष्करणे ब्राह्मण व्यापारी । व्यापार करने वालों में मारवाड़ी ही अधिक प्रसिद्ध हैं। और मारवाड़ में महेश्वरी, ओसवाल, अग्रवाल, और पुष्करणे ब्राह्मणही अधिक हैं । परन्तु व्यापार करना विशेष करके वैश्यों ही का कर्म होने और स्वयं पुष्करणे ब्राह्मण इस देश के राजाओं के पुरोहित, गुरु, मुसाहिब आदि होने से बे व्यापार कम क. For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir K रते हैं । तथापि इस जाति में भी व्यापार करनेवालों की कभी नहीं है, और व्यापार भी कई प्रकार के करते हैं । जैसे: राज्य इज़ार दार पहिले इस देश के राजा महाराजा अपनी रियासत के गाँवों का भूमिकर तथा माळपर का कर ( ज़कात वा हासिल ) आदि प्रायः वर्ष भरके लिये इज़ारे ( ठेके ) पर दे देते थे । उनका इज़ारा लेने वालों में अधिकांश पुष्करणे ब्राह्मण ही मुख्य थे । राज्य सदायत राज्य के अन्तर्गत छोटे बड़े जागीरदारों से राज्यका 'रेख, चाकरी, सेरना, भोम बाब आदि' लगान प्रति वर्ष खेती की फ़सल आनेके समय लिया जाता है । वह द्रव्य राज्यमें जमा कराने के लिये पहिले से साद ( ज़मानत ) करानी पड़ती है । एसी साद करनेवालों में भी अधिकांश पुष्करणे ब्राह्मण ही होते हैं । राज्य मोदी I पिछले समय में राजाओं के यहां सेना बहुत सी रहती थी । उनको आटा, दाल, घी, आदि भोजनकी सामिग्री देने के लिये राज्यकी ओरसे मोदी नियत किये जाते थे । वे मोदी भी प्रायः पुष्करणे ब्राह्मण ही होते थे। जैसे सं० १८८४ में बांकानेर की २०००० सेना जैसलमेर पर चढ़ आई थी । उस सेना को मोदी ख़ाना तौलनेका प्रबन्ध फलौंधी के थानवी जालजी नामक एक प्रतिष्ठित पुष्करणे ब्राह्मणने अपनी ओरसे कर दिया था। व्याज वा धरोहर - For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याजपर रुपये उधार देनेका काम भी बहुधा पुष्करणे ब्रा. ह्मण भी अधिक करते हैं। क्योंकि ये राजवर्गी होनेमे इनके रूपये पीछे वसूल होने में दिक्कत नहीं पड़ती।तिसपरभी यदि किसीका विश्वास न हो तो फिर गहना आदि गिरवी रखकर देते हैं। किसानी बोहरगत खेती करने वाले जोतनेको बैल, बोने को वीज, खाने को धान्य, और पहनने को वस्त्र, इत्यादि वस्तुएं लाने के लिये एक बोहरा बना रखते हैं, जिससे द्रव्य लाते हैं, और फिर फसल पाने पर उनके यहां पीछा जमा करा देते हैं। ऐसी बोहरगत करनेवाले भी पुष्करणे ब्राह्मण अधिक हैं । जैसे जोधपुर के बोड़ा मवदत्तजी शालगरामजी आदि । बाहरसे माल लाना ले जाना____ अमर कोट, फलौधी, मलार, जैसलमेरके कितनेक पुष्करणे ब्राह्मण प्रत्येक प्रकारका माल सिन्ध आदि देशों से ला करके तो मारवाड़ में बेचतेथे, और मारवाड़ से ले जाके बाहर बेचते ये । इस प्रकारका व्यापार करने के लिये वे अपने निजके ऊँट रखते थे । परन्तु अब रेलका विस्तार हो जाने से उनका यह व्यापार उठ गया । महाजनी व सर्राफ़ी रोज़गार हाज़िर माल वा हुण्डी चिठी, आदिका कार्य करनेवालों में भी पुष्करणे ब्राह्मण अधिक नापी हुये हैं । पहिले रेल नहीं थी, उस समय भी बाहर दिशावरों में दूर २ तक कई स्थानों में इ. नकी दूकानें थीं। जैसे जैसलमेर के विशा सालिमचन्दजी आल. मचन्दजी की मालवा मान्त में,विशा शंकरलालजी देवकरणजीकी For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमटवाड़ी आदिमें, पुरोहित हरिदासजी उद्धवदासजीकी पञ्जाब आदिमें, और इस ग्रन्थ कर्ताके पूर्वज खेतसीदासजी अटलदासजीकी पाली आदि में थीं। इनके अतिरिक्त और भी अनेकोंकी दूकानें थीं और अब भी कई स्थानों में विद्यमान हैं। सहेका रोज़गार इस समय देशमें सट्टेका रोज़गार चल पड़ा है तो पुष्करणे ब्राह्मण इसका भी सहस्रों तथा लाखों ही रुपयोंकी हारजीतका रोज़गार करते हैं। उनमें फलोधी वाले मुख्यं है। दलालो___ बम्बई, कलकत्ता, हैदराबाद दक्षिण, इन्दौर, खाँम गाँव, और कलकत्ता आदि में हुण्डी, प्रामिसरी नोट, चाँदी आदिकी दलाली करने वालों में भी प्रायः पुष्करणे ब्राह्मण अधिक हैं। महाजन आदिको नौकरी जो लोग घरू रोज़गार नहीं करते हैं, और जिगमे राज्यकी नौकरी करनी भीबन नहीं पड़ती है, तथा जो पुरोहिताई करनी भी नहीं चाहते वे लोग महाजनोंके यहां मुनीमगीरी (मुखतियारी), कीलीदारी (रोकड़ का काम), तथा वही खाता लिखने आदिकी नौकरी करते हैं और इन कामों में पुष्करणे ब्राह्मण बड़े होशियार व विश्वासपात्र होने से महाजन भी इन्हें प्रसन्नता पूर्वक र. खते हैं । इसके उपरान्त ये रसोई बनाने में भी बड़े चतुर होनेसेबड़े २ सेठ साहूकारों तथा राज्य मुत्सदियों के अतिरिक्त राजा ओंके यहां भी कोई २ लोग रमोईका भी काम करते हैं । इम समय मारवाड़ की रेल में भी अधिकांश पुष्करणे ही राह्मण नौकरी करते हैं। For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणों की जीविका । इस जातिवाले अपनी जीविका बहुत प्राचीन काल से रा. ज्य पुरोहित, राज्य विद्यागुरु, राज्य कथा व्यास, राज्य पुस्तकाध्यक्ष, राज्य दानाध्यक्ष, राज्य जोशी वेदिया, राज्य ज्योतिषी, और राज्य वैद्य आदि ब्राह्मणोंके करने योग्य कर्मों द्वारा ही करते हैं । परन्तु राजाओं के यहां पूर्वोक्त कर्म करते२ फिर काल पाके ये राज्य रक्षक, राज्य भक्त, राज्य प्रतिनिधि, राज्य सहायक, राज्य बोहरा, राज्य हितेच्छु, और राज्य मुसाहिब आदि का भी कार्य करने लग गये, तब से राज्यकी नौकरीसे भी जीविका करते हैं। इस बात को जैसलमेरकी तवारीखके पृष्ट १९ वें की पंक्ति १० तथा पृष्ठ २३२ की पंक्ति ११ में स्वीकार किई है कि पुष्करणे ब्राह्मण ___ "जी इज्जत व मुसाहिब हर ओहदों पर रहते हैं।" "पुष्करणोंमें पुरोहित, व्यास, आचार्य थानवी आदि मुसाहिबोंमें हैं।" इसी प्रकार रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ के भाग तीसरे के पृष्ठ ३९७ वेंकी । पंक्ति १८ तथा पृष्ठ १६१ वेंकी पंक्ति १९ में लिखा है कि___ "पुष्करणे ब्राह्मण भी बहुत वर्षों से यह (मुत्सदियोंका) पेशा करते हैं।" "राज्य की नौकरी को ज़ियादा पसन्द करते हैं।" - इसके उपरान्त बहुतसे लोग व्यापार भी अधिकतासे करते है । इस वातको भी रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ के भाग तीसरेके पृष्ठ १६१ वेंकी पंक्ति २० में स्वीकार किई है कि "बहुत लोग वनिज व्यापार भी करते हैं और उसके वास्ते परदेशों में दूर २ चले जाते हैं।" For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस जाति में भीख माँगनेकी प्रथा बिलकुल नहीं है। इस बातको भी स्वीकार करके रिपोर्ट पर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ के तीसरे भागके पृष्ठ १६१ की पंक्ति २० में लिखा है कि पुष्करणे ब्राह्मणों में "भीख बहुत कम लोग माँगते हैं।" पुष्करणे ब्राह्मण अधिकांश तो नगरों ही में रहते हैं। उनकी तो जीविका पूर्वोक्त ही कारणों से है। परन्तु कितनेक लोग बाहर ग्रामों में भी रहते हैं। उनमें अधिकांश तो वहां पर रहनेवाले अ पने यजमानों की पुरोहिताई करते हैं, किन्तु कोई २ खेती भी करते हैं। यही वात रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ के भाग तीसरेके पृष्ठ १६१ की पंक्ति २० में लिखी है कि पुष्करणे ब्राह्मणों में से___ "जो लोग गाँवों में रहते हैं वे खेती भी करते हैं।" इस प्रकार से पुष्करणे ब्राह्मणों की जीविका बहुत कालसे चली आती है। परन्तु टाड साहबने तो अपनी अनभिज्ञतासे यहाँ तक लिख दिया कि ये व्यापार आदि कुछ भी नहीं करते किन्तु या तो खेती करते हैं या पशु पालते हैं। अतः उनके लेखानुसार तो इन की जीविका के मुख्य साधन ये ही होने चाहियें। किन्तु यह वात भी टार साहब की बिलकुल कपोल कल्पित है । क्योंकि इनकी जीविका के मुख्य साधन तो पूर्वोक्तही प्रकारसे हैं जिसके कई उदाहरण व टाड साहब ही के समय के प्रयक्ष प्रमाण ऊपर लिखे जा चुके हैं । हां कोई २ मेक लोग खेती भी करते हैं किन्तु उसका का ण यह हुआ है कि राजाओंकी दिइ हुई भूमि जिन पुष्करणों के पास है उसमें किसान न For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૭ मिलने से लाचारन वे ब्राह्मण स्वयं ही खेती करने लग गये । किन्तु ऐसे तो सभी देशों के और सभी जातिके ब्राह्मणोंमें खेती करने वाले विद्यमान मिळेंगे । यहाँ तक कि इस कलियुग में ब्राह्मणों के लिये खेती करने की आज्ञापी ' पाराशर स्मृति' में है । इसके उपरान्त समस्त पुष्करणों के घर २०००० होंगे, उनमें खेती करने वाले घर १००० । ५०० भी कठिनता से मिलेंगे । तो इतने से इने गिने लोगों के खेती करने और खेती के लिये पशु रखने मात्रही से पुष्करणे ब्राह्मणों की समग्र जाति भर ही की जीविका खेती करने और पशु पालनें से लिख देने में तो टाड साहवने स्वयं ही अपनी अनभिज्ञता सिद्ध करते हुये अपनी भूल भ्रम वा किसी प्रकारका धोखा खा लेने का भी क्या पूर्ण परिचय नहीं दिया है ? यहां पर यदि कोई महान् सूक्ष्म बुद्धि वाला ऐसी शंका करे कि टाट साहबने जिस समय पुस्तक लिखी थी उस समय तो इनकी जीविका इसी प्रकार होगी परन्तु पीछे से इन्होंने बदल ली होगी । तो उन्हें यह विचार कर लेना चाहिये कि प्रथम तोटाड साहबको हुये कोई २०० । ४०० वर्ष व्यतीत नहीं हो गये हैं किन्तु केवल ७४ ही वर्ष हुये हैं । तो क्या इतनेही से वर्षों में इतना परिवर्तन हो गया ? दूसरे यदि हो भी गया तो फिर जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, कृष्णगढ़, जयपुर आदि के राजाओं के इतिहासों में सैकड़ों ही वर्ष पहिले से उनके पुरोहित, गुरु, मुसाहिब आदि होने के प्रमाण कैसे मिलते हैं ? तीसरे टाड साहब को प्रत्यक्ष देखनेवाले भी अब भी कोई २ मारवाडमें मिल सकते हैं; और उस समय के जन्मे हुये तो बहुत ही अधिक विद्यमान हैं । तो क्या उनमें से भी कोई टाट साहबके उक्त कथनकी पुष्टि करता For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है! चौथे टाड साहब अंग्रेज सरकारकी ओरसे कई वर्षों तक राजपूतानेके बड़े साहब (चीफ कमिश्नर वा एजण्ट गवर्नर जनरल) के पदपर रहे थे तभी उन्हें यह पुस्तक लिखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था । उस समय भी राजपूतानेकी कई रियासतों में राज्य के बड़े ओहदों पर भी पुकरणे ब्राह्मण विद्यमान थे ( जैसे जैसलमेर में दीवान व मुसाहिब पुष्करणे ब्राह्मण ईश्वरलालजी आचार्य व जोधपुर में जोशी प्रभुलालजी मुसाहिब ) और उनमें कइयोंसे आपको मिलने का भी काम पड़ा है। तोभी आप मारवाड़के ब्राह्मणों में एक ऐसी प्रसिद्ध, प्रधान व प्रतिष्ठित जाति के विषयमें इतने अन जान ही बने रहें तो यह क्या ऐसे इति. हास लेखकों के लिये कम भूलकी बात है ? अतः इस जातिके विषयमें टाड साहबकी इस प्रकारकी प्रत्यक्ष अनभिज्ञता देखकर भी क्या यह निश्चय नहीं होता कि इनकी उत्पत्ति की मिथ्या 'अजब कहानी' भी इसी प्रकार की भूलसे नहीं लिखी गई ? पुष्करणे ब्राह्मणों के गोत्र प्रवर । हम प्रथम लिख आये हैं कि पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति सिन्ध देश में बनी है । उस समय पूर्वोक्त १२८ गोत्रों में से कई गोत्रके ब्राह्मणों के सम्मिलित होने से यह जाति बनी थी जैसे कि उतथ्य,भारद्वाज,शाण्डिल्य,गौतम, उपमन्यु, कपिल,गविष्टर,पाराशर, कश्यप, हरितस, शुकनस, वत्स, कौशिक, और मुगळ इ. त्यादि गोत्र पुष्करणे ब्राह्मणों में हैं। इस जातिके अन्तर्गत जो ब्राह्मण एकत्र हुये हैं वे देश, ग्राम, गण कर्म अथवा राजा आदिकी दी हुई उपाधियों के अनुसार उपनामोंसे पहिचाने जाते हैं, जिन्हें जाति के बीच में आठ नाम, For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवटङ्क, खाँप, नख वा जाति भी कहते हैं। इनमें किस जातिवालों का कौनसा गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, सूत्र, तथा भैरव, गणेश, कुलदेवी आदि है, उसका निर्णय 'पुष्करणोत्पचि' नामक पुस्तक में विस्तार पूर्वक करेंगे । पुष्करणे ब्राह्मण वेद पाठी । जिन सिन्धी ब्राह्मणोंसे यह जाति बनी है उनमें पूर्वोक्त गोत्रोंवाले कई तो ऋग्वेदी, कई यजुर्वेदी, कई सामवेदी, और कई अथर्ववेदी थे । परन्तु इस समय ऋग् और अथर्व की अपेक्षा यजुर् और सामवेदी ब्राह्मण ही पुष्करणों में अधिक हैं । इसलिये पुष्करणे ब्राह्मणों की जातिमें इन्हीं दो वेदोंका प्रचार है। पुष्करणे ब्राह्मणों में अग्निहोत्री। पहिले समय में कई पुष्करणे ब्राह्मण अग्निहोत्री थे जिनके बनाये हुये यज्ञ मण्डप-यज्ञशालायें तथा अग्निहोत्रकं कुण्डों के चिह्न लुवा आदि नगरों में तथा जोधपुरके नाथावत व्यासों के यहां अबतक विद्यमान हैं जो पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वजों के अनिहोत्री होनेका स्मरण कराते हैं। ___ यद्यपि मुगल बादशाहों के अत्याचारके समय इसका प्रचार प्रायः नहीं रहा था किन्तु अब अंग्रेजोंके इस शान्तिमय शासन कालमें इसका पीछा प्रचार हुआ है। इनमें प्रथम यश के भागी जोधपुर निवासी पाराशर गोत्री व सामवेदी हर्ष जातिके पुष्करणे ब्राह्मण 'श्रीमान् शिवराजजी शर्मा' हुये हैं । इन्होंने सं० १९५५ में For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़ौदे आदिसे श्रोत्रिय विद्वान् दक्षिणीय ब्राह्मणोंको एकत्रकर बहुत सा धन व्यय करके अग्निहोत्र धारण करके पुष्करणे प्रा. मणोंके 'अग्निहोत्री' नामको सार्थक कर दिखाया। यद्यपि दो वर्ष पीछे उनकी स्त्रीका देहान्त हो गया और विना स्त्रीके अग्निहोत्र हो नहीं सकता इसलिये एक वार पीछा बन्द कर देना पड़ा था। परन्तु उन धर्म वीरने शास्त्रोंकी आज्ञानुसार फिर बहुत सा धन लगाके 'पुनराधान' करके फिर दूसरी वार अग्निहोत्र धारण किया सो आज तक उस कर्मका यथावत् पालन करते हैं। अग्निहोत्र करने में इष्टिके दिन ब्रह्मा, अध्युर्य, होता, उ. द्गाता आदि अन्य श्रोतिय विद्वान् ब्राह्मणोंकी आवश्यकता रहती है अतः वे भी सभी कर्म करानेके लिये पुष्करणेही ब्रामण हैं। __ इसी प्रकार जोधपुर निवासी शाण्डिल्य गोत्री व यजुर्वेदी पुरोहित जातिके पुष्करणे ब्राह्मण 'श्रीमान् गौतमजी शर्मा ने भी वहीं के श्रोतिय श्रीमाली ब्राह्मणों को एकत्र करके अग्निहोत्र धारण किया था,सो शरीर वर्तमान रहने तक इस कर्मको यथावत करते रहे। ___ आशा की जाती है कि अन्यान्य भी पुष्करणे ब्राह्मण ईश्वर की प्रेरणासे इस महान् वैदिक धर्म कार्य में शीघ्र ही प्रवर्त होंगे। पुष्करणे ब्राह्मणों में यज्ञ करने की प्रथा । इस जातिवाले परम्परासे श्रौत तथा स्मात धर्मानुसार अनेक प्रकारके यज्ञ करते आये हैं। उनमें 'विष्णु यज्ञ' नामक यज्ञ प्रधान है जिसके तीन भेद हैं । एक तो 'महा विष्णुयज्ञर, दूसरा 'विष्णु यज्ञ', और तीसरा 'बधु विष्णु यज्ञ' । इनमें महाविष्णु For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir या तो 'लक्ष भोज' नामसे, विष्णुयज्ञ अशेषभोज' वा 'सहसभोज', नामसे और लघुविष्णु यज्ञ 'पञ्चपर्ची' नामसे पुष्करणों में प्रसिद्ध है। ऐसे यज्ञोंके समय ब्राह्मण भोजन कराने के लिये अपनी जातिके सम्पूर्ण ब्राह्मणों को देश देशान्तरों में निमन्त्रण भेजकर दूर२ से बुलाक एकत्र करतेथे । उन एकत्र हुये सहस्रों ब्राह्मणों को लक्ष भोजके समय तो २१ दिनों तक, अशेषभोज वा सहस्रभोज के समय ७ दिनों तक और पञ्चपके समय ५ दिनोंतक उत्तमोत्तम भोजन करानेके पश्चात् प्रत्येक ब्राह्मणको लक्षभोज में तो वस्त्र तथा पात्र देनेके उपरान्त १)) १)) सुवर्ण मुद्रा (सो. नेकी मोहर), अशेषभोज वा सहस्र भोज २)२) वा ४) ४) रुपये, और पञ्चपर्वी में १) १) वा २) २) रुपये दक्षिणा देनेके उपरान्त आने जानेका मार्ग व्यय देके बड़े सत्कारके साथ पीछा विदा करते थे। इस समयकी अपेक्षा पूर्वकाळमें धान्य, घृत, गुड़, खाँड़ आदि सम्पूर्ण वस्तुएं बहुत ही सस्ते भावसे मिलती थीं तो भी इन यज्ञोंमें लाखों रुपये लग जाते थे। पहिले पुष्करणे ब्राह्मण सिन्ध देशके 'अरोड़ नामक नगर में अधिक वसते थे। परन्तु विक्रम संवत् के प्रारम्भसे२७०वर्ष पहिले यूनानके बादशाह 'सिकन्दर'ने इस देशापर चढ़ाई की तो 'अरोड़' नगरके राज्यको नष्ट कर दिया । उस अयाचारके समय बहुतसे पुष्करणे ब्राह्मणभी मारे गये और जो कुछ शेष बचे वे मारवाड़ की ओर भाग आये जिन की सन्तान लुद्रवा आदि नगरों में बस गई । फिर लुद्रवेके भाटी राजा जैसळजीने सं. १२१२ में अपने नामपर जैसलमेरका नगर वमाया तब पुष्करणे ब्राह्मणोंको भी जैसलमेरमें ला बसाये । जैसलमेर में वसने से प For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिले लुद्रवा आदिमें और लुद्रवे मे पहिले सिन्धके अरोड़ नामक नगर आदिमें वसनके समय वहां पर तो पुष्करणे ब्राह्मणों के किये हुये पूर्वोक्त प्रकारके यज्ञोंकी तो गणना करनाभी कठिन है परन्तु जैसलमेर वस जाने के पीछे भी जैसलमेर, फलोधी, जोधपुर, मेड़ता, बीकानेर आदिमें ही किये हुये यज्ञोंका वर्णन किया जावे तो भी एक बड़ी भारी पुस्तक बन जावे । अतः उन सबका पूर्ण वृत्तान्त 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्तक में लिखा जावेगा जिससे पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वजों को यज्ञ करने की दृढ़ता प्रगट होगी। किन्तु उनमेंसे अन्तिम एक 'विष्णुयज्ञ', 'अशेष भोज', वा 'सहस्रभोज' जिसे जोधपुर निवासी शाण्डिल्य गोत्री यजुर्वेदी पुरोहित जातिके पुष्करणे ब्राह्मण च. ण्डवाणी जोशी श्रीमान् प्रभुलालजी, हंसराजजी, गङ्गाविष्णुजी, रामनारायणजी व शिव नारायणजी आदिने अपने स्वर्गवासी पिता शम्भुदत्तजी के आज्ञानुसार सं० १९०२ में मिगशर वदि ६ से प्रारम्भ करके माघ सुदि १५ तक समाप्त किया था ।उसी का पाठकों को सङ्केप से स्मरण कराता हूं जिससे अन्य यज्ञों के भी व्यय आदि का अनुमान हो सकेगा। इस यज्ञके समय यज्ञशाला-यज्ञ मण्डप कुण्ड आदि बनाके अग्निकुण्डमें ७ दिन तक लगातार आहुति लगती रही और उस कुण्ड में एक घृतकी अखण्ड धारा भी साधारण रूपसे ऊपरसे गिरती थी । इस यज्ञके लिये घृत के पात्र (लोहे के कड़ाह ) इतने बड़े भरेथे कि उतने कभी पानीसे भी भरे हुये देखने में नहीं आये होंगे। इस 'विष्णुयज्ञ' के समय उपर लिखे अनुसार सम्पूर्ण पुष्करणे ब्राह्मण निमन्त्रित किये गये थे । एकत्र हुये सहस्रों ब्रा For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ ह्मणों को ७ दिन भोजन कराके पूर्णाहुतिके पश्चात् प्रत्येक ब्रामणको ४) ४) रुपये दक्षिणा देके विदा किये। या कर्तागण जोधपुरके महाराज श्रीमान् तख्तसिंहजीके गुरू व मुसाहिब आदि थे, इसलिये जोधपुर दरवारसे सर्व प्रकारके अन्यान्य प्रबन्ध कर दिये गये थे । तथा धान्यादिका भावभी उस समय बहुतही मन्दा . था। तोभी अनुपान१,००,०००) रुपये उनके घरसे व्यय हुये थे। इस समयमें तो वैसा यज्ञ १० लाख रुपये लगाने परभी होना कठिन है। अब भी ऐसे धनाढयों की तो कमी नहीं है किन्तु वैसा प्रबन्ध होना महा कठिन है। इस यज्ञके पश्चात्भी कई वर्षों तक उस यज्ञके स्मरणार्थ उसी यज्ञ शाला में प्रतिवर्ष, जोधपुर में सम्पूर्ण पुष्करणे ब्राह्मणों की जातिभर को भोजन कराया जाता था, अर्थात् उपरोक्त प्रकारके यज्ञों में तथा जाति भोजन में इनके घरसे लाखों ही रुपये व्यय हुये हैं । ऐसे धार्मिमक परोपकारी महानुभावों के वंश भूषण श्रीमान् जोशीजी आशकरणजी साहिब इस समय जोधपुर दरबार की कौन्सिलकी शोभा बढ़ा रहे हैं । ईश्वर इन्हें चिरायु करें। पुष्करणे ब्राह्मणों में ब्रह्मभोज करने का आग्रह। मन्वादि धर्म शास्त्रों में ब्राह्मण भोजन करानेका बहुत आग्रह किया गया है। और ब्राह्मणों में भी स्वजातिके ब्राह्मणों को भोजन करानेका विशेष फळ लिखा है। इसी लिये पुष्करणे ब्राह्मणों में भी जाति भोजन करानेकी प्राचीन प्रथा आजतक चली आती है। अर्थात् पुत्र आदिके जन्म For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा उपनयनादिः संस्कारों के समयमें, कन्या आदि के विवाह समयमें, और मातापिता आदिके देहान्त हो जाने के प: श्वात्. अपनी सामर्थ्यके अनुसार स्वजातिके ब्राह्मणों को अ. वश्य भोजन कराते हैं और सम्पूर्ण जाति भरको भोजन करानेके समय प्रत्येक ब्राह्मणको ।)।), १) १), २)२) तक दक्षिणा भी देते हैं । अतः एक वार जाति भोजन कराने में बड़े नगरों में तो ५०००) ५०००) वा १००००) १००००) तक रुपये लग जाते हैं। ऐसे जाति भोजन एक वर्ष में कई वार हो जाते हैं जिनसे पाठक अनुमान कर सकते हैं कि आजतक इस कार्यके लिये पुकरणे ब्राह्मणोंकी जातिने लाखों ही नहीं वरन करोड़ों रुपये व्यय कर दिये होंगे और आगेको भी ऐसे ही व्यय करती जाने ही में वह अपना गौरव समाती है। किन्तु यदि इसी प्रकार जात्युपकारी अन्यान्य कार्यों में द्रव्यादि से सहायक बने तो क्या कम उत्तम होगा? पुष्करणे ब्राह्मणों में स्वजाति में परस्पर सहानुभूति । इसी प्रकार दुर्भिक्ष आदि के कष्टके समय भी वे एक दूसरे से सहानुभूति रखते हैं। एक समय सं. १६८० के लगभग मारवाड़ में बड़ा भारी दुर्भिक्ष (अकाळ) पड़ गया। उस समय बहुतसे पुष्करणे ब्रामण देशको त्यागकर विदेश जाने लगे तो जोधपुरके महाराजा शूर. For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंहजीके गुरु व मुसाहिब व्यास नायाजीने अपने पाससे धान्य देकर लोगों को जोधपुर ही में बसा लिये ये । उस समय की यह एक कहावत आजतक लोग कहते आये हैं कि: न्यात न्यात में होतो नाथो। तो काहे को लोग मालवे जातो? ॥ इसी प्रकार सं. १८६९ में भी मारवाड़ में बड़ा भारी दुभिक्ष पड़ा था। उस समय सिन्धकी ओर को जानेवाले पुष्करणे ब्राह्मणों को तो जैसलमेर के व्यास शूरदासजी व शिवदासजीने और मालवेकी ओर जाने वालोंको जोधपुरके चण्डवाणी जोशी श्री कृष्णजीने पीछा संवत् होने तक अपने यहां भोजन करने का निमन्त्रण सम्पूर्ण न्यात को देकर भोजनादिका उचित प्रबन्ध करके अपनी २ ओरसे वृहत् भोजन शालायें खाल दीं। उनमें हर कोई पुष्करणा ब्राह्मण भोजन कर सकता था। ऐसे करने से लोगोंका दुर्भिक्ष का कष्ट दूर हो गया। पुष्करणे ब्राह्मण सदासे मारवाड़ के छोटे बड़े प्रायः सभी गाँवों में राज्यकी ओरसे हवालदार आदि अथवा बोहरों आदि की ओरसे उनकी रकम बमूल करनेके लिये रहते हैं। यदि कोई पुष्करणा ब्राह्मण मार्ग चलता हुआ भी उनके गाँवमें होके निकल जावे तो उनको वहां पर ठहरा के एक टंक तो भोजन कराये विना कदापि आगे नहीं जाने देते । जैसी परस्पर सहानुभूति इस बात की पुष्करणे ब्राह्मणों में देखी जाती है वैसी स्यात् ही किसी अन्य जातीमें होगी। For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org यथा: ९६ पुष्करणे ब्राह्मणोंके दान नहीं लेनेका कारण । मन्वादि धर्म शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिये ६ कर्म माने हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् मनु० अ० १ श्लो० ८८ विद्या पढ़ना, यज्ञ करना, और दान देना ये ३ कर्म तो परमार्थके लिये; और विद्या पढ़ाना, यज्ञ कराना, और दान लेना ये ३ कर्म जीविका के लिये : - इस प्रकार ये ६ कर्म ब्राह्मणों के हैं। प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसङ्गं तत्र वर्जयेत् ॥ प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेजः प्रशाम्यति ॥ मनु० अ० ४ श्लो० १८६ प्रतिग्रह ( दान) लेना यद्यपि है तो ब्राह्मणों ही के कर्मों में, तथापि बिना सामर्थ्य के तो लेने की आज्ञा ही नहीं है । किन्तु सामर्थ्यवान्को भी अपने ब्रह्म तेजकी रक्षा के लिये इससे अपनेको बचाना लिखा है । यहां तक कि आपत्काळके बिना तो ऐसे वैसे ( पापवृत्ति से जोविका करनेवाले) मनुष्यका तौ भोजन भी लेने का निषेध है । यथा: दुष्कृतं हि मनुष्याणामन्नमाश्रित्य तिष्ठति । यो यस्यान्नं समभाति स तस्याश्नाति किल्विषम् ॥ अङ्गिरास्मृति । मनुष्यों के किये हुये पापकर्मों का फल उन के अन्नमें रहता है । अतः उनके दिये हुये अन्नका भोजन करनेवाले भी उनके For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किये हुये पापोंके भागी हो जाते हैं । इस लिये भोजनभी शुद्ध वृत्तिसे जीविका करनेवालों ही का लेना चाहिये । अतः मनु स्मृति में लिखा है कि सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः । नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी ॥ मनु० अ० २ श्लो० ११८ जो ब्राह्मण वेदविक्रय (पैसे ठहराके वेदका पाठ) करनेवाला और हर किसी मनुष्यका दिया हुआ अन्न खानेवाला हो वह यदि चारों वेदोंका वक्ता हो तो भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ नहीं गिना जाता,किन्तु जो ब्राह्मण वेद विक्रय करने और हरएकका अन्न खाने रूपी दुष्कर्मसे बचा हुआ हो तो वह ब्राह्मण केवल गायत्री मन्त्र ही का जाननेवाला हो तो भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गिना जाता है। इन्हीं पूर्वोक्त धर्म शास्त्रोंकी आज्ञानुसार पुष्करणे ब्राह्मणों की प्रायः समग्र जाति ही प्रतिग्रह (दान) लेने और वेदवि. क्रय करनेरूपी असत्कर्मों से बची हुई है। यहां तक कि जोधपुर आदि के तो पुष्करणे ब्राह्मण 'ब्रह्मभोज' भी केवळ एक अपने महाराजा के अतिरिक्त अपने अन्य यजमानों तकका भी नहीं लेते हैं। हां सिन्ध, कच्छ आदिके प्रायः पुष्करणे ब्राह्मण अपनी जीविका ब्राह्मण वृत्ति से करते हैं किन्तु वे भी बहुधा अपने यजमानों हीसे करते हैं न कि सर्व लोगों से ।* * प्रतिग्रह (दान) लेनेवाले ब्राह्मणों के घर का अन्नजल लेने में प्रायः लोग संकोच करते हैं किन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों में प्रतिग्रह (दान) लेने की प्रथा न होने से इनके यहां का अन्नजल सर्व साधारण से लगा के महाराजा भी प्रसन्नतापूर्वक के लेते हैं । For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिह्वा दग्धं परान्नेन हस्तदग्धं प्रतिग्रहात । मनो दग्धं परस्त्रीणां मन्त्रसिद्धिः कथं भवेत् ॥ नित्यपति पराया अन्न खानेसे जिह्वा दग्ध हो जाती है, स. दैव ही प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ दग्ध हो जाता है और पर स्त्रीकी इच्छा करने से मन दग्ध हो जाता है । अतः ऐसा करनेवाले ब्राह्मण को मन्त्रकी सिद्धि प्राप्त नहीं होती अर्थात ब्रह्म तेज नहीं बढ़ता है जिसके कारण उसका दिया हुआ श्राप बा आशिष् फलीभूत नहीं होती। किन्तु ब्राह्मणों का गौरव ऐसी सामर्थ्य होनेही में है। इसी शुद्धता के कारण पुष्करणे ब्राह्मणों में भी ब्रह्म तेज बना हुआ है, जिसका प्रभाव कई वार देखने में आया है। इसका पूर्ण वृत्तान्त पुष्करणोत्पत्ति नामक पुस्तक में लिखेंगे । पुष्करणे ब्राह्मणोंमें दान लेने की सामर्थ्य । बहुधा पुष्करणे ब्राह्मण दान ( प्रतिग्रह ) नहीं लेते हैं, परन्तु आवश्यकता पड़ जानेपर तो कठिनसे कठिन दान (प्रतिग्रह) लेनेकी सामर्थ्य भी रखते हैं। जैसे: जयपुरके महाराजाधिराज श्रीमान् सवाई जयसिंहजीने सं० १७८९ में 'अश्वमेध यज्ञ कियाथा । उसके अन्तमें दान करने के लिये अन्न, वस्त्र, धातु आदि बहुतसे पदार्थों के ढेर लगाके बीच में एक 'लोहेका पुतला' बनाके रख दिया । इस यज्ञके समय बहुतसे ब्राह्मण एकत्र हुयेथे किन्तु उस दानके लेनेका साहस कि For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीने भी नहीं किया। ऐसे कई दिन बीत जानेसे राजाको दुःखित होता सुनके जोधपुर के चण्डू कुलोत्पन्न चण्डवाणी जोशी ‘कन्हीरामजी' नाम एक पुष्करणे ब्राह्मणने, जिन्होंने पुष्करजी पर गायत्री मन्त्रके २४ । २४ लाख जपके दो पुरश्चरण समाप्त करके जो तीसरा पुरश्चरण प्रारम्भ कियाथा उसे छोड़के, ब्राह्मणोंकी पुष्टिके लिये जयपुर जाके राजासे कहा कि "हे महाराजाधिराज आप स्वयं जानते हैं कि राजाओंका दान लेना कोई खेलकी बात नहीं हैं । क्योंकि जितना पाप १० कसाइयों को होता है उतना तो १ कुम्भकारको लगता है, जितना १० कुम्भकारों को होता है उतना १ तेलीको लगता है,जितना १० तेलियोंको होता है उतना १ वेश्याको लगता है और जितना १० वेश्याओं को होता है उतना एक राजाको लगता है। अर्थात् १०००० कसाइयों के तुल्य पाप १ राजा को लगता है। अतः विना साम र्थ्य के राजाओंका दान (प्रतिग्रह) लेनेवाला २१ प्रकारके घोर नरकों में जाता है । निदान राजाओंका दान विना सामर्थ्य के तो कोई ले सकता ही नहीं किन्तु सामर्थ्यवान्को भी अपने ब्रह्म तेजकी रक्षाके लिये बचना पड़ता है। इसमें मनुस्मृति के चतुर्थ अध्यायका यह प्रमाण है:दशसूनासमं चक्रं दशचक्रसमो ध्वजः । दशध्वजसमो वेशो दशवेशसमो नृपः ॥ ८५ ॥ दशसूनासहस्राणि यो वाहयति सौनिकः । तेन तुल्यः स्मृतो राजा घोरस्तस्य प्रतिग्रहः ॥८६॥ यो राज्ञः प्रतिगृह्णाति लुब्धस्योच्छास्त्रवर्तिनः । For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स पर्यायेण यातीमान्नरकानेकविंशतिम् ॥८७॥ एतद्विदन्तो विद्वाँसो ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः।। न राज्ञः प्रतिगृह्णन्ति प्रेत्य श्रेयोऽभिकाशिणः॥९॥ प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसङ्गं तत्र वर्जयेत् । प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्म तेजः प्रशाम्यति ॥१८॥ परन्तु ब्राह्मणोंका यहभी धर्म है कि आप भलेही दुःख पा केवे किन्तु दूसरोंको दुःखोंसे बचावे; अत: आपका दान लेनेको मैं आया हूं। यह कहके वह दान ले लिया। दान लेनेसे पहिले वे सुन्दर स्वरूपवान् बड़े तेजस्वी दीखते थे परन्तु दानके सङ्कल्पका जल हाथमें लेतेही अग्निदग्ध के समान ( काले, भीलसरखे) हो गये । अतः उस दानका धन तो ब्राह्मणों को खिला दिया और आप फिर पुष्करजी पर गायत्री मन्त्रका पुरश्चरण करके उस दानके प्रायश्चित्तसे निवृत्त हुये । तब उनका शरीर पूर्ववत् सुन्दर तथा तेजस्वी हो गया। किन्तु जिस हाथमें सङ्क. ल्पका जल लिया था उसकी हथेलीमें एक काला दाग़ लोगोंको यह दिखानेके लिये रहने दिया कि राजाओंका दान लेनेसे ऐसा कष्ट उठाना पड़ता है। फिर जयपुर नरेशने उनकी यह सामर्थ्य देखके उनका बड़ा सत्कार करके 'कायमाबाद' नाम एक गाँव जो अब मालियोंकी वासणी कहलाती है' उनको दिया सो आज तक उनके वंशवालों की स्वाधीनतामें है। पुष्करणे ब्राह्मणोंमें दान करनेकी उदारता। पुष्करणे ब्राह्मण व्यास तापाजी जोधपुरके महाराजा मोटा For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०१ राजा उदयसिंहजी के गुरू व मुसाहिबों में से थे। उनके पास घन तो बहुत था, किन्तु पुत्र नहीं था । इसलिये अपने बड़े भाई गाँगाजी के पुत्र गिरिधरजीको दत्तक (गोद) ले लिया । किन्तु फिर किसी महात्माकी आशिष्से तापालीके एक औरस भी पुत्र उत्पन्न हो गया । उनका नाम नाथाजी रखा । जब तापाजीका अन्त समय समीप आया तो उन्होंने गिरिधरजको बुलाके कहा कि तुम दोनों भाई मेरे सामने अपनी सम्पत्ति बाँटको | गिरिधरजीने कहा कि 'आपकी कृपासे मेरे किसी वातकी कमी नहीं है अत: मैं बंट लेना नहीं चाहता । और आपका सम्पूर्ण धन मैं नाथा के लिये छोड़ता हूँ ऐसा कदके अपनी ओरसे एक फारिगख़ती छोटे भाई के नामपर लिखदी । तब तापाजीने अपने छोटे पुत्र नाथाजीको बुलाके गिरिधरजीका सबै वृत्तान्त कहा। नाथाजीने अपने बड़े भाईकी ऐसी उदारता देखके अपने हाथमें जल लेके पिताका सर्वस्व अर्थात् धनादि सम्पूर्ण पदार्थ पिता के नामपर श्रीकृष्णार्पण करनेका सङ्कल्प कर दिया । उस समय नाथाजीकी • अवस्था केवल ९ वा १० ही वर्ष की थी। फिर उस धनमें से अनुमान २,००,००० दो लाख रुपये लगाके पिता नापा जी के नामपर सं० १६८६ में 'तापी' नामक एक बहुत बड़ी बावड़ी बनवा दी, जो जोधपुरकी वस्तीके बहुतही काम आती है । और शेष धन से खेतीके योग्य बहुतसी भूमि मोल लेके ब्राह्मणों को दे दी । वह आजतक है और 'व्यासकी सुरह' कहलाती है । पिताका लाखों रुपये का धन धर्मार्थ लगा देना और उसमेंसे अपने लिये एक कौडीभी नहीं रखना एक ९ । १० वर्षके वालकके लिये दान करनेमें कितनी उदारता है? फिर नाथाजीने स्वयं भी लाखों ही रुपये पैदा किये और ऐसेही ऐसे उपकारी कामों में लगाते रहे। • For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ पुष्करणे ब्राह्मणों में सन्तोषिता । जैसलमेर के पुष्करणे ब्राह्मण आचार्य वेणीदासजी सं० १६६८ में तीर्थयात्राको जाते हुये फळोधी नगरमें आये। उस समय बी. कानेरके महाराजा रायसिंहजीकी गङ्गा नाम राणी ( जो जैसळमेरके भाटी राजा हररायजीकी पुत्रीथीं ) वहां पर रहती थीं उन्होंने वेणीदासजी से कहा कि मेरा पुत्र शूरसिंह है, उसका राज्यमें कुछभी मान्य नहीं है । वेणीदासजीने कहाकि आजसे तीसरे वर्ष आपका पुत्र बीकानेर की राजगद्दीका अधिकारी होगा, आप चिन्ता न करें । यह सुनके राणीको बहुत आचर्य हुआ । परन्तु अपने पुत्र को राज्य मिलने पर आधा राज्य इन वेणीदा सजीको दे देनेका अपने मनमें प्रण कर लिया । वेणीदासजी तौ तीर्थयात्रा को चले गये, किन्तु पीछेसे सं० १६७० में राणीक पुत्र शूरसिंहजीको बोकानेरका राज्य मिल गया। तब गङ्गा राणी अपना पण पूर्ण करने के लिये बहुत आग्रहके साथ वेणीदासजी को बीकानेर में बुलाके अपना आधा राज्य देने को तैयार हुई। किन्तु परम सन्तोषी वेणीदासजीने राज्य लेनेसे स्पष्ट इनकार करके कह दिया कि हमें तौ राज्य नहीं चाहिये । लाचारन राणीने अपने राज्यका आधा लवाज़िमा मात्र ही देके अपना प्रण पूर्ण किया । फिर इनके वंशवाले बहाँपर बड़े प्रतापी हुये और ७ वार विष्णु यज्ञ किये उस प्रत्येक यज्ञ में अपनी जातिके सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको दूर से बुलाके एकत्र किये और प्रत्येक वार ७ । ७ दिन तक भोजनादिसे सत्कार करके प्रत्येक वार और प्रत्येक ब्राह्मणको २) २) रु० दक्षिणा देके विदा किये । ऐसे विष्णु यश (सहस्रभोज ) ३ तौ धरणी धरजीने, १ महानन्दजीने, १ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ रघुनाथजीने, १ जगन्नाथजीने, और ? पोकरजीने किये थे। बीकानेरके राज्यमें उनके वंशवालोंका वैसाही सत्कार बना हुआ है और राज्यसे मिले हुये ३ गाँव (१) थावरिया, (२) खातीवास और (३) कुँतासरिया इनके आधीन आजतक विद्यमान हैं। . पुष्करणे ब्राह्मणों में सिद्ध पुरुष । ब्रह्मोजी नामक एक आचारज (आचार्य) जातिके पुष्करणे ब्राह्मणने सिन्ध देशमें सिन्धु नदकी तटपर गायत्री मन्त्रका पुरश्चरण ( २४ लाखका जप ) प्रारम्भ कियाथा । उस समय 'एक वृद्ध कुम्भकार अपनी स्त्री तथा एक कुंवारी कन्या सहित इनकी टहल करनेको आ रहा। फिर वे स्त्री पुरुष तो तीर्थ यात्रा को जानेकी बात कहकर वहांसे चले गये, और लौटके पीछे आने तक अपनी कन्याको इन्हींके पास छोड़ गये । वह कन्या इनकी टहल करती रही। इसकी सुन्दरता देखकर एक दिन वहाँके मुसलमान नव्याबने इसे लेनी चाही। यह समाचार सुनकर ब्रह्मोजीको बड़ा क्रोध आया किन्तु उस दुष्टके आगे कुछ वश नहीं चलता देख बहुत घबराये। परन्तु जिस समय नवाब इस कन्याको लेने के लिये ब्रह्मोजीकी झोपड़ीके भीतर आया तो वही कन्या सिंहपर चढ़ी हुई साक्षात् अष्टभुजा देवी नज़र आई। इससे घबराकर ब्रह्मोजी से क्षमा प्रार्थनाकी और आगेसे ऐसा अनाचार नहीं करनेका मण करके अपनी जान बचाई। वह कन्या वास्तवमें साक्षात् गायत्रीही थी जो ब्रह्मोजीकी तपस्यासे प्रसन्न होके इस रूपसे स्वयं इनकी टहल करनेको आ के रह गई थी। फिर वह कन्या अमोजीको For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०४ गायत्री का जप सिद्ध होनेका वर देके वहाँपर अदृश्य हो गई । फिर इस कन्याके वरदान से ब्रह्मोजी बड़े सिद्ध पुरुष हुये और उन सिद्धियों द्वारा जगत्काभी बड़ा उपकार करते रहे । इसी प्रकार चोहटिया जोशी 'वलीरामजी' सिन्ध देश के रोड़ी नामक ग्राममें रहते थे । इनके भी साक्षात् गायत्री अरसपरस थी। एक समय लोगों के बहकानेसे कितनेक मुसलमान रात्रि के समय उनकी सोते हुयेकी चार पाई उठाके सिन्धु नदीमें डुबोने को ले गये । परन्तु जब चारपाईको डुबोनी चाही तो वह तो उनके कन्धों ही पर चिपक रही । इस से घबराकर उन मुसलमानोंने क्षमा माँगी । तब उन्होंने कहाकि चार पाई तो पीछी के जाके रख दो और सदा के लिये हिन्दुओंका चिह्न धारण करो तब छोड़ । मुस कमान इस बातको स्वीकार करके 'चोटी' रखाने लगे; सो उनकी सन्मानभी आजतक बळीरामके नामकी चोटी रखवाते हैं। और उस रोड़ी ग्राममें वलीरामजीकी छत्री है जहां प्रतिवर्ष एक मेला भरता है । उस समय हिन्दू मुसलमान सभी उनकी ज़ियारत करनेको जाते हैं । ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी प्रकार सिन्ध आदि देशों के अतिरिक्त जैसलमेर, पोकरण, फलोधी, जोधपुर, पाली, नागौर मेड़ता, बीकानेर, कुष्णगढ़, आदिमें भी कई पुष्करणे ब्राह्मण बड़े नामी सिद्ध हुये हैं। यहांतक कि इस समय भी ऐसे कई सिद्ध पुरुष इस जातिमें विध मान हैं । इनकी सिद्धियोंका अधिक वृचान्त 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्क कमें लिखेंगे । * - For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५ पुष्करणे ब्राह्मण ग्रन्थ कर्ता। पुष्करणे ब्राह्मण सदासे विद्वान् होते आये हैं। इस समय भी सिन्ध, कच्छ, गुजरात, मारवाड़, आदिमें कई अच्छे २ विद्वान् विद्यमान हैं। इनके निर्माण किये हुये ग्रन्थोंको छोड़कर इनके पूर्वजों ही के निर्माण किये हुये ग्रन्थों का वर्णन करें तो भी एक बड़ी पुस्तक बन जावे। अत: उन सबका निर्णय पुष्करणोत्पत्ति नामक पुस्तक में लिखेंगे जिससे पुष्करणे ब्राह्मणों के धर्म शास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, तथा मन्त्र शास्त्र आदि के पूर्ण ज्ञाता होने का परिचय मिलेगा। जिस प्रकार ये संस्कृत के कवि होते आये वैसे भाषाके भी अच्छे २ कवि होते आये हैं। एक सपय जोधपुर में विद्वान् कवियोंकी एक सभा एकत्र हुई तो वहां पर अधिकांश चारण तथा भाट ही अधिक थे। उस सभा में 'हरलालजी' नामक एक पुरोहित जातिके पुष्करणे ब्राह्मण, जो कवि थे, आ गये। उनको देख कर उन चारण भाटोंमें से कोई बोल उठा कि ब्राह्मण कविता करनी क्या जानें? इसपर उन हरलालजीने तत्काल एक कवित्त कहा था वह आगे लिखताहूं जिससे इनके भाषाके कवि होनेका भी परिचय मिलेगा। आदि कवि विधि वेद रचे पुनि व्यास पुराण बनाय के दीनी। सो सुन शुक्र रचे सब काव्य तुलसी अरु सूर सुनाय के दीनी ॥ लाल भने कवि के सब भेद For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०६ सेवग ने अध वीच में छोनी । ब्राह्मण के मुख की कविता Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कछु भाट लई कछु चारण लोनी ॥ पुष्करणे ब्राह्मणों का धम 1 यह जाति सदासे श्रौत (वेद) और स्मार्त ( स्मृति ) धर्म की अनुयायिनी है । और यह स्वयं भी धर्मकी पुष्टि करनेवाली होने ही से तो इसका नाम भी 'पुष्टिकरणा' (पुष्करणा) हुआ है । मारवाड़ देश में 'पुष्टि मार्ग (वल्लभ कुळकी सम्प्रदाय )' के धर्मका प्रचार हुआ है तबसे पुष्करणोंने भी इस सम्प्रदायको स्वीकार की है । इस देशमें पुष्टिमार्गका प्रचार होनेका वृत्तान्तयों है । जोधपुर के महाराजा अभयसिंहजी के गुरु नाथावत व्यास माणिकचन्दजी व जैसलमेर के महाराजा अमरसिंहजी के पाट व्यास (गुरु) मधुवनजीने प्रथम इस सम्प्रदाय के धर्मको स्वीकार किया और देश भर में प्रचार करानेके लिये अपने २ महाराज..ओंको भी इस धर्मको स्वीकार करनेका बहुत आग्रह किया। उ महाराजाओंने कहा कि पुष्टिमार्गके आचार्य गोसांईजी महाराज को यदि हम गुरु बना लेंगे तो फिर हमारे वंशवालेभी इन्हींके वंशवालोंको गुरु मानने लग जायेंगे जिससे आपके वंशवालोंका फिर उतना गुरु भाव नहीं रहेगा। परन्तु धर्मकी पुष्टि चाहनेवाले उन महाशयोंने अपने वंशवालों का गुरुभाव कम हो जानेकी कुछ भी परवाह न करके अपने महाराजाओंको गोसाईजी महाराजके शिष्य बना दिये । इसी प्रकार बीकानेर के महाराजा भी इन के शिष्य पुष्करणों हीके अनुरोधसे हुये । तबसे जैसलमेर, जोधपुर, For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०७ बीकानेर आदिकी रियासतोंमें पुष्टिमार्गके धर्मका प्रथम ही प्रथम प्रचार हुआ। फिर जैसलमेर के तो महाराजा मूलराजनी व जो. धपुरके महाराजा विजयसिंहजी और बीकानेरके महाराजा मूरतसिंहजीने इस धर्मका बहुतही अधिक प्रचार किया था कच्छ तथा सिन्ध देशके भाटिये महाजनोंमें भी जो पुष्टिमार्ग प्रचार हुआ है उसके प्रारम्भ करानेवाले मुख्य पुष्करणे ही ब्राह्मण हैं। क्यों कि भाटिये महाजनोंके वंशपरम्पराके गुरु पुष्करणे ब्राह्मणोंने जिस धर्मको स्वीकार कर लिया वोफिर उनके शिष्य भाटिये महाजन क्यों नहीं करते अर्थात् अपने गुरुओंका अनुकरण इन्होंने भी कर लिया। अतः एव पुष्टिमार्गकी सम्प्रदाय में पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति 'लाल फौज (वल्लभ कुल की अङ्ग रक्षक सेना)' समझी जाती है। पुष्करणे ब्राह्मणों की धर्म पर दृढ़ता। पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता के प्रमाण सं०९९२ तथा९ ९५ में टंकशाली-व्यास लल्लूजीका लख भाज करने आदिका वृत्तान्त लिखाहै। उनके वंशम २३ पोढ़ी पोछे व्यास राम ऋषिजी हुये थे। वे आयुर्वेद (वैद्यक ) विद्य में अद्वितीय थे। यह विधा इनके घरमें वंशपरंपरासे चली आती थी। इसी विद्याके प्रभावसे इनके पूर्वजोंको बादशाहों से कुछ जागीर भी मिल थी । एक समय पादशाहके अब व्रण (अदीठ फोड़ा) होगयाषा, जिसका इबाज इनोंने बहुत सावधानीसे करके पाराम कर दिया । इस जीवदानके पद पादशाहने अपनी कन्या इनके पुत्र देवी For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीको व्याह देनी चाही । वह शाहज़ादी भी इनके रूपसे मोहित हो गई थी । किन्तु राजकन्या सहित राज सम्पदाके ऐश्वर्य का लाभ देखकर भी धर्मकी पुष्टि करनेवाले क्या ऐसे अधर्म के कार्यको कभी स्वीकार करसकतेथे ? उस समय इस श्लोकका स्मरण किया: न जातु कामान्न भयान्न लोभात् । धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः । घर्मो नित्यः सुखदुःखस्त्वनित्यो जोवो नित्यो हेतुरस्यत्वनित्यः ॥ अर्थात् धर्मको न तो किसी कामना के लिये, न भयसे, न लोभसे और न जीवन के लिये त्यागे । क्योंकि संसार में जितने प्रकारके सुख दुःख हैं वे सब अनित्य हैं किन्तु यह धर्म है सोनिस है और जीव भी नित्य है । अतः अनित्य वस्तु के लिये नित्य वस्तु का त्याग कभी भी न करे । अत: धर्म पर दृढ़ विश्वास करके उस आपत्ति से बचने के लिये बरात बनाके विवाह करनेको पीछा आनेका बहाना करके वहांसे अपनी जागीर काकरेच के मुल्क में चले आये और वहां से फिर व्याह करने की नाहीं करदी | तब बादशाही फौज आई तो ये सब कुटुम्ब सहित लड़ मरे केवल एक देवऋषिजी अपना जी बचा पूर्वजों की जागीरको तिलाञ्जलिदे के ब्रह्मचारी के वे में जैसलमेर में जाके लटक हाने लग गये । दैव योग से -वहाँके भाटा राजा लक्ष्मणजीके भी बहुत समय से वैसा ही अदृष्ट था। उन्होंने उनको भी आरोग्य कर दिये । फिर सजाने इनका विवाह अपनी वंशपरम्पराके पुरोहि देवायतजीक वंश For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घर पुरोहित 'पैलाजजी' की कन्या व लखूजी तथा वीरोजी की बहन 'वगड़ी' के साथ अपनी ओरसे धन लगाक करा दिया । तथा इनको अपना पाट व्यास (गुरु) बनाये सो आजतक जैसलमेर के राज्य में पाट व्यास उन्हीं की सन्तान वाले हैं ॥ देखो जैसलपरेकी तवारीखका पृष्ठ ४६ ) एक समय देवऋषिजी द्वारिकाकी यात्राको गये। वहां पर श्री भगवान्ने साधुका वेष धारण करके इनके पास आके कहा कि "तुम्हारे वंशमें ३२ पीढ़ीसे जो सुवर्ण सिद्धिा रसायन विद्या) चली आती है इसीलिये तुमारा वंश नहीं बढ़ता है अतः तुम इस विगको त्याग दे सो फिर तुम्हारा वंश बहुत बढ़ेगा" । यह कहकर इनकी जटामें जो रसायनकी शीशी थी वह लेके गौमतीजीमें फेंकके आप अदृश्य हो गये। तबसे देवऋषिजीने इस विद्याको छोड़ दी। तब इनके पुत्र हुये। उनमें से प्रथम पुत्र 'पोपाजी' की सन्तानतो जोधपुर आदिमें नाथावत,गिरिधरोत, चत्ताणी, जोधावत आदि है। दूसरे पुत्र 'जूठानी' की सन्तान बीकानेर आदिमें जूठगणी, लालाणी, कीकाणी आदि हैं; तीसरे पुत्र नउंजी' की संतान जैसलमेर आदिमें रणछोड़, हरखा, जसाणी, भोपत, श्रीधर, किसनाणी, डावांणी, गोविंद, सेऊबडसी आदि हैं और चोथे पुत्र गदाधरनीकी सन्तान कच्छ आदिमें हैं। भमघान्की आज्ञासे रसायन विद्याको छोड़ देने से इनका वंश इतना बढ़ा कि ४५० ही वर्षों में उन ४ पुत्रों की सन्तानके इस समय अनुमान ४००० घर होंगे। व्यास लल्लूजीके वंशधर होनेस देव ऋषिजी की संतानवाळे भी पुष्करणों में व्यास कहलाते हैं। - For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणों का आचार । देशों के भेदसे गौड़ और द्राविद ब्राह्मणोंकी पृथक सम्मदायें चली आती हैं। देश भेदसे इनके आचार विचार, खानपान आदि सम्पूर्ण व्यवहारों में भी भेद पड़ गया है । पुष्करणे ब्राह्मणोंकी जाति पञ्च द्राविड़ोंके अन्तर्गत गुर्जरोंकी एक शाखा होने से इनका भी आचार विचार, खानपान आदि द्राविड़ों ही के अनुकूल चला आता है । परन्तु बहुत समय तक निर्जल देश में निवास करने और वहांके राज्य कर्त्ताओं के पुरोहित, गुरु, मुसाहिब आदि होने से उनके साथ२ बहुत वर्षों तक आपत्कालमें जहांतहां भटकते फिरने आदि कारणों से तथा मुगलों के शासनकाल में जैसकमेर, जोधपुर आदि में उनका अधिकार हो जाने के समय उनके अत्याचारसे लोगों का प्राण बचानाही जब महा कठिन ही होगया था वैसे समय में ऐसा कठिन आचार निर्वाहहोता न देखके पुष्टिमार्ग ( वल्लभाचार्यजी की सम्प्रदाय) की मर्यादानुसार अनसखरी अर्थात् पक्का भोजन ( लड्डू पूरी आदि ) द्विजमात्र के हाथका खाने लग गये । किन्तु सखरी अर्थात् कच्चा भोजन (सीरा छपसी आदि) तो अपनी जातिवालोंके सिवाय अन्य किसी ब्राह्मण के भी हाथका बनाया हुआ अब भी नहीं खाते हैं । परन्तु कई पुष्करणे ब्राह्मण तो अब तक भी अपनी पूर्व मर्यादानुसार लड्डू पूरी आदि पक्का भोजन भी दूसरोंके हाथ का बनाया * पुष्टि मार्गके आचार्य श्री गोसाँईजी महाराज भी द्राविड़ सम्प्रदाय मं के तेल ब्राह्मणोंकी एक शाखा में हैं और पुष्करणे ब्राह्मणोंने भी उसी द्राविड़ सम्प्रदाय के गुर्जर ब्राह्मणों की एक शाखा सिन्धी ब्राह्मण होने से पुष्टिमार्ग का आचार स्वीकार कर किया है। For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुआ नहीं खाते हैं। इसीलिये सम्पूर्ण जातिको भोजन करानके समय तो-क्या कक्षा और क्या पका-सभी पकाम अपनी जा. तिवालों ही के हाथसे बनाया जाता है। इस प्रथाके लिये सम्पूर्ण पुष्करणे ब्राह्मणों को बालपन ही से भोजन बनाने की शिक्षा दी जाती है। इसके उपरान्त विवाह आदिके समय जातिमें बाँटने के लिये जो लड्डू बनाये जाते हैं तो प्रथम आटेको केवल घृत में भून (सेक) लेते हैं । फिर गुड़को भी केवल घृतमें गला लेते हैं। पीछे उसमें उक्त भुना हुआ आटा मिलाके लड्डू बना लेते हैं । इनमें तेल वा पानी आदि कुछ भी पदार्थ न मिलनेसे ये लड्डु द्राविड़ सम्प्रदाय के अनुसार फलवत् ग्राह्य होते हैं । इससे भी पुष्करणे ब्राह्मणों का प्राचीन आचार द्राविड़ सम्प्रदायके अनुकूल होने का पूर्ण पता लगता है। पुष्करणे ब्राह्मणों में संस्कार। धर्म शास्त्रों की आज्ञानुमार इस जातिमें भी गर्भाधानादि संस्कार यथावत् किये जाते हैं। जैसे गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नाम करण, अन्न माशन, चूडा कम, कर्णवेध उपनयन, वेदाध्ययन, समावर्तन, विवाह आदि संस्कार उचित काळमें करते हैं। इन में सोमन्तोन्नयन, जात कर्म, चूडा कर्म, यज्ञोपवीत, समावर्तन, विवाह, और अन्त्येष्टि के समय तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार बहुत अधिक द्रव्य लगाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणों में वानप्रस्थ आश्रमी । इस जाति में भी आश्रम धर्मानुसार बानप्रस्थ आश्रम का भी पालन करते आये हैं। जैसे जोधपुरके चण्डवाणी जोशी वृत्ति नारायणजी, पुरोहित परशु रामजी, बलदेव ऋषि, बोहरा अण. तरामजी आदि बड़े तपस्वी तेजस्वी व वचनसिद्ध महात्मा हो गये हैं। तथा अब भी पुरोहित रूपरामजी आदि कई महाशय उक्त आश्रम की शोभा बढ़ा रहे हैं। पुष्करणे ब्राह्मणोमें संन्यासी। वानप्रस्थ के उपरान्त कई महाशय संन्यास भी धारण कर के परम पदको प्राप्त होते हैं। जैसे मत्तड़ जातिके एक पुष्करणे ब्राह्मण संन्यास धारण करने पर 'मुखानन्द' नाम से प्रसिद्ध हुये थे। उन्होंने सदेही कैलास गमन करने के लिये 'केदार कल्प' की साधना किंई तो उनका शरीर ऐसा दृढ़ हो गया कि उसे अनि भी नहीं जला सकती थी। फिर वे वद्रिकाश्रम हो के हिमालय की ओर आगे बढ़ चले गये। जोधपुर से कई लोग जो उनके साथ गयेथे उन्हें वे बहुत दूर तक वरफ पर जाते हुये दृष्टि भाये । फिर पर्वत की ओटमें आ जाने से नहीं दीखे । उन मुखानन्द स्वामी जी की वागीची तथा कुआ आदि आश्रम अब तक जोधपुर में पुष्करणे ब्राह्मणों की स्वाधीनता में बहुत वर्षों से चला आता है। इसी मकार जोधपुर के कावजी नामक एक चचाणी व्यासने बड़ौद में द्राविड़ सम्पदाय के एक प्रतिष्ठित संन्यासी जी से संन्यास धारण किया था । तब फिर वे 'अचला नन्दजी' नाम For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से प्रसिद्ध हुये । एक विशा जाति के पुष्करणे ब्राह्मण 'भौमानन्दजी' नाम से बड़े संयमी हुये थे । वे मौन रखते थे । एक दिन किसी मूर्खने उन के परमहंस पद की परीक्षा करने के लिये चूने के पेड़े बना कर खिला दिये और वे प्रसन्नता पूर्वक खा गये। किन्तु उन को कुछ भी बाधा नहीं हुई। इस बात को देख कर वह मूर्ख बहुत घबराया और क्षमा प्रार्थना किंई । पुष्करणे ब्राह्मणोंकी कुलीनता। द्विजों में उत्तम कर्म करने वाले तो कुलीन और अधम कर्म करने वाले अकुलीन माने जाते हैं । अतः पुष्करणे ब्राह्मणों में भी कन्या विक्रय आदि निन्द्य कर्म करने वाले तो अकुलीन और न करने वाले अकुलीन मानने की प्राचीन प्रथा है । जिस कुल में पूर्वोक्त निन्द्य कर्मों का दोष नहीं लगा हो वह कुल तो चाहे निर्धन ही क्यों न हो, यहां तक कि केवल कुंकुम और कन्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सके, तो भी उस कुल से कन्या लेने देने का सम्बन्ध प्रसन्नता पूर्वक प्रायः सभी पुष्करणे लोग कर लेते हैं। किन्तु जिस कुल में पूर्वोक्त दोष लग गया होतो फिर उस से सम्बन्ध रखने में प्रायः हिचकते हैं। इतना ही नहीं । किन्तु कच्छ देश वाले तो उन को अपनी जाति से भी पृथक् जाति ( अर्थात् अकुलीन जाति ) समझते हैं। और उन की कन्या व्याइ लाने वाले को भी दूसरी जाति की कन्या व्याह लाने वाला ( अकुलीन) पुकारते हैं। इस प्रकार जाति *इसी वात को सुन कर कितनेक अनभिज्ञ मारवाड़ी पुष्करणे ब्राह्मण ऐसा खयाल करने लग गये कि सचमुच ही कच्छी पुष्करणे दूसरी जाति की कन्या व्याह लाते होंगे । किन्तु यह उनका केवल भ्रम है, क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ प्रथा की कठोरता के कारण पुष्करणे ब्राह्मणों की समग्र जाति कन्या विक्रय आदि दुष्कर्मों से बहुधा बची हुई है । कच्छी पुष्करणे जिसे दूसरी जाति कहते हैं वह वास्तव में पुष्करणे ब्राह्मणों से भिन्न कोई अन्य जाति नहीं है और न पुष्करणोंकी जातिसे बाहर किई हुई जाति है । केवल कन्याओंका द्रव्य ले लेनेसे उन्हें अकुलीन समझकर दूसरी जाति कहते हैं, जिसका वृत्तान्त य है :—— कच्छ देशके समीप वर्त्ती हालार, मच्छुकाँठा, सोरट, गोयलवाड़, और काठियावाड़ आदि प्रान्तोंके छोटे २ ग्रामोंमें बासु, हेडाउ (पुरोहितों के सह गोत्री ), कपिलस्थालिया ( छाँगाणी ), और बोड़ा आदि नख वाले. पुष्करणे ब्राह्मणों के घर अनुमान १००।१२९ होंगे उनके साथ कच्छी पुष्करणों का रोटी बेटीका सम्बन्ध सदासे चला आता है । परन्तु बाहर ग्रामोंमें रहनेके कारण पिछले थोड़े समय से उनको विना द्रव्य दिये कन्या - एं मिलनी दुर्लभ हो जाती देखकर वे स्वयं भी लाचारन अपनी भी कन्याओं का द्रव्य लेने लग गये | इसी लिये उन्हें दूसरी जाति पुकारने लग गये हैं । परन्तु पुष्करणोंकी जाति मर्यादानुसार कन्याका द्रव्य लेने वाला जाति से बाहर कदापि नहीं हो सकता । इसी लिये कच्छियोंने भी केवल सम्पूर्ण जाति भोजन के समय बीचमें लकड़ी रख देनेके अतिरिक्त परस्पर में एक दूसरेके भोजन आदि अन्य व्यवहारोंमें कुछ भी अन्तर नहीं डाला है । इतनाही नहीं किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनकी कन्याएं भी व्याह ळाते हैं । इससे सिद्ध होता है कि बीचमें लकड़ी रखना भी प्रारम्भ में तो केवल इसी लिये किया गया होगा कि इस भयसे ये कन्या विक्रय करना छोड़ दें, परन्तु अन्तमें वह प्रथाही चल पड़ी होगी । पर ऐसे कन्याओंका द्रव्य लेने वाले इने गिने तो सभी समुदायों में पाये जावेगे तो भी उनका इतना अपमान कहीं भी नहीं किया जाता जितना कि कच्छी पुष्करणोंने किया है । For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्करणे ब्राह्मणोमें कन्या देनेकी प्राचीन रूढ़ि। इस जाति वाले कन्याएं जिन गोत्रों में सदा से देते आये हैं, प्रायः फिर भी कन्याएं उन्हीं गोत्रों में देने ही में अपना विशेष गौरव समझते हैं । इसी प्रकार कन्याएं जिन गोत्रों की सदा से लेते आये हैं, उन्हीं गोत्रों से फिर भी कन्याएं मिलने में भी अपना विशेष सौभाग्य समझते हैं। अर्थात् कन्या सम्बन्ध में जहां तक हो सके नवीन सम्बन्धी करने की अपेक्षा प्राचीन सम्बन्धियों ही को श्रेष्ठ मानते हैं । इस लिये इस जाति में यद्यपि कन्याओं की कमी से तो अलबत्ता किसी २ को कन्या मिलनी दुर्लभ हो भी जाती है, तथापि इस प्राचीन प्रणाली के कारण साधारणतः प्रत्येक साधारण स्थिति वालों को भी कन्याएं मिल ही जाती हैं। पुष्करणे ब्राह्मणों में कन्या देने की उदारता। एक समय जोधपुर के महाराज शूरसिंहजी के गुरु व मुसाहिव श्रीमान् नाथाजी व्यास को उन की स्त्रीने कहा कि अपनी कन्या विवाह करने योग्य हो गई है अतः अब इस की सगाई कर के शीघ्र विवाह कर देना चाहिये । नाथाजीने पूछा कि लड़का न्यात पतित पावनहै, न्यातही आक्ति कोभी सपांक्त कर सकती है। तो फिर उनके साथ खुल्लम खुल्ला रोटी बेटी का सम्बन्ध रखते हुये भी सम्पूर्ण जाति भोजन के समय बीचमें लकड़ी रखना और उनको दूसरी जाति कह कर लोगोंमें वृथाभ्रम पैदा करना कच्छी समुदायके पुष्करणे ब्राह्मणों को शोभा नहीं देता । अतः कच्छी पुष्करणोंको चाहिये कि वे उन ग्रामवालों पर दया कर उन्हें इस अपमान से बचा के महान् यशके भागी बनें । For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ कितना बड़ा देखें ! स्त्रीने अपने रसोई करने वाले एक नौकर के लड़के को दिखा के कहा कि इतना ही बड़ा और ऐसा ही स्वरूप वान् होना चाहिये । नाथाजीने कहा कि बहुत अच्छा । एक दिन स्त्रीने फिर पूछा कि क्या कोई लड़का मिला ? नाथाजीने कहा कि हां मिल गया । स्त्रीने पूछा कि वह कौनसा है ? नाथाजीने कहा कि जिस रसोई करने वाले के लड़के को तुमने पसन्द किया था वही तो है । इस बात को सुन कर स्त्री चुप हो गई । तब नाथाजीने कहा कि यह लड़का अपनी ही जाति का है, सुन्दर स्वरूप वाला भी है, गोत्र तथा कुल में भी अपन योग्य है, और तुमने भी इसी को पसन्द किया था । अर्थात् एक निर्धनता के अतिरिक्त और कोई हानि नहीं है । और इस हानि को तो तुम ही मिटा सकती हो । अर्थात् जितनी इच्छा हो उतना धन दे देना । ऐसा कह के अपनी कन्या की सगाई उसी अपनी रसोई बना ने वाले के लड़के से कर के उसे व्याह दी । और धनादि सम्पदा देके उसे भी धनाढ्य बना दिया । इसी प्रकार जैसलमेर के एक प्रतिष्ठित व श्रीमान् व्यास जीने भी अपनी ' वाली ' नाम की कन्या एक रसोई करने वाले अपने पुष्करणे नोकर को दे दी थी । ऐसे कइयोंने ही कन्याएं दी हैं । परन्तु उन पुरानी बातों को छोड़कर अभी सं० १९३१ में ही जोधपुर दरबार के मुसाहिब श्रीमान् चण्डवाणी जोशी हंसराजजीने भी अपने पुत्र आशकरण की कन्या एक अत्यन्त साधारण स्थिति के लड़के को दे कर उसे भी श्रीमन्त बना दिया था विचार का स्थल ह कि कहां तो ऐसे २ राज्य मान्य श्री For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११७ मन्तों की कन्याएं और कहां अत्यन्त ही साधारण स्थिति के लड़के ? अर्थात् कन्याएं देनेमें जैसी उदारता पुष्करणे ब्राह्मणों में है वैसी स्यात् ही किसी जाति में देखने वा सुननेमें आई होगी । यद्यपि अब ऐसी उदारता का कुछ २ लोप होना सम्भव होता जाता है, तथापि ऐसे उदारोंकी अब भी कमी नहीं है; और जो २ ऐसी उदारता दिखलाते हैं उन्हें उपरोक्त 'नाथाजी व्यास ' की उपमा देते हैं । पुष्करणे ब्राह्मणों में सगाई की शास्त्र मर्यादा । कन्या का दान करने में धर्म शास्त्रों में २ कर्म मुख्य माने हैं। प्रथम तो वाग्दान अर्थात् वचन से कन्या देना जिसे सगाई करना कहते हैं । और दूसरा कर्मदान अर्थात् कन्या का हथलेवा पात से जोड़ के प्रत्यक्ष कन्या देना जिसे विवाह करना कहते हैं । सगाई पूर्व काल में तो विवाह के समय से थोड़े ही समय पहिले करते थे और पञ्च द्राविड सम्प्रदाय वाले ब्राह्मण तो आज तक प्रायः ऐसे ही करते हैं । अतः पुष्करणे ब्राह्मण भी पञ्चद्राविड़ों में के गुर्जरों की एक शाखा होने से उसी प्राचीन रूढ़ि पर चलते हैं। किन्तु सगाई करने के पहिले जो कन्या देने का विचार स्थिर करते थे कि हमारी लड़की तुम्हारे लड़के को देंगे, काल पाके लोक रूढ़ि से उसी को सगाई पक्की हुई मानकर लड़कों के बाप लड़कि यों के लिये गहना कपड़ा आदि देने लग गये । परन्तु पुष्करणे ब्राह्मण कन्या देने का ऐसा विचार स्थिर कर लेने मात्र को शास्त्रानुसार सगाई होनी नहीं मानते इसी लिये विवाह से पहिले लड़की के लिये गहना कपड़ा आदि कुछ भी नहीं देते ऐसी अवस्था में यदि किसी का पाहले का विचार बदल जाये तो अपने 1 For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लड़के लड़की की समाई पक्की नहीं भी करते हैं। इस बात को देख कर ही लोग कहते हैं कि पुष्करणों में * सगाई छूट जाती है । किन्तु ऐसा कहने का मूल कारण केवल देश रूढ़ेि पड़ जाना .ही है । वास्तव में पुष्करणों में सगाई शास्त्र मर्यादानुसार 'वाग्दान' हो जाने पर ही पक्की समझी जाती है। इस प्रकार सगाई हो जाने पर पुष्करणों में न तो कभी पहिले ही छूटी है और न कभी आगे ही छूटने की सम्भावना होती है।। पुष्करणे ब्राह्मणों में शास्त्र मर्यादानुसार वाग्दान-सगाईकरने की यह रीति है कि विवाह से १ वा २ दिन पहिले कन्या के कुटुम्ब वाले स्त्री पुरुष एकत्र हो के लड़के वाले के यहां जाते हैं । लड़के वाले भी सब एकत्र हो के लड़के को गहने कपड़े पहिना के घर के बाहर एक गद्दी पर विठला देते हैं। फिर वहां पर लड़के और लड़की के कुल के तथा इन दोनों के ननिहाल ( नानाणे) वालों के कुल के गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा धादि का उच्चारण कराते हैं जिस से यह निश्चय जावे कि सगाई कर ले में कोई गोत्र तो नहीं अटकता। इस के पीछे इन चारों ही कुटुम्वों के अर्थात् लड़के और लड़की के बाप, दादा, परदादा, और नाना, पर नाना, लड़ नाना के नाम तथा दोनों की माताओं के नाम पूछे जाते हैं। जिससे कि यह निश्चय करना है कि तीन पीढ़ी तक में किसी प्रकार की अकुलीनता तो नहीं है . * निस प्रकार शास्त्र मर्यादानुसार वाग्दान होनेसे पहिले पुष्करणों में सगाई पकी नहीं समझी माती उसी प्रकार श्रीमाली ब्राह्मणों में भी सगाई पको नहीं समझी जाती है। For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११९ इसके उपरान्त जव सगाई करनेका विचार दृढ़ हो जाता है तब 'वाग्दान' (जिसे सम्प्रदान भी कहते हैं) अर्थात् कन्या देने का संकल्प कर देते हैं। तभी सगाई पक्की हुई समझ के फिर उसी समय लड़की वाले लड़के वालोंको मिलनी देते हैं । यह इसी सुनियमका प्रताप है कि पुष्करणे ब्राह्मणों में सगाई तथा विवाह सम्बन्धी किसी प्रकारका वाद विवाद राज्य तक कदापि नहीं जाता है। पुष्करणे ब्राह्मणोंमें विवाहको शास्त्र मर्यादा। शास्त्र मर्यादा जैसे सगाई करने की है वैसे ही विवाहकी भी है । अतः पुष्करणे ब्राह्मणों में विवाह भी शास्त्र मर्यादानुसार ही होता है। विवाह सम्बन्ध में आधुनिक रूढिके अनुसार न तो प्रसेक लड़के लड़की की जन्म पत्रिका आदि मिलाते हैं और न :सेक लड़के लड़कीके लिये विवाहका मुहूर्त ही पृथक् २ निकालते हैं किन्तु पारस्कर आदि गृह्य सूत्रों की आज्ञानुसार विवाह करने योग्य श्रेष्ट कालमें अपने२ ग्राममें समयरपर केवल एक ही उत्तम मुहूर्त निकाल लेते हैं। उस समय वहां की जाति भरमें जितने विवाह होनेवाले हों वेसभी उस एकही मुहूर्तमें हो जाते हैं। हां विवाहके कार्यके पारम्भसेलेके विवाहका कार्य समाप्त होने तकके विवाह के अंगभूत प्रयेक कार्य के लिये शास्त्रकी आज्ञानुसार पृथक् २ मुहूर्त अवश्य नियत करते हैं। अर्थात् वैसे तो विना मुहूर्त के तो कोई कार्य नहीं करते, इसलिये पुष्करणों में विवाह हो जानेके पीछे भी विवाहका कार्य समाप्त होने में १५।२० दिन लग जाते हैं । सगाई करनेका विचार स्थिर कर लेनेसे लगाके विवाह सम्बन्धी समग्र For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० कार्य सम्पूर्ण होने तक का विवरण रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़के तीसरे भागके पृष्ठ १६२ से लगा के १८० तक (१९ पृष्ठों) में विस्तार से लिखा गया है। इन सब कार्यों के शास्त्र मर्यादानुसार होनेके प्रमाण विस्तार पूर्वक 'पुष्करणोत्पत्ति' नामक पस्तक में दिखलावेंगे। पुष्करणे ब्राह्मणों में सम्बन्धियों के परस्पर प्रेम। विवाह आदि के समय सम्वन्धियों में परस्पर प्रेम जैसा पुष्करणे ब्राह्मणों में सदासें रहता आया है वैसा स्यात् ही किसी और जातिमें रहता होगा । इस शिष्टाचारके लिये पुष्करणों की जाति प्रसिद्ध है। रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ने भी अपने तीसरे भागके पृष्ट १६२ में इनकी प्रशंसा की है वहीं पाठकों को सुनाने के लिये यहां पर लिख देता हूं:: "पुष्करणे ब्राह्मणो में व्याह शादीके दस्तुर बहुत सीधे सादे हैं और उन के आपसके वर्ताव भी बहुत अच्छे हैं जिस से बहुत कुछ फायदा न्यात संबंधी होता है, और इसी संबंधसे इनके व्याहों में कभी कोई झगड़ा वखेडा दूसरी कौमों के माफिक नहीं होता, बल्कि दुतरफा बहुत रंग और प्यार रहता है। बेटीका बाप चाहे कुछ न दे तो भी वेटेका बाप और भाई वगैरा उसकी तारीफ ही करते हैं कि आपका क्या कहना है आप तो इन्द्र होकर हमारे ऊपर बरसे हैं। . "दूसरी उमदा बात यह है कि व्याह में चाहे ज़ियादा रुपया खरच करें और चाहे कम, मगर बहुत कम हिस्सा उसका For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२१ गैर कौमों में जाता है । क्यों कि जो देने दिलानेका दस्तूर है, वह सब अपने ही लागती वालों में दिया जाता है, गैर कोम नाई ब्राह्मण भाट वगैरा को, जैसा कि दूसरी कौमों में दस्तूर है, नहीं दिया जाता और जो दिया भी जाता है तो बहुत कम । ___"सीसरे, बेटे वालेसे रोत या व्यौहार लेने का दस्तूर नहीं है। गरीबसे गरीब हो वह भी कुछ नहीं लेता। हां जो कोई गांवों में कुछ छुपे चोरी ले ले तो उसको अच्छा नहीं समझते। ___ "चौथे विरादरी वाले खुशी से हरेक अमीर गरीब के घर बराबर बुलाये से आ जाते हैं। और वहां जो खाना कम भी हो तो भी थोड़ा २ खाकर वाहवाह करके चले जावेंगे, और यह बात हरगिज़ नहीं ज़ाहिर होने देंगे कि खाना नहीं था या कम था। __ "पांचवें जनेऊ, व्याह और उनके जीमन सब कौम केवास्ते हरसाल एक ही दिन और एक ही मुहूर्त पर मुकर्रर किये जाते हैं, कि जिससे गरीब आदमियों का निभाव हो जाता है।" -*पुष्करणे ब्राह्मणों में सती होने की प्रथा । __इस देशमें द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्यों ) में सती होने की प्रथा परम्परासे चली आती है । तदनुसार पुष्करणे ब्रा. मणों में भी सतियें होती आई हैं । जैसे जोधपुर के चण्डवाणी जोशियों की एक कन्या बोहगजातिके एक लड़केको व्याही थी। एक दिन रात्रिके समय वह कन्या ममुराल में रहने के लिए गई। किन्तु उसका पति (लड़का) अपने सोनेके स्थानका द्वार भीतरसे बन्द करके पहिले हीसे सो रहा था, इसलिये लज्जाके मारी पतिसे द्वार न खुला के रातभर कमरे के For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ द्वारके पास बाहर ही सोती रही। सवेरा होते ही यहतो शीघ्र उठकर अपनेपाहरको चलींगई। औरउधर लड़का उठकर तापी नानकबाबड़ीमें स्नान करने गया। वहांव देव योगसे उसमें डूब गया। इसको निकालने के लिये दूसरा मनुष्य जल में घुसा तो वह भी डूब गया । ऐसे एकके पीछे एक करके ७ मनुष्य डूब गये । इस बात को दैवकोप समझकर पीछे तो लोगोंने और किसीको भी जल में नहीं घुसने दिया। किन्तु अन्त में वे७ मनुष्य तोमर हो गये। उस कन्या के पति के जल में डूब मरनेका समाचार कन्या के पीहरवालों को पहुँचने से पहिले ही उस कन्या के हृदयमें इस वातकी स्फुरणा हो गई थी। फिर वह कन्या स्नान कर पवित्र वस्त्र तथा आभूषण पहिन के 'सती' होने को ससुराल में आ खड़ी हुई और उस बाळक पति के साथ सती हो गई । उसकी छत्री जोधपुर में सिवानची दर्वाज़ेके भीतर है; और प्रति वर्ष उस तिथिको उनके दोनों वंशवाले वहां पर जाके उत्सव करते हैं । इस प्रकार लुद्रबा, आशनीकोट, जैसलमेर आदि से लेके जहां २ पुष्करणे ब्राह्मणों का निवास स्थान रहा है वहां २ पुकरणे ब्राह्मणों की सतियोंपर की कई छत्रिये अद्यावधि विद्यमान हैं; और उनके वंशत्राले उनकी मानता करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु उन सतियोंने जोर कार्य करने की मनाई की थी उनका 'यों को भी आजतक वे नहीं करते हैं। यहां तक कि यदि वे कार्य भूल से भी हो जाँय तोभी उनका कु फल तुरन्त जतला देता है । ऐसे कई सतियों का चमत्कार आजतक देखने में आता है। अकवन्तः जबसे सती होने की प्रथा इस देश में राजाज्ञासे बन्द करदी गई है तबसे पोछे तो पुष्करणों में भी सती होने नहीं पाती है । For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३ पुष्करणे ब्राह्मणों का निवास स्थान । इनके पूर्वज बहुत प्राचीनकाल से सिन्ध देशमें निवास करते थे । ऊपरी सिन्ध देश की 'आलोर' वा 'आरोर' नामकी पुरी प्राचीन राजधानी वहां के राजाओं का मुख्य स्थान, शिकारपुर जिले में ' शेहरी ' वा ' रोहड़ी' नामक स्थानसे ३ कोश पूर्व, सिन्धु नदीके पुराने मार्गके किनारे, मुलतान से भी चढ़ी बढ़ी थी । वह उत्तर में काश्मीर, पश्चिम में सिन्धु नदी, दक्षिणमें समुद्र, और पूर्व में मरुस्थल - इनके मध्य में थी । पुष्करणे ब्राह्मण वहां के राज्यकर्त्ताओं के वंश परम्परा के पुरोहित ( कुलाचार्य) होनेसे उस 'आलोर वा आरोर पुरी' में भी अधिकता से बसते थे । * विक्रम संवत् के प्रारम्भ से २७० वर्ष पहिले यूनान देश के बादशाह 'सिकन्दर' ने इस देशपर चढ़ाई किई तो प्रथम पञ्जाबके राजाओं पर जय प्राप्त करके फिर सिन्धकी ओर बढ़ा। उस समय आलोर * 'आलोर' वा 'आरोर' में पहिले यदुवंशियों का और पीछे पँवारों का राज्य रहा । वे दोनों ही पुष्करणे ही ब्राह्मणों को अपने पुरोहित मानते थे । वहां के 'साहिर' नामक पँवार राजापर फारस देशकी सेना चढ़ आई तो उसके साथ युद्ध करके वह राजा मारा गया और उसका 'रायशा' नामक पुत्र गद्दी बैठा | इससे कई पीढ़ी पीछे 'दाहिर' नामक अन्तिम - बार राजा संवत् ७७४ में ईरानके हाकिम हिजाज की भेजी हुई सेना के नायक मुहम्मद कासिमके साथ युद्ध करके स्वर्ग सिधारा तब उसकी रानी व पुत्र वधू अपने देश, जाति, व धर्म के मानार्थ प्रज्वलित चिता में प्रवेश कर गई । For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के राजाने, जिसको यूनानियोंने मैसिकनोज' करके लिखा है, सिकन्दरके सामने आके उसकी अधीनता स्वीकारकर ली । इममे सिकन्दर भी प्रसन्न हो के आगे चला गया। किन्तु इस प्रकार क्षत्रिय धर्म से विरुद्ध कायरता से एक विदेशी विजेताको शिर झुका कर अपने उच्च कुलको कलंकित कर देनेसे राजाके कुलाचार्य पण्डितों ( अर्थात् राज पुरोहित पुष्करणे ब्राह्मणों) ने राजाको बहुत धिकारा, जिमसे अपने पूर्वजों के आत्माभिमानका स्मरण हो आने में राजाने सिकन्दर की सेनाको, जो वहांपर रही थी, मार भगाई । उम सेनाका ना. यक-प्रतिनिधि शासक-'पीथिन' भागकर सिकन्दरके प्रधान सेनापति 'फ़िलिप्म' के पास जाके बहुतसी सेना ले के पीछा आगया । तथा इस बातका समाचार पाके सिकन्दरने भी पअनी सेनामें से बहुतमी सेना भेज दी । उसके साथ वह राजा बड़ी वीरतासे लड़के अन्त वीर गतिको प्राप्त हुआ। उस युद्ध में वहांके रहनेवाले पुष्करणे ब्राह्मणभी बहुत ही अधिकतासे मारे गये और जो कुछ शेष बचे वे मारवाड़ को सीमापर भाग आये जिनकी सन्तान लुवा आदि नगरो में वस गई। आलोरके अतिरिक्त सिन्धके अन्यान्य राजाओंने भी इसी प्रकार सिकन्दरसे युद्ध किया था जिससे क्रोधित होके सिकन्दरने वहां पर लाखों मनुः ज्य कतल करवाके मिन्ध देशको स्मशान भूमि बना दिया। उस समय सिन्ध देश मानो एकवारगी पुष्करणे ब्राह्मणों से भी शू. न्यसा हो गया था । उस आलोर नगरके युद्ध के समय जो पुष्करणे ब्राह्मण मारे गये उनमें अनेकों की स्त्रियें सती हो गई थीं जिनकी छत्रिय सं०१०१९ तक तो विद्यमान थीं। परन्तु उसी व. For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२५ में एक ऐसा भारी भूकम्प आया कि उस नगर्गको धराशायी बना देनेके साथ उन छत्रियों का भी नाम निशान मिटा दिया। किन्तु उन सतियों के गौरवको तो वह भूकम्पपी नहीं मिटा सका, अर्थात् यद्यपि उन मतियोंको हुए आज २२३६ वर्ष व्यतीत हो गये हैं किन्तु उनके नामके गीत पुष्करणों में उसी प्राचीन सिन्धी कहीं आजतक भाषामें गाये जाते हैं, जिनके सुननेसे उन सतियों को महिमाके साथ पुष्करणे ब्राह्मणोके माचीन निवासस्थान 'आलोर' पुरीका भी स्मरण हो आता है। इस समय पुष्करणे ब्राह्मणोंका निवासस्थान (१) सिन्ध, (२) कच्छ, (३) गुजरात, (४) खानदेश, (५) पञ्जाब, (६) द्याट, और (७) मारवाड़ है। इन्हीं देशोंके कारण इनके सात समुदाय बनगये हैं। (१) कराची. हैदराबाद (सिन्ध), शिकारपुर, नगरठठा, सक्खर, टण्डा, नासरपुर, खैरपुर, रोहड़ा, स्याहबन्दर, सेहवण, आदिके सिन्धी; (२) माँडवी, लखपत, नारायण मरोवर, आशापुर, भुज, अंजार आदि के, तथा काठियावाड़ के पोरबन्दर, जामनगर, खम्मालिया आदि के, तथा पच्छु काँठा, सोरठ, गोलवाड़ आदिके ये सभी कच्छी; (३)पाटन, अहमदाबाद, बडौदा, और सूरत आदिके गुजराती; (४) बुरहानपुर, वीजापुर. जलगाँव धरणगाँव, और अमरावती आदिके खानदेशी; (५) लाहोर, मुलतान, मूनाबाद, बहावलपुर, वन, डेराइममाइलखाँ और डेरागाज़ीखाँ आदिके पञ्जाबी; (६) उमरकोट, मिडी, छा. छरा, और चेलार आदिके धाटी; और(७) जैसलमेर, विक्कूपुर, पोकरण, फलोधी, जोधपुर, पाली, नागौर, मेड़ता, बीकानेर, अजमेर, कृष्णगढ़, और जैपुर आदिके मारवाड़ी समुदायके हैं। For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - यद्यपि देश भेदमे इनके समुदाय तो पृथकर हो गये हैं त. थापि इन सबके आचार विचार, खान पान आदि सम्पूर्ण व्यवहारों में अपनी 'द्राविड़ सम्पदाय' के अनुकूल जाति मर्यादा जो इनके प्राचीन निवासस्थान सिन्ध देशमें थो उसी मर्यादाका पालन अब भी सर्वत्र ही एकहीसा होता है। इसी लिये इन सब में परस्पर एक दूसरेके साथ भोजन व्यवहार रखने में तो कोई भी आपत्ति नहीं करता है। हां बहुत दूर देशोंके कारण आने जाने में अमुविधा तथा आपसमें परिचय न रहनेसे खुल्लम खुल्ला कन्या देने में अलबत्ता संकोच करने लग गये हैं (जैसाकि अन्यान्य ब्राह्मणों में भी होता है। किन्तु विचार करके देखा जाये तो परोक्ष रुपसे तो कन्या देने लेने का व्यवहारभी सभी समुदायों के साथ सदासे चला आता है । जैसे:___मिन्धियोंका कच्छी, पञ्जावी तथा घाटियों के साथ; कच्छि. या सिन्धी, गुजराती, खानदेशी तथा धाटियोंके माथ; गुजरा. तियोंका कच्छी, सिन्धी तथा खानदेशियोंके साथ; खानदेशियों का गुजराती, कच्छी तथा सिन्धियों के साथ; पञ्जावियों का सिन्धियोंके साथ; धाटियों का सिन्धी, कच्छी तथा मारवाड़ियों के साथ; और मारवाड़ियोंका धाटियों के साथ कन्या देने लनेका ____ * पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति मर्यादानुसार एक तो हत्यारा ( मनुष्य मारनेवाला) और दूसरा नालभ्रष्ट ( मद्यमांस आदि अभक्ष्य खानेवाला वा अ. न्य जातिके साथ भोजन करनेवाला ) जातिमें नहीं रह सकता औरन उसके साथ जातिका कुछ सम्बन्ध ही रहता है । जैसे:-मारवाड़में कबूतर खानेवाले और पजाबमें डेरागाजीखाके आसपासके सिन्धु पुष्करणे कहलाने वाले पु. करणे जाति मर्यादाका उल्लंघन कर देनेसे जातिसे पृथक् कर दिये गये थे मो उनकी सन्तान भी आजतक जाति से बाहर ही है। For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૭ सम्बन्ध प्रायः होता ही है । यदि यह बीचका भेद निकाल कर सब के साथ एकसा व्यवहार प्रचलित कर दिया जाये तो पुष्करणों के लिये क्या ही उत्तम हो। पुष्करणे ब्राह्मणों की स्थिति । ब्राह्मणोंका मुख्य भूषण सन्तोष है। पुष्करणे ब्राह्मण भी सदासे सन्तोषी तथा निस्पृही (निर्लोभी) होते आय हैं । सैकड़ों वर्ष पहिले जब इनके पूर्वज सिन्ध देश में निवाम करते थे तब वहां की प्रधान नगरी व इनके यजमान राजाओं की प्रधान र. जधानी 'आलोर' वा 'आगेर' में भी अधिकतासे वमते थे। वहां के सभी मनुष्य १२५ वर्ष से भी उपरकी आयुके वृद्ध होने पर भी हष्ट, पुष्ट और बलिष्ट होते थे। यह सब उनके ब्रह्मचर्य और नियमित रूपसे जीवन चर्या निर्वाह करने का फल था । वहांके युवा पुरुष अपना सब कार्य अपने ही पौरुषके साथ सम्पादन करते थे। उन्हें किसी सेवक (नौकर) के सहारे जीवन बिताने को धान ( आदत ) वा आवश्यकता नहीं थी, और इसीलिये उस देश में दास दासी (गुलाम ) बनाने की प्रथा नहीं थी ।* वेध घोका भोजन अधिक करते थे। वे बड़े दूर दर्शी व देश काळके पूर्ण ज्ञाता होने से सबके भले में अपना भला समझने थे। वे जाति मर्यादा के भी ऐसे पक्के थे कि साधारण से साधारण नियमका भी उल्लङ्घन नहीं करते थे । उस देश में दीवानी मु. * इस समय भी पुष्करणे ब्राह्मणों में राज्य कुलाचार्य-पुरोहित वा गुरु तथा राज्य मुसाहिब आदि राज्य मान्य व श्रीमन्तों की कमी नहीं है, तथापि इनके यहां दास दासी (गोले गोली) रखने की प्रथा नहीं है। - - For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहमोंके फैमल करने के लिये अदालतें रखने की आवश्यकता नहीं थी। केवल जघन्य अपगों (उपद्रवों)को जाँच के लिये कुछ पञ्च नियतथे । वे धन को भी संग्रह करनेकी अपेक्षा परोपकारी कार्यों में लगा देने को उत्तम मानतेथे। वह देश सोने और चाँदी की खानों से खाली नहीं था, परन्तु वे इन धातुओं को बहु मू. ल्य जानते हुये भी इनका व्यवहार शारीरिक शक्ति की उन्नतिके लिये बाधक होनसे इनको छूने भी नहीं थे। जिसके कारण स्वजाति में राज्य मान्य श्रामन्तों और साधारण लोगों में विवाह आदि के समय कुछ भी भेद प्रतीत नहीं होता था ।* इत्यादि पुष्करणे ब्राह्मणों में जाति सम्बन्धी किसी भी प्रकार का मुकदमा कभी भी राज्यमें नहीं ले जाते हैं, किन्तु ये उसे अपनी जाति ही की पञ्चा यतसे निपटा लेते हैं। *इस समय भी पुष्करणे ब्राह्मणों में श्रीमन्तो की कमी नहीं है और न सोने चाँदी के गहनों ही की कमी है । तथापि पुत्र वधूको विवाह हो मानेके पीछे तो चाहे सहस्रों ही का गहना भलेही पहनादें किन्तु विवाह के समय प्रथमही प्रथम तो प्राचीन रीत्यनुसार एक तो 'पहावीटी' नामक चाँदी की अंगूठी और एक 'फूलघूवर' नामक शिर में गूंथनेका चाँदीका फूलयेही दो छोटे से ग ने देते हैं, और जिनका मूल्य भी ।-) पांच आने से भी कम ही होता है । अतः ऐसी समृद्ध शालिनी होमेपर भी इस जाति में इतने कम मूल्यके केवल चाँदी के गहने जो प्राचीन सिन्धी भाषा के नामवाले है-देख कर क्या यह निश्चय महीं होता कि इनके पूर्वज सोना चाँदी आदि बहु मूल्य धातुओं को छूने भी नहीं थे । जिससे विवाह आदि में राज्यमान्य श्रीमन्तों और साधारण लोगो में कुछ भी भेद प्रतीत नहीं होता था । For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकार के अनेक शुभ गुणों से तो विभूषित और ईर्षा, द्वेष, अ. पिमान, मिथ्या पक्षात आदि अवगुणों से वे रहित थे। विक्रम संवत् के प्रारम्भसे २७० वर्ष हिले यूनान देशके वादशाह सिकन्दरने इस सिन्ध देश पर भी चढ़ाई करके वहांका राज्य नष्ट कर दिया था। उस समय के वहाँ के निवासियों के पूर्वोक्त गुणों की सच्ची महिमा मिकन्दर के साथी यूनानी इतिहास लेखकोंने भी बड़े आनन्द और आश्चर्यजनक शब्दों में की है, जिसे आज २२३६ वर्ष व्यतीत हो । गये हैं यद्यपि इतने अधिक समय में बहुतसा परिवर्तन भी हो गया है, तथापि यूनानी इतिहास लेखकों के कथन की सत्यता के कई प्रमाण इस जातिमें अब तक पाये जाते हैं। उन्हीं गुणोंकी विद्यमानताक लिये इस जातिकी महिमा 'रिपोर्ट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ के पागतो. सरे के पृष्ठ १६२ में भी विस्तार से की है (देखो इस पुस्तक का पृष्ठ १२० वां)। जाति मर्यादाकी प्राचीन सुरीतियों के पाल नकी आवश्यकता । यात्रा करनेवाले लोग अपने मुविधे के लिये बहुतमे लोगों का संघ (मयूह) बनाके यात्रा करते हैं। उस संघके प्रशन (आगीवान) यदि धनाढ्य लोग हों तो उस संघकी विशेष शोभा दीखती है। उस संघके नियम भी ऐसे सीधे सादे बनाये गये हैं कि जिससे अशक्त लोगोंका भी सुख पूर्वक निर्वाह हो जाता है । संघके प्रधानों में अकेले ही आगे बढ़ जानेकी सामर्थ्य होने पर भी वे अपने संघके अन्य सर्व साधारण लोगों को पीछे For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० छोड़कर आप अकेले आगे चले जाना नहीं चाहते हैं। यहां तक कि कोई विशेष अशक्त हो जावे तो उसे भी अपने साथ निवाह लेते हैं | परन्तु यदि उस संघ के प्रधान सर्व साधारण को बोचही में छोड़कर आप अकेले अपने में सामर्थ्य होनेसे आगे चले जावें तो उस संघर्षे बड़ी खलबली मच जावे और उन संगवालोंको भी लाचारन उनके पीछे २ भागना पड़े । परन्तु सर्व साधारण में घनाढ्यों कीसी सामर्थ्य न रहने के कारण बहुत भागने पर भी अन्त तक वे उनके बराबर नहीं पहुँच सकते जिमसे बेन तौ इधर के रहते हैं और न उधर के । उस समय संघके प्रधानों की तो महान् अपकीर्ति और सर्व साधारण को अत्यन्त्य क्लेश भोगना पड़ता है । ठीक वैमी ही दशा जाति समूहों की भी है। क्यों कि जाति समूह भी तो एक प्रकारसे संसाररूपी महायात्रा का संघ है; और जाति में के धनाढ्य लोग उसके प्रधान ( आगीवान ) हैं; और जाति मर्यादाकी सुरीतियें उस संघ में के सर्व साधारण तथा अशक्त लोगों के निर्वाह होनेकी नियमावली है. । पहिले के धनाढ्यों में इस समय के घनाढ्यों की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य रहने पर भी वे लोग सर्व साधारण के संघमें रहने ही में अपना गौरव (बडप्पन) समझने थे। परन्तु महान् व अत्यन्त्य खेद है कि आजकल के कितनेक अविचारवान धनाढ्य लोग आगे पोछे का कुछ भी सोच न करके केवल अपनो श्रीमन्ताईकी नकली शोभा दिखलाने और फ़ज़ूल ख़र्ची करने वालों मे थोथा नाम पाने की आशा में सर्व साधारण का संघ छोड़कर आप आगे बढ़ जाते हैं; अर्थात् विवाह आदि के समय जाति मर्यादाकी मा चीन सुरीतियों का उल्लंघन कर देते हैं। और सर्व साधारण में For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ उनकी बराबरी करनेकी सामर्थ्य न होनेपरभी उनकोभी लाचारन उन्हीं की देखादेखी करके बहुत क्लेश उठाना पड़ता है। उन कोही नहीं किन्तु अन्तमें स्वयं उन धनाढ्यों तथा उनकी सन्तानको भी अत्यन्त कष्ट सहना पड़ता है। यहां पर क्षमा माँगकर यह कह देना अनुचित न होगा कि पुष्करणों में विवाह आदि के समय प्राचीन मुरीतियों का अनादर करने वालों में तो विशेष शूरवीर जोध. पुर की न्यात और प्राचीन मुरीतियों का किसी कदर अब तक भी पालन करते रहनेवालों में विशेष धन्यवाद के भागी जैसलमेर की न्यात मानी जाती है। यदि सभी जगह जैसलमेर ही की न्यात कासा प्रवन्ध दृढ़ बना रहा होता तो इस जाति के लिये वया कुछ कम सौभाग्य की बात थी ? विशेष ही विचार का स्थल है कि जिस समय ऐसी सीधी सादी रीतियें चलाई गई थीं उस समय धन स ह रखने की उतनी आवश्यकता नहीं थी जितनी कि इस समय है क्योंकि प. हिले जिस भावस अन्न मिलताथा अब उस भाव इन्धन-वलीता (लकड़ी छाने)-भी नहीं मिलता है, पहिले जिम भाव में धो मिलता था अब उस भावसे दूध भी नहीं मिलता है, पहिले जि. तने में कपड़े बनतेथे अब उतने में सिलाई भी नहीं सझती है। अत: एक ओर तो इस प्रकारकी महँगाई होती जाती है और दूमरी और आमदनी में भी कमी होती चली जाती है । तिसपर भी तुर्ग यह है कि आजकल की नकली शोभा के लिये दिन दूनी और रात चौगुनी फ़जूल खर्ची भी बराबर बढ़ती ही जाती है। परन्तु - *यहांपर कोई ऐसा ख़याल न करलें कि पहिले इतना द्रव्य नहीं था तभी, ऐसी २ कृपणता ( कंजूसी ) की रीतियें चलाई होगी । किन्तु ऐसा For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir સર पीछेसे ऐमे फजूल खर्ची करनेवालों ही को नहीं किन्तु उनकी सन्तानको भी कैसे २ कष्ट भोगने पड़ते हैं वे किसी से भी छिपे हुये नहीं है । फिर भी इस पर ध्यान नहीं देना कितनी भूल है ? पर किसी कविका कथन है कि: 1 बोती ताहि विसार दे, आगे की सुध लेप | जो बनि आवे सहज में, तादी में चित देय ॥ अर्थात् जो बात बीत चुकी उसकी चिन्ता छोड़कर आगे के लिये उचित प्रबन्ध करना ही बुद्धिमानों का काम है । अतः स्वजाति के शुभचिन्तक महानुभावों व राज्यमान्य श्रीमन्तों, विद्वानों, तथा वृद्ध पुरुषों आदि पञ्चों को चाहिये कि विना विलम्बके प्रचलित कुरीतियों का तो संशोधन * और प्राचीन सुरीतियों अ ख़याल करनेवाले यदि एक ही वातपर दृष्टि डालेंगे तो उनका यह भ्रमस्त्रयं ही दूर भाग जावेगा कि पहिले इतना द्रव्य नहीं होता तो लक्ष भोज, शेष भोज ( सहस्र भोज ) आदि कार्यों में क्यों कर असंख्य द्रव्य लगा सकते थे ? और नाधाजी व्यास जैसे महानुभाव क्यों कर लक्षों ही रुपये परोपकारी कार्यों में धर्मार्थ लगाकर अपनी अटल कीर्त्ति छोड़ जा सकते थे! इससे निश्चय है कि वे सुरीतियें धनके अभाव वा कंजूसी आदि से नहीं किन्तु सर्व साधारण के भले के लिये बड़ी बुद्धि मानी से बनाई गई थीं । * जोधपुर में कल्लोंने अपने कुटुम्ब के लिये एक 'विवाह प्रबन्ध निय मावली' बनाई है। जब वह बन रही थी तब आशा की गई थी कि इसके बन जाने से अन्यान्य लोग भी इसे स्वीकार करलेंगे जिस से सर्व साधारण का निर्वाह भले प्रकार से हो सकेगा । परन्तु वह आशा नियमावली जैसी चाहिये वैसी नहीं बनी इससे वह केवल मानमी आशा ही हुई। इस नियमावकीको सर्व साधारण के उपयोगी न कहकर यदि अपव्यय करनेवाले धनाढ्यों को अपकीर्तिसे बचानेके लिये ढाल कहदें तो भी अनुचित न होगा | For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का पालन करनेका उचित व दृढ़ प्रबन्ध कर दें जिससे इस जा. तिकी महान् कार्ति सदाकाल बनी रहे । इसके उपरान्त सर्व साधारण लोगों को भी चाहिये कि वे भी अदूर दर्शी धनाढ्यों की देखादेखी उनके पीछ २ न भागे किन्तु अपने संघके समूह ही में दृढ़ बने रहें ताकि आगे बढ़नेवाले धनाढ्यों को भी अपनी भूल पर पश्चात्ताप करके आपके संघमें पीछा लैट आना पड़े। मेरे लिखने का तात्पर्य यह नहीं है कि कोई धन्याढ्य लोग विवाह आदि के समय धन ख़ ही नहीं। वे अवश्य ख़र्चे परन्तु अपनी असली सायानुमार इस प्रकारसे ख़र्चे कि जिससे प्राचीन सुरीतियों का भी पालन हो सके और धन खर्चनेवालों का भी पीछे से पछताना न पड़े। ऐसा करने से धनाढ्यों की भी कीर्ति बढ़ेगी और सर्व साधारण को भी कष्ट भोगना न पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि आप सचमुच धन खर्चनेकी सामर्थ्य है तो स्व जातिकी उन्नति के लिये विद्यालय, औषधालय, अनाथाळय, विधवाश्रम, आदि ऐसे २ परोपकारी कार्यों में खर्च जिससे कि आपकी निर्मल कीर्ति सर्वदा चमकती रहे। इसी प्रकार पिछले थोड़े से समयसे विवाह श्रादि के समय अशुभ तथा गन्दे शब्दों से दूषित गालियें (सीटने ) गाने की जो कु प्रथा चल पड़ी है उसका भी उचित प्रबन्ध होने की परम आवश्यकता है। क्योंकि हमारे धर्म शास्त्रों में प्रतिदिनकी बोलचाल में भी अशुभ शब्द बोलने की सख्त मनाई कि.ई है। इसीलिये कोई वस्तु खुट जाय तो 'खूट गई' नहीं कहते किन्तु 'बधै है ऐसा कहते हैं, दीपक बुझ जाय तो 'बुझगया' नहीं क For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इते किन्तु 'बड़ा हो गया' वा 'राज हो गया' कहते हैं, चूड़ी टूट जाय तो 'टूट गई' नहीं कहते किन्तु वधर गई' वा 'बड़ी हो गई कहते हैं, दर्वाना बन्द करनेको 'बन्द करना नहीं कहते किन्त 'मंगल करना' वा सभीड़ करना' कहते हैं, यहां तक कि मनुष्य मर जावे तो 'मर गया' नहीं कहते किन्तु 'पीछा हो गया' कहते हैं । जब कि ऐसे साधारण कार्यों तथा मृत्यु जैसे अमंगलीक अवसरों में भी एक भी अशुभ शब्द उच्चारण नहीं करते हैं तो फिर विवाह जैसे अत्यन्त शुभ तथा मंगलीक कार्य के समय सहखों अशुभ शब्दों से लबालब भरी हुई गन्दी गालिये ( सीठने) गाना कितना हानिकर है ? ..सम्बन्धियों की ठठा मसखरी करने की प्रथा तो बहुत मा. चीन काल में भी थी परन्तु वह इस समय की भाति दूषित नहीं थी जिसके प्रमाण में उदाहरण स्वरूप सिन्धी भाषाकी एक गा. लीकी टेर यहाँ लिखता हूं जो कि पुष्करणे ब्राह्मणों में विवाह आदि के सपय रसमके तौर पर आजतक गाई जाती है । वह यों है:-"इयरी जोय बखाणीवे" अर्थात् हमारे सम्बन्धी (स: गोजी) की स्त्री की लोगों में प्रशंसा हुई है। इस गालीके प्रत्यक्ष अर्थ में तो उनकी स्त्रीकी तारीफ़ ही है किन्तु इसीका व्यंग अर्थ मसखरी का काम दे जाता है । अतः कहां तो ऐसी २ परदेकी प्राचीन गालिये और कहां आनकलकी प्रचलित दूषित और खुल्लम खुल्ला अश्लील गालियें ? अतः ऐसी २ कुप्रथाओं पर भी ध्यान देने की परम आवश्यकता है। For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थान२ में जाति सभाओंको आवश्यकता। आप जानते हैं कि इस समय जिस प्रकार किसी उद्देश्यसे सभा सोसाइटियें बनाई जाती हैं उसी प्रकार पूर्व काल में जातियें बनाई गई थीं। अतः अन्यान्य जातियों की भाँति ब्राह्मणोंमें पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति भी माचीन काल की एक सभा है अर्थात् पुष्करगे ब्राह्मण मात्र तो उसके सभासद् और जातिमें जो पञ्च, चौधरी, चोहटिया आदि हैं वे उसके मुख्य सभासद हैं । इस जाति मर्यादाकी ऐक्यता से बे परस्पर सहानुभूति रखते थे जिससे इस जातिकी अनेक शुभकामनाएं पूर्ण होती थीं। परन्तु इस समय कितनेक लोगों के परस्परकी ईर्षा, द्वेष, अभि. मान, आदिसे एक दूसरे के विरुद्ध मिथ्या पक्षपात करने लग - जानसे उनकी पञ्चायतें प्रायः शिथिल हो गई ( ढीली पड़ गई) हैं जिस से इस जातिकी जो हानि हो रही है वह किसी बुद्धिमान्से छिपी हुई नहीं है । अतः इस हानि को रोकने के लिये उन पञ्चायतों को पोछो दृढ़ (मज़बूत ) बनाने के निमित्त समस्त पुष्करणों को चाहिये कि इस जाति का जहां २ निवास स्थान है वहां २ 'पुष्टिकर हितैषिणी' सभा स्थापित कर दें (जैसी कि पहिले जोधपुर में स्थापित किई गई थी)। और न्यात में जो सदासे पञ्च माने जाते हैं उन्हीं को तो सभाके मुख्य सभासद तथा सभाकी उन्नति चाहने वालों को सहायक सभासद् बनावें और पुष्करणे मात्र तो सदाभे इस सभाके सभासद बने ही हुये हैं। इसके उपरान्त जहां २ न्यात के घर अधिक हो वहां२ प्र. त्येक खाँप २ को भी एकर शाखा सभा बना ( जैसी कि जो धपुरमें कल्लोंने 'सिद्भुकुल भूषण' नामकी शाखा सभा बनाई है। For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ इस प्रकार प्रबन्ध करने पर जाति में पुन: ऐक्यताकी वृद्धि द्वारा परस्पर एक मरे के साथ महानुभूतिका पचार होगा जिससे जातिकी उन्नति होने में हा एक प्रकारकी सहायता मिलेगी। परन्तु साथमें यह भी ध्यान रहे कि केवल नाम मात्रकी सभाएं स्थापित करनेहीसे तो उन्नति नहीं हो जायगी किन्तु उन्नति तो उस सभा द्वारा उद्योग करने होंसे होगी। आशा हैकि आप मेरे इस निवेदन पर अवश्य ध्यान दे के धन्यवाद के पात्र बनेंगे क्योंकिस जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ वैसे तो यहमसारही परिवर्तन शील होने मे इस में जन्म लेने वाले सभी एक न एक दिन अवश्य ही मृत्यु के मुख में चले जा. वेंगे, परन्तु इम में जन्म लेना सार्थक उन्हीं महानुभावोंका है कि जिनके जन्म लेने से स्वजाति की उन्नति हो सके जिससे उनका नाम तो मृत्यु के मुख में न जावे अर्थात् उस कीर्तिके साथ उनका नाम अमर हो जावे। आजकल अंग्रेज सरकार के शान्तिमय राज्य में जबकि स. मस्त जातियें अपनी उन्नति करने में जीजानसे प्रवृत्त हो रही हैं, ऐसे उत्तम समय में सदासे उन्नति करनेवालो पुष्करणे ब्रा. ह्मणों की जाति गाद निद्रा में सोती रहे यह क्या कम लज्जाकी वात है ? अतः समस्त पुष्करणे ब्राह्मणों को चाहिये कि विना विलम्ब के स्वजाति की उन्नति के कार्य साधन में शीघ्र प्रवृत्त हो जाये ताकि इस जातिके उन्नत शोल पूर्वनों की महान् कीत्ति का गौरव सदाकाल बना रहे । For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३७ पुष्करणे कहलानेका शास्त्र प्रमाण । स्कन्द पुराणान्तर्गत श्रीमालक्षेत्र माहात्म्बसे उद्धृत । स्कन्द पुराणान्तर्गत श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्यकी कथा कई अध्यायों में वर्णित है । जिस में श्रीमाली और पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वजों का वृत्तान भी है। उसमें से पुष्करणे ब्राह्मणों का संक्षिप्त वृत्तान्त 'पुष्करणोपाख्यान' नामक पुस्तकमें एकत्र किया गया है। उसी प्रकार मैं भी उसी श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्यकी कथा में के पृथक् २ स्थलों से पुष्करणे ब्राह्मणों के सम्बन्धकी कथा के थोड़से चुने हुये मुख्य२ श्लोक सारांश अभिप्रायार्थ सहित यहाँपर लिखता हूं जिससे पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वज सिन्धी ब्राह्मणों के पुष्करणे कहलाये जाने लगनेका कारण विदित होगा। स्कन्द उवाच । देव देव पुनर्वृहि भूभागं किञ्चिदुत्तमम् । यत्र ब्रह्मादयो देवा वसिष्ठाद्यास्तपोधनाः ॥ क्रीडन्ति मातरः सर्वाः कुमारैः सह यत्र च । एक समय स्कन्द ( स्वामि कार्तिक ) ने श्री महादेवजी से कहा कि हे देवाधिदेव ! इस भूमिपर जहां ब्रह्मादि देवता, व. सिष्ठादि तपस्वी, और कुमारों के साथ मातृ देवता भी क्रीड़ा करती हैं उस उत्तम भाग का वर्णन कीजिये। महादेव उवाच । साधु पृष्टं त्वया वत्स भागं श्रेयस्करं भुवः । प्रवक्ष्यामि यथावत्त्वं शृणुष्व गदतो मम ॥ For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयोध्याऽधिपतिः श्रीमानासीदतुलविक्रमः । युवनाश्वसुतो राजा मान्धातेति श्रुतो भुवि ॥ दृष्टिमार्गादेवमुनिर्वसिष्ठः सह भार्यया । तमर्चादिभिरभ्यर्च्य काकुत्स्थकुलदैवतम् ॥ प्रणिपत्य महोपालः कृताञ्जलिरथाब्रवीत् । महादेवजी कहने लगे कि एक समय अयोध्याधिपति यु. वनाश्वका पुत्र 'मान्धाता' नाम बड़ा प्रतापी राजा वसिष्ठ मुनिको अरुन्धती सहित आते देखके प्रणाम पूर्वक उनकी पूजा करके नम्रता सहित कहने लगा । भान्धातोवाच । यतः प्राप्तोऽसि भगवन् प्रदेशान्मुनिवत्सल ॥ तन्निवेदय में सर्व श्रवणा होस्मि चेन्मुने || मान्धाता पूछने लगा कि हे महामुने आप जिस स्थान से मेरे घर पधारे हैं वह स्थान, यदि मैं श्रवण करने योग्य होऊं तो, मुझे कहिये । वसिष्ठ उवाच । अर्बुदारण्यमतुलं तीर्थ कोटिसमन्वितम् । श्रुतं यदि भवेद्रूप पृथिव्यां पावनं परम् ॥ यत्प्रसादेन पद्मायाः पञ्चकोशप्रमाणतः । श्रीमाल क्षेत्रमित्यासीद्विश्रुतं भप भूतले ॥ राजा का प्रश्न सुनके महर्षि वसिष्ठजी कहने लगे कि राजा तुम्हारे सुननेमें आया होगा कि पृथ्वी में करोड़ों तीर्थों से युक्त For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवित्र अर्बुदारण्य है । वहां लक्ष्मीजी की कृपासे पाँच कोश के घेरे में श्रीमाल नामका क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ है । क्यों कि:पुराभूगोः समुत्पन्ना ख्याता श्रीः किल भूमिप । अद्वैतरूपिणी कन्या प्रवुद्धाऽम्बुजलोचना ॥ अश्र कमलसम्नवानुयोगात् ।। कृशानौ ज्वलति सति सनातनः। देवो भृगुदुहितूपाणि पुण्डरोकम सह मनसा संगृहीतवानोशः ।। उस क्षेत्रमें लक्ष्मीजीने भृगु ऋषि के गृह में कन्या का रूप धारण किया था जिसका विवाह श्री भगवान के साथ हुआ। श्रीरुवाच । इमां भूमि प्रदास्यामि ब्राह्मणेभ्यः समादिता । अत्रांशेन ममैवास्तु निवासः शास्वती समाः ॥ उस विवाह के अन्त में श्रीलक्ष्मोजीने श्रीभगवान् से कहा कि मैं यह भूमि ब्राह्मणों को देके एक अंश से बहुत समय तक यहां निवास करना चाहती हूं। श्री भगवानुवाच । इत्याख्याय चतुर्बाहुरवोचत् स्वगणान् बहन् । ये केचिन्मुनयः सन्ति तेषां पुत्रा यशस्विनः ॥ पुण्यक्षेत्रेश्वरण्येषु ग्रामेषु नगरेषु वा । तानानयत सम्पूज्य ऋषिपुत्रान् सुवर्चसः ॥ For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वसिष्ठ उवाच । विश्वकर्माणमाहूय प्रोवाचेदं वचस्तवा ॥ अत्र सौधानि दिव्यानि कुरु क्षिप्रमतन्द्रितः॥ - इस वासको सुनकर भगवान्ने देश २ के तीर्थों, अरण्यों, नगरों, व ग्रामों से ब्राह्मणों को लाने के लिये अपने दूत भेजे और विश्वकर्मा को एक बहुत सुन्दर नगर बनानेकी आज्ञा दी। श्रियमुद्दिश्य मालाभिरावृता भूरियं सुरैः ॥ ततः श्रीमालनाम्ना तु लोके ख्यातमिदं पुरम् ॥ लक्ष्मीजी के उद्देश्यसे देवताओं ने उस क्षेत्र को मालाओं से व्याप्त कर दिया । इसलिये वह नगर श्रीपाल नामसे प्रसिद्ध हुआ। .आश्रमेभ्यः समानिन्युर्मुनि पुत्रान् सुवर्चसः। सर्वे वेदव्रतस्नाताः कुतदारपरिग्रहाः ॥ वे भगवान् के दूत अनेक तीर्थाश्रमों से वेद जानने वाले, व्रत करने वाले और विवाह किये हुये मुनि पुत्रों को स्त्रियों सहित ले आये। आगतं सैन्धवारण्याद्राजन् पञ्चसहस्रकम् । मुनीनां वेदवेत्तृणां ब्रह्मविद्याविशारदाम् ॥ उन में वेद और ब्रह्म विद्याके जाननेवाले ५००० ब्राह्मण सिन्ध के अरण्य से भी आये । For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वसिष्ठ उवाच । वयोवृद्धं तपोवृद्ध विद्यावृद्धं तपोधनम् । गौतमं ते पुरस्कृत्य सोमपाः समुपाविशन् ॥ इस प्रकार एकत्र हुये ब्राह्मण वयोवृद्ध, तपोवृद्ध, और वि. धावृद्ध तथा तपस्यारूपी धनवाले गौतम ऋषिको आगे करके आ बैठे। ब्रह्मोवाच । पञ्चाशदिह सर्वेषां सहस्त्राणि द्विजन्मनाम् । . यं वेत्सि वरमेतेषामधं तस्मै कुरु प्रभो ॥ उन ब्राह्मणों के समूह को देखके ब्रह्माजी विष्णु से कहने लगे कि यहां ५०००० ब्राह्मण एकत्र हुये हैं। इन में से आप जिसे श्रेष्ठ मानते हैं उसी को अर्घ प्रदान (पूजा) कीजिये । श्री कण्ठ उवाच । अर्घमेषां हि सद्वृत्तमर्घमेषां हरे कुलम् । तदमोषु वरं मत्वा ददस्वर्घमघोक्षज ॥ इसी प्रकार महादेवजीने भी विष्णु से कहा कि अर्घ ही इनका सत्य व्रत है और अर्घ ही इनकी कुलीनता है । अतः आप इनमें जिसे श्रेष्ठ जानें उसीको अर्घ प्रदान कीजिये । वहस्पतिरुवाच । बयसा तपसा चैव विद्यया ऽऽचरणेन च । एते यमनुमन्यन्ते तस्मै यच्छार्घमच्युत ॥ For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृहस्पतिने भी विष्णु से कहा कि ये ब्राह्मण ही अपने में जिसको वयसे, तपसे, विद्यासे और आचरण से श्रेष्ठ मानें उसी को आप भी श्रेष्ठ मानके अर्घ प्रदान कीजिये । सारस्वता ऊचुः ।। नहायनैर्न वलिभिन वास्य पलितं शिरः। ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनूचानः स नो महान् ॥ विद्यया तपसा चैव वयसाऽऽचरणेन च । देव श्रेष्ठतमोऽस्माकं गौतमोऽर्घमिहार्हति ॥ सारस्वत कहने लगे कि ऋषियों में बड़ा न तो वर्षोंसे. न बुढ़ापेसे, और न श्वेत केश होने ही से होता है। किन्तु ज्ञानवान ही बड़ा होता है । और हममें गौतम ऋषि तो विद्या, तप, आचरण, और आयुमे भी बड़े हैं । अतः अर्घ देने योग्य गौतम ही हैं। आङ्गिरसा ऊचुः । अयमस्मत्कुले श्रेष्ठो वाग्मो वेदार्थवित्तमः । प्रता चागमार्थानामतो ऽर्घ गौतमो ऽईति ॥ इमी प्रकार अङ्गिरस वंशवाले ब्राह्मण भी कहने लगे कि हमारे कुल में श्रेष्ठ, वाणी बोलने में कुशल, वेद का अर्थ जानने वालों में उत्तम और वेदार्थ के अविरुद्ध शास्त्रों के वक्ता ये हो हैं । इसी लिये अर्थ गौतम हो को देना चाहिये । अपर ऋषय ऊचुः । नारायण सुरश्रेष्ठ शङ्खचक्रगदाधर । For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५३ अर्हत्तम परिज्ञाने त्वं प्रमाणमिहासि नः॥ इस प्रकार गौतम की प्रशंसा होने पर कई एक ऋषियों ने कहा कि हे नारायण :, है सुर श्रेष्ट !, हे शंख चक्र गदाधरा !, हे पूज्य ज्ञानवाले ! प्रभु ! इस विषय में हममें आपही प्रमाण हैं। अतः जैसी इच्छा आप को हो वैसाही करें। वसिष्ठ उवाच । इत्येवं हि सुविपेन्द्रैः स्तूयमाने हि गौतमे। ऊचुरीायुताः केचित् सैन्धवारण्यवासिनः ॥ ब्राह्मणों के इस प्रकार गौतम की स्तुति करने पर सैन्धवारण्य के रहनेवाले कितनेक ईाल ब्राह्मण इस वातका विरोध करते हुये बोले कि सैन्धवारण्यवासिनः ब्राह्मणा ऊचुः । भो भो गौतम केनासि श्रेष्ठो ऽस्माकं गुणेन वै। ताहि यदि देवेषु प्रावीण्यमवलम्बसे॥ हे गौतम ! तुम किस गुणसे हममें अधिक श्रेष्ठ हो ? सो कहो । जो ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गिने जाना चाहते हो तो कुछ प्रमाण दो। सर्वे तपस्विनो विप्राः सर्वे तीर्थनिवासिनः । सर्वे पूज्यतमा लोके ब्राह्मणा भूमिदेवताः ॥ तेषां पृथक् पृथक् पूजा कार्या नित्यं सुरेश्वर । एकस्मिन् गौतमे पूज्ये पतिभेदो भविष्यति ॥ तस्मादेकैकशः पूज्या ब्राह्मणाः पुरुषोत्तम । For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ फिर विष्णुसे भी कहने लगे कि हे सुरेश्वर सभी ब्राह्मण तपस्वी हैं, सभी ब्राह्मण तीर्थ पर रहने वाले हैं, सभी ब्राह्मण लोक में पूज्य है और सभी ब्राह्मण भूमि के देवता हैं। इसलिये पना सम्पूर्ण ही ब्राह्मणों की पृथक् २ करनी चाहिये । क्योंकि एक गौतम ही की पूजा करने से तो ब्राह्मणोंकी पंक्तिमें भेद हो जावेगाकि गौतम तो श्रेष्ठ हैं और अन्य सब मिण नेष्ट। अतः हे पुरुषोत्तम ! आपको चाहिये कि पूजा एक २ करके सम्पूर्ण ब्राह्मणों की करें। इति तेषां वचः श्रुत्वाऽहङ्कारवशवर्तिनाम् । राजन्नागिरसाः सर्वे शेपुस्तान् सिन्धुजान् द्विजान्॥ इस प्रकार उनके अहंकारके वचन सुन के सब अंगिरस ब्राह्मणों ने उन सिन्धी ब्राह्मणों को शाप दे दिया। आङ्गिरसा ऊचुः । यथा वच्चरितं प्रोक्तं शतशो मुनिपुत्रकैः । तमृर्षि द्विषतो युष्मान् न वेदः संश्रयिष्यति॥ अंगिरस बोले कि जिस गौतम ऋषिके यथावत् सैकड़ों चरित मुनि पुत्रोंने कहे उस ऋषि से तुम द्वेष करते हो अत:तुम्हें वेद नहीं आयेगा। इत्यमाङ्गिरसैवि प्रैः शप्तास्ते ब्राह्मणा नृप । सिन्धुदेशं तदा जग्मुः सैन्धवारण्यवासिनः ॥ इस प्रकार अंगिरस ब्राह्मणों की ओर से शाप होने पर सैन्धवारण्य के रहनेवाले सभी ब्राह्मण उस यज्ञको छोड़ कर पीछे सिन्ध देश में चले गये। For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गतेषु तेषु विप्रेषु सैन्धवेषु नरेश्वर । गौतमाय चकारार्घमच्युतः सर्वसम्मतः॥ उन ब्राह्मणों के सिन्ध देश में पीछे चले जाने पर सर्व सम्म तिसे भगवान्ने गौतमकी पूजा करके वह नगर उन शेष ४५००० ब्राह्मणों को दे दिया। वसिष्ठ उवाच । कदाचिदत्र दुष्टाऽभूत् सारिका नाम राक्षसी । निशाचर्या तया राजन् श्रीमालं समनुद्रुतम् ॥ इत्यादि कथा कहने के उपरान्त महर्षि वसिष्ठजी मान्धाता नृपतिको कहने लगे कि हे राजा फिर इस श्रीमाल क्षेत्र में जो एक आश्चर्य जनक उपद्रव हुआ, और सारिका नाम की दुष्ट राक्षसीने उस नगरको विध्वंस कर दिया सो मुनिये। पूर्वमाङ्गिरसैविप्रैः सैन्धवारण्यवासिनः । शप्ता ये ब्राह्मणाः क्रुद्धैौतमं प्रत्यसूय च ॥ तर्गत्वाऽऽराधितः सिन्धुरुपवासपरायणैः । परितुष्टोऽथ पायोधिस्तानुवाचेति याचितः ॥ श्रीमालक्षेत्रनाशाय प्रार्थिता तैनिशाचरी । सा द्विजानां सुता जाता वेदिगर्भात् प्रगृह्य वै॥ तया सहस्रशः कन्या गृहीता मनुजेश्वर । कोलः पालयामास पाताले स्वसुता इव ॥ दुःखार्ता सारिका भीता प्रयाता गिरिमर्बुदम् । For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9. शून्यारण्यनिभं चाभूत् श्रीमाले जनवर्जितम् ॥ सा.रकाशं कया कश्चित् तीर्थयात्रां न गच्छति । श्रीमालध्यायिनो नित्यं विश्वसन्ति दिवानिशम् ॥ प्रथम जिन सैन्धवारण्य वासी ब्राह्मणों को गौतमकी ईर्ष्या करने से क्रोधित अंगिग्स ब्राह्मणों से शाप मिला था उसका बदला लेनेके लिये उन्होंने उपवास करके सिन्धु समुद्र ) का आगधन किया, जिसमे समुद्र उनपर प्रसन्न हुआ, और उन्हें याचना करने को कहा | तब श्रीपाल क्षेत्रका नाश करनेके लिये उन्होंने एक राक्षमीकी प्रार्थना किई । वह राक्षसी श्रमाल क्षेत्रमें रहनेवाले उन ४५००० (श्रीमाली ब्राह्मणों की विवाह के लिये वेदी (चँवरी) में लाई हर्ड कन्याओं को पकड़ के ले जाक पाताल में कंकोळ नाम नागको सर आने लगी । किन्तु वह नाग उन कन्याओं का पालन अपनी स्त्र कन्याओंकी भाँति करता रहा । हे राजा इस प्रकार सहस्रों ही कन्याओं को वह ले गई परन्तु इस बातका उन ( श्रीमाली ) ब्राह्मणों से कुछ भी उपाय बन नहीं सका अतः दुःखा और सारिका मे भयभीत हो के श्रीमाल क्षेत्र को छोड़ के भाबू पर्वत पर जा बसे । इससे वह नगर मनुष्यों से रहिल मंगलकी तरह उजाड़ हो गया । तथा उस सारिका के भय से तीर्थ यात्राको भी लोगों का आना बन्द हो गया । और वे ब्राह्मण ऐसे नगरके छूट जानेसे रात दिन चिन्ता करने लगे । अथ प्रतापवान् राजा श्रीपुओ नाम विश्रुतः । कदाचिदयं तत्रागादेकाको मृगमन्वटन् ॥ कथं शून्यमिदं जातं नगरं देवनिर्मितम् । For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ कुतस्ते ब्रह्मगाः श्रेष्ठाः वर्तन्ते दुःखशालिनः ॥ इत्य चित्तयमानेन श्री पुञ्जनमहाजसा । अर्बुदे प्रेषिता दूता ब्राह्मणानां समीपतः ॥ दूता ऊचुः । नमोस्तु वो द्विजन्मानः सर्वेभ्यो वेदवित्तमाः। आकारयति वो विप्राः श्रीपुञ्जो नाम विश्रुतः॥ सेनापत्यमधिष्ठाय पालयिष्यामि वः सदा । विमुञ्चत निशाचर्याः सारिकाया महद्यत् ॥ वसिष्ठ उवाच। इत्याकर्ण्य ततो वाक्यं दूतानाममृतारमम् । ब्राह्मगा गिरिमामय श्रोमालं गन्तुमुया ॥ ततः प्राप्ता द्विनाः सर्वे हर्षपर्याकुठेक्षणाः। बहुत वर्षों प छे एक दिन श्रा पुञ्ज नामका एक प्रख्यात प्रतापी राजा अपना शिकारका पाछा करता हुआ श्रीमाल न. गरमें अकेला आ निकला ता इस नगर के उड़े हो जाने का कारण जान दूत भेजके सारिका राक्षसी से रक्षा करनेका वचन दे कर ब्राह्मणों को पीछे बुलाये और उस नगरको पुनः आबाद कर दिया। ततः सा राक्षलो दुष्टा सैन्यवारण्यवासिनाम् । दिलानामनुरोधेन श्रीलालं भङ्क्तमागता ॥ दक्षिणस्यां दिशि ततो वदिमध्याद् द्विजन्मनः । For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगृह्य कस्यचित् कन्या राक्षसी गन्तुमुद्यता ॥ सा वाला रुदती गाढं स्मरन्ती कुलदेवताम् । त्राहि त्राहीति सुरभिमातरित्यालपन्मुहुः ॥ इष्टा वंशस्य वै तस्याः सुरभिर्नाम देवता। कन्यापिकस्वरैर्मत्वा सुरभिस्तामकीलयत् ।। ततः श्रीमालतः प्राप्तः श्रीपुञ्जः सह सैनिकैः। श्री पुञ्ज उवाच । दुष्टे चिरेण लब्धाऽसि विजकन्यापदागिण । मया मुक्तः शरोऽयं ते शिरश्छेत्स्यति सारिके ॥ वसिष्ठ उवाच । इत्युक्त्वा शरसन्धाने दृष्ट्वा राजानमातुरम् । विहाय ब्राह्मणसुतां भोतोवाचाथ सारिका ॥ किन्तु वह दुष्टा राक्षसी सैन्धवारण्य वासी ब्राह्मणों के अनुरोध से श्रीमाल नगरको बरबाद करनेको फिर भी आगई, और दक्षिण दिशा में किसी ब्राह्मण की कन्याको वेदोके मध्यसे पकड़ के ले जाने लगी । वह कन्या रोती हुई अपनी कुल देवीको रक्षा करनेको पुकारने लगी । उसका रुदन सुनके उसकी कुल देवी 'मुरभि' ने, जो उस जंगल में रहती थी, सारिकाकी गति स्तम्भन कर दी जिससे श्रीपुञ्ज राजा अपनी सेना सहित वहांपर जा पहुँचा और सारिका को मारने के लिये तीर छोड़ने लगा। तब सारिका भयभीत होकर उस कन्या को छोड़ के राजा से कहने लगी। For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारिकोवाच । नमोक्तव्यो महेपुस्ते मयि राजन् कथञ्चन । सैन्धवैः सिंधमाराध्य प्रार्थिताऽहं द्विजोत्तमैः ॥ कर्तुं श्रीमालविध्वंसं तेन सबै कृतं मया। कुरु प्रतिपणं राजन् नित्याणे मम किञ्चन ॥ यथा भवामि विप्राणामहं नित्यं सहायिनी। हे राजा सिन्ध के उत्तम ब्राह्मणोंने श्रोमाल नगरका नाश करनेके लिये समुद्रकी आराधना करके मेरी प्रार्थना किई इसी से यह सब मैंने किया है। अतः आप मुझपर वाण मत चलायो किन्तु मेरा कुछ प्रतिपण करो जिससे इन ब्राह्मणों का कष्ट दूर करने में मैं भी इनकी सर्वदा सहायता करने वाली हो जाऊं। श्री पञ्जराजोवाच । कोहक प्रतिपणः कार्यस्त्वदर्थं वद खेचरि । येन त्वं द्विजवर्याणां साहायं कुरुषे सदा ॥ राजा बोला कि हे खेचरी ! तेरे लिये किस प्रकारका प्रण करना चाहिये कि जिससे तू ब्राह्मणों की सदा सहायक हो जावे। सारिकोवाच । शापो दत्तो द्विजेन्द्राणां सैन्धवारण्यवासिनाम् । क्रुद्वैरागिरसविप्रेस्तेषां निरपराधिनाम्॥ तेनापराधयोगेन पुरं शून्यं कृतं मया । तानामन्त्रय राजेन्द्र सैन्धवारण्यवासिनः॥ For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० मनोवाकाययोगेन पूजयस्व द्विजर्षभान् । तेन तुष्टा भविष्यन्ति ब्राह्मणा भगवत्प्रियाः ॥ ते तुष्टा विप्रेषु कष्टशान्तिर्भविष्यति । न मे मृत्युः शरे राजन् कदाचिदिह विद्यते ॥ परं द्विजहितायैव समयः क्रियते मया । राजाके पूछने पर साका करने लगी कि अंगिरस ब्रामणों ने क्रोध के निरपराध सैन्धवारण्यवामी ब्राह्मणों को शाप दे दिया। उसी अपराधके कारण इम नगर को मैंने वोरान ( उजाड़) किया । अब हे राजा ! उन सैन्धवारण्य वासी उत्तम ब्राह्मणों को यहां बुलाके मन, वचर, और कायामे पूजा करो जिससे वे भगवत्मिय ब्राह्मण प्रमन होंगे। और उन ब्राह्मणों के तुष्ट-पसन्न-होनेसे इन ( श्रमालो) ब्राह्म गों के कटकी शान्ति हो जावेगी । आपके वाणसे मेरी मृत्यु तो कदापि नहीं हो सकती परन्तु मैंने यह उपाय इन ब्राह्मणों के हित के लिये बतलाया है। वसिष्ठ उवाच । इति तद्वचनं श्रुत्वा श्रीपुजेन महौजला । प्रेषिताः सैन्धवारण्ये दूना द्विजवरान प्रति ॥ तैर्गत्वा वचनं राज्ञः प्रश्रियावनतैर्नृप। निवेदितं विजेन्द्रेभ्यो हृदयानन्दवर्द्धनम् ॥ इस प्रकार सारिकाके वचन सुन के श्रापुञ्ज राज.ने मैन्धवारण्यके ब्राह्मणों को बुलाने के लिये दून भेने । उन दूताने वहां जाकं प्रामणों के हृदय में आनन्द बढ़ाने वाला राजा का सन्देशा कह सुनाया। For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५१ दूना ऊचुः । नमोस्तु वो द्विजन्मानः सर्वेभ्यो वेदवित्तमाः। आकारयति वो राजा श्रीपुओ नाम विश्रुतः ॥ वे राजाके दून सैन्धगरण्य के ब्राह्मणों को विनयसे कहने लगे कि हे वेद के ज्ञाता ब्राह्मणो ! आप सबको हमारा नमस्कार है। और श्रो पुञ्ज नाम विख्यात राजाने आपको श्रीमाल क्षेत्र में बुलाने के लिये हमें भेजा है सो आप कृपा करके वहां पधारें। वसिष्ठ उवाच । इत्याकर्ण्य ततो वाक्यं दूतानाममृतोपमम् । ब्राह्मणा गर्गमामन्त्र्य श्रीमालं गन्तुमुद्यताः ॥ ततः प्राप्ता द्विजाः सर्वे हर्षपर्याकुलेक्षणाः। तानागतान् द्विजान् सर्वन सैंधवारण्यवासिनः॥ अर्घपाद्यादिविविधैरुपचायोक्तिभिः। पूजयामास भूपालो वासोऽलङ्करणैस्तथा । इस प्रकार दुतों के अमृत सदृश वचन मुन के अपने ममुदाय के मुख्य महर्षि गर्गाचार्य नीकी आज्ञा लेके सैन्धवारण्यके ब्राह्मण श्रीमाल क्षेत्र में आये । उन आनन्द युक्त ब्राह्मणों को देख के राजाने उनको अर्घ, पाद्य, और विविध उपचार से यथावत् पूजनादि करके वस्त्र तथा अलंकारादि से बड़ा सत्कार किया। अथ देवो समभ्येत्य प्रत्यक्षा सुरभिर्नुप। श्रीजमनवोत्तुष्टा राजानां द्विजवत्सलाम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरभिरुवाच । एतस्याः कुलकन्यायाः कुलेऽहं देवता नृप । अस्या आर्तस्वरं श्रुत्वा सारिकां स्तम्भमानयम्॥ तुष्टा तव महीपाल बरं वृणु यथारुचि। न मोघदर्शना देवाः स्थितिरेषा सनातनी ॥ इतने में उस कन्या की कुलदेवी 'मुरभि' जिसने सारिका की गति रोक दी थी और जिससे श्रीपुञ्ज राजा सारिका के पास जा पहुँचा था, वहाँ प्रत्यक्ष हुई, और राजापर प्रसन्न होके कहने लगी कि मैं इसके कुल की देवी हूं इस लिये मैंने सारिका को स्तम्भन कि ई है । देवताओं का दर्शन वृथा नहीं जाता अतः तेरी जो इच्छा हो वर माँग ले। राजोवाच । यदि तुष्टासि देवेशि तदिमां मुञ्च सारिकाम् । एवमेव द्विजेन्द्राणां त्राणं कार्य च सर्वदा ॥ तब राजाने नमस्कार पूर्वक देवी से सारिका की गति छुड़ाने और ब्राह्मणों की सदा रक्षा करने की प्रार्थना किई । देव्युवाच । एवमस्तु महाराज यत्तेऽभिलषितं हृदि । मुरभिने राजा की प्रार्थनानुसार सारिका की गति छोड़ दी और ब्राह्मणों की रक्षा करना भी स्वीकार किया। वसिष्ठ उवाच । एतस्मिनन्तरे राजन् संधवारण्यवासिनः । For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगता ब्राह्मणाः सर्वे धर्मतत्वविचक्षणाः ॥ मुनयस्तुष्टुवुर्लक्ष्मीं सुरभिं लोकमातरम् । ऐसे समय में धर्म तत्व में विचक्षण सैन्धवारण्य के वे सब ब्राह्मण मुनि लोग आये और लक्ष्मी स्वरूप सुरभिकी इस प्र कार स्तुति करने लगे । सैन्धवारण्यवासि मुनय ऊचुः । नमो देवि महालक्ष्मि सुरभि श्रीहरिप्रिये । इंदिरे जगतां मातर्धर्मरक्षापरायणे । हे देवी ! हे महालक्ष्मी ! हे सुरभि ! हे हरि मिये ! हे जगतूकी माता ! हे धर्मकी रक्षा करनेदारी इन्दिरा ? आपको नम स्कार करते हैं । देव्युवाच । तपस्विनो द्विजश्रेष्ठा वणुध्वं वरमुत्तमम् | राज्ञा च पूजिताः सर्वे ह्यपराधक्षमाकृता ॥ युष्माकं क्षमया स्तुत्या तुष्टाहं परमेश्वरी । तव सुरभि देवी प्रसन्न हो के बोली कि हे तपस्वी ब्राह्मणो! अपराध को क्षमा करनेवाले श्री पुज्ज राजाने तुम्हारा पूजा आदि सत्कार किया है और मैं भी तुम्हारी क्षमा तथा स्तुति से प्रसन्न हुई हूँ । अब तुम कोई उत्तम वरदान माँग को । वसिष्ट उवाच । इति तद्वचनं श्रुत्वा लक्ष्म्याश्च द्विजपुंगवाः । सैंधवारण्यमुनय ऊचुः सर्वे मुदायुताः ॥ For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACI १५४ पूर्वमाडिरसैविप्रैः शापो दत्तश्च कोपतः । विनापराधमस्माकं तच्छापान्मोक्षणं कुरु ॥ वसिष्ठजी मान्धाता से कहने लगे कि इस प्रकार लक्ष्मीके वचन सुनके आनन्दसे युक्त वे सैन्धवारण्य के ब्राह्मण बोले कि हे देवि! पहिले जो क्रोध करके अंगिरस ब्राह्मणोंने हमें, विना अपराध श्राप दे दिया था कि तुम्हें वेद नहीं आवेगा उस श्राप से मुक्त करो यही वर हम माँगते हैं। श्रीरुवाच । वेदवेदाङ्गन्तत्वज्ञा भविष्यथ द्विजर्षभाः।। ___ तब लक्ष्मीने कहा कि है उत्तम ब्राह्मणो ! तुम वेद और वेदाङ्ग [शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघएटु (निरुक्त), छन्द और ज्योतिष ] के तत्वके जाननेवाले होओगे, अर्थात् पहिलेके श्राप से मुक्त होओगे। उदारा राज्यपूज्याश्च शुद्धाः सन्तोषिणः सदा । ब्राह्मणानां पुष्टिकरा धर्मपुष्टिकरास्तथा ॥ ज्ञानपुष्टिकरास्तस्मात् पुष्करणाख्या भविष्यथ तथा तुम (१) उदार, (२) राज्य पूज्य, (३) शुद्ध, (४) स. न्तोषी, (५) ब्राह्मणों की पुष्टि करनेवाले, (६) धर्मकी पुष्टि कर. नेवाले, और (७) ज्ञानकी पुष्टि करनेवाले होओगें । इसलिये तुम 'पुष्करणे' कहलाओगे। विवाहे कार्य समये सान्निध्यं मम सर्वदा । इसके उपरान्त लक्ष्मीजीने यहभी प्रणकिया कि तुम्हारे वि. बाइ तथा कार्य में सदा आके में उपस्थित होऊंगी अर्थात् तु For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५५ म्हारे ख़र्चका काम चाहे जैसा आ पड़ेगा तो भी नहीं अटकेगा । श्रीमालेऽवस्थिता ये हि श्रीमालाख्या भविष्यथ । और जो ब्राह्मण मेरे इस श्रीमाल* नगर में बसे हैं वे श्री माली कहलावेंगे | इत्युक्तवान्तर्हिता देवी सुरभिर्वन्दिता द्विजैः । सारिका व ययौ राजन् सागरं पयसां निधिम् ॥ इस प्रकार वर देके ब्राह्मणों से नमस्कृत सुरभिदेवी अदृश्य हो गई और सारिका पीछी समुद्र में चली गई । सारिका यद्यपि राक्षसीथी किन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों के पूर्वज सारिका की सहायताहीसे लक्ष्मीजी से वरदान प्राप्तकर सकेथे इस उपकारके लिये उन्होंने उसे देवीकी उपमा दी । तथा विवाद आदि शुभ कार्यो के समय सारिकाकी मानता करनेका प्रण कियाथा सो आजतक उसकी मानता करते चले आये है जिसका पूर्ण वृसान्त पुष्करणोत्पत्ति नामक पुस्तक में लिखेंगे। उस सारिका * श्रीमाल नगरके रहनेवाले 'शिशुपालवध' काव्यके कर्त्ता 'माघ प fuse' को शोचनीय अवस्थामें भी उनके सजातीय बान्धवोंने कुछ भी स हायता नहीं दी और अन्त में उनकी मृत्यु हो गई इससे क्रोधित होके राजा भोजने उस नगर का नाम 'भिल्लमाल ( भीलोंको वस्ती )' रख दिया । अब वह नगर जोधपुर के राज्यान्तर्गत 'भीनमाल ' नाम से प्रसिद्ध है । + श्रीमाली ब्राह्मणों में भी पुष्करणे ब्राह्मणों ही के से १४ गोत्र और ८४ अत्रटङ्क (खाप वा नख ) हैं । इनकी देश तथा कर्म भेदसे ( १ ) मारबाड़ी, (२) मेवाड़ी, (३) रिख, और (४) लटकण नामकी चार आमूनाएं हैं। इनमें भोजन व्यवहार तो परस्पर में सब के साथ है किन्तु कन्या सम्बन्ध में कुछ भेद है । For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ का वाहन उष्ट्र होने से वह पुष्करणों में उष्ट्रासिनी ( ऊँटा ) देवी नामसे प्रसिद्ध है । और श्रीमाली ब्राह्मणों का कष्ट भी उसी सारिका की स म्मति से मिटाया इसलिये उनमें भी विवाह आदिके कई कार्य सारिका के आदेशानुसार किये जाते हैं। जिनका वर्णन श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्य में विस्तार से लिखा है। -* पुष्करणे कहलाये जाने के विषय में जन श्रुति । सिन्धी ब्राह्मण यद्यपि श्रीमाल क्षेत्र में ब्राह्मणोंकी पुष्टि करनेके लिये श्रीमाली ब्राह्मणों से वादानुवाद करने पर अन्त में लक्ष्मीजीके वरदान से पुष्करणे कहलाये हैं, परन्तु कोई २ लोग यो भी कहते हैं कि प्राचीनकालमें जो ब्राह्मण सैन्धवारण्य (सिन्ध देश ) में निवास करते थे वे तो सिन्धी और जो श्रीमाल क्षेत्र में निवास करते थे वे श्रीमाली कहलाते थे । किन्तु वास्तव में ये दोनोंही गुर्जर ब्राह्मणों की एक ही शाखा थी। इसी लिये इन दोनोंके आचार विचार, खनपान आदि के अतिरिक्त विवाह आदिकी रीतियें भाँतियेंमीप्रायः एकसी चली आति हैं । परन्तु श्रीमाली तो अपनी कुलदेवी के लिये पशुका बलिदान करने लगगये और सिन्धी ब्राह्मण इस वातके पूरे २ विरोधी थे । इस मत भे दसे ये पृथकर हो गये । फिर एक समय इन सिन्धी ब्राह्मणों और श्रीमाली ब्राह्मणों में पशुका वलिदान करने के विषय में परस्पर वादानुवाद चल पड़ा । श्रीमाळियों का कथनथा कि:"वैदिक हिंसा हिंसा न भवति " अर्थात् देवताओंके उद्देश्य से पथ पारनेसे उसकी हिंसा करने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता, ऐसी वेदोंकी आज्ञा है । किन्तु सिन्धी ब्राह्मणों का कथन इससे विपरीत था कि । For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५७ "सुरा मत्स्याः पशोसिं द्विजादिनां वलिस्तथा। धूर्तेः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतवेदेषु कथ्यते ॥" अर्थात् सुग, मत्स्य, पशुका मांस और पक्षी आदिकी वलि करना आदि कर्म धूर्त मनुष्योंने अपने स्वार्थके लिये वेदोंके नामसे प्रवर्त्त कर दिये हैं, किन्तु वेदों में ऐसे निन्द्य कर्मों का विधान कहीं भी नहीं है । अन्तमें सिन्धी ब्राह्मणों का पक्ष प्रबळ हो जानेसे श्रीमाली ब्राह्मणों को असली पशु की हिंसा तो त्याग देनी पड़ी परन्तु बिलकुल ही बलि नहीं करने पर कुलदेवीके रूठ जानेके भय से उसकी प्रसन्नता के अर्थ असली पशुके स्थान में आटे में मुड़का पानी डालकर भैंसे के आकार का नकली पशु बना के अपनो कुल देवीको बलि चढ़ाने लग गये। ( उस समयकी चलाई हुई इसी प्राचीन प्रथानुसार अब भी कई श्रीमाली ऐसा करते हैं। ) और सिन्धी ब्राह्मण बलि करनेसे एक प्रकार पशुका अनादरसा करते थे इसी कारण से 'पशु तिरस्करणिया' कहलाये जाने लग गये उसी 'पशु तिरस्करणिये' का धोरे२ अपभ्रंश 'पुष्करणिया' हो जाने से कालान्तरमें फिर 'पुष्करणे' कहलाने लग गये। परन्तु जब कि स्कन्द पुराणोक्त श्रीमाल क्षेत्र माहात्म्य में के 'पुष्करणोपाख्यान' की कथासे स्पष्ट है कि ये लक्ष्मीजीके वर प्रदान से 'पुष्करणे' कहलाये हैं उसी कथाका सारांश ऊपर लिखा भी जा चुका है। तो फिर ऐसे शास्त्र प्रमाणों के विद्यमान होते हुये ऐसी 'जनश्रुति' क्योंकर सत्य मानी जा सकती है ? इसके अतिरिक्त पुष्करणे ब्राह्मणों का जो कुछ प्राचीन इतिहास आज . तक मुझे मिला है उसमें भी इस जनश्रुतिका कहीं भी पता नहीं For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। ऐसी दशा में इस बातका प्रमाण कदापि मानने योग्य नहीं हो सकता। फिर पुष्करणोपाख्यान की कथाके अनुसार तोवादानुवाद ब्राह्मणों की पूजा के लिये हुआ है और इस जनश्रुति में पशु हिंसा के लिये बतलाया गया है । परन्तु यह वाद चाहे जिस निमित्तसे मान लें तोभी दोनों ही मतों से हुआ तो श्रीमालियों और सिन्धियों ही में है। अतः यदि इन दरकी कौड़ी उउठाने वालों की यह बात मान भी लें तो भी इन पुष्करणे ब्रा. ह्मणों के पुष्करणे कह लाने का कारण तो श्रीमालियोंके साथका वादानुवाद हो तो हुश्रा नकि टाड साहबके लेखानुसार पुष्कर खोदना । अत: इस जनश्रुति से भी टाड राजस्थान की पूर्वोक्त 'अजब कहानी' का तो ऐसा खण्डन हो गया कि मानो महान् वज्रपातके होनेसे विशाल पर्वत का । ग्रन्थ समाप्ति । __ अब इस पुस्तक को अधिक न वहाकर यहीं पर समान करते हुए पाठकों से इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि कहांतो जसे केवल ७५४ ही वर्ष पहिले-पुष्कर खुदने के समये-पु. करणे ब्राह्मणों की उत्पत्ति को टाड राजस्थानकी 'अजव क. हानी' ? और कहां पुष्कर खुदनेके समयसे भी सैकड़ों ही वर्ष पहिलेसे मारवाड़ में विद्यमान रहने और मारवाड़ में आने से पहिले सिन्ध देशमें विद्यमान होने के अनेक ऐतिहासिक प्रमाण ? अतः अब भी क्या 'पुष्करणे ब्राह्मणों की प्राचीनता' और 'टाड राजस्थान' व उन के मतानुयायियों की भूल स्पष्ट सिद्ध होने में और भी कोई अधिक प्रमाणों की आवश्यकता है ? । For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५९ कर्नल जेम्स टाड ने, भ्रम ते कियो वखान । भ्रम उच्छेदन टाड को, वरन्यो सहित विधान॥१॥ मरु देश जैसल नगर के निवासी विज, भारद्वाज गोती व्यास भये मतिमान हैं। नऊँ जी के वंश माँहि श्रीधर प्रतापी भये, श्रीधराणि या ते जग करत वखान हैं। तिन ही के वंश धर विज्ञ महि धर भये, निज कुल कज में द्वितीय मानो भान हैं। ताको सुत मीठालाल पालो में निवास जा को, कियो जिन जाति हित ग्रंथ को विधान हैं ॥२॥ निज पुष्करणा जाति के, कियो भेट सुविचार । दास जानकर आपनो, कर लीजो स्वीकार ॥३॥ संवत् षट् रस नंद विधु, तम दल कार्तिक मास । निज जन्मोत्सव दशमि को, भयो ग्रन्थ सुख रास॥४ ८० C इति शुभम् For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० ग्रन्थ कर्त्ता के वंश का संक्षिप्त परिचय | आज से ९७० वर्ष पहिले लुद्रवा नगर में 'लक्षमोज' नामक महाविष्णु यज्ञ करनेवाले टङ्कशाली - व्यास 'लल्लूजी' से २४ वीं पीढ़ी में सं० १४५० के लगभग ब्यास 'देवरुपिजी' बड़े प्रतापी हुये थे इनके पोपोजी, जूठोजी, नऊँजी, और गदाधरजी नामक ४ पुत्र हुये । (१) नऊँजी - इनके घेरूजी, सेऊजी, कृष्णोजी, डावोजी, घड़शीजी, ब्रह्मोजी और बालब्रह्मचारीजी नामक ७ पुत्र हुये जिनकी सन्तान वाले 'नऊँपोते व्यास' अथवा 'जैसलमेरिये व्यास' कहलाते हैं । (२) घेरूजी - इनके विद्याधरजी, जस्सोजी, हरखोजी और गोविन्दजी नामक ४ पुत्र हुये । (३) विद्याधरजी - इनके लक्ष्मीदासजी, विनयदासजी ( भवानीदासजी), अनन्तदासजी और द्वारिकादासजी नामक ४ पुत्र हुये । (४) विनयदासजी ( भवानीदासजी ) इनके हरजीजी नामक १ पुत्र हुआ । (५) हरजीजी - इनके श्रीधरजी नामक १ पुत्र हुआ । (६) श्रीधरजी - ये बडे प्रतापि हुये इससे इनके वंशवाले 'श्रीधराणी व्यास' कहलाये | इनके कमलापतजी, विजयराजजी, भगवानदासजी, जयरामजी और नाम ज्ञात नही ? नामक ५ पुत्र हुये । (७) भगवान्दासजी - इनके शोभाचन्दजी, अक्षयराजजी, जोधराजजी, और सदारंगजी नामक ४ पुत्र हुये । (4) अक्षयराजजी -इनके ज्येष्ठमलजी, सीतारामजी, रामजीदासजी, आशकरणजी, ओचुरामजी ( सत्तरामजी) और खुशालचन्दजी नामक ६ पुत्र हुये । (९) आशकरणजी - इनके कुंजलालजी, बृजलालजी, हीरान न्दजी और घेरूलालजी नामक ४ पुत्र हुये । (१०) घेरूलालजी - इनके खेतसीदासजी नामक १ पुत्र हुआ । (११) खेतसीदासजी - हमारे पितामहदादाजी ) का जम्म जैसलमेर में सं० १८३८ में हुआथा । इनके पूर्वज तो जैसलमेर के राज्यमें राज्याधिकारके कार्य करते थे किन्तु 3 For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६१ ये सं० १८६५ के लगभग जैसलमेर से पाली में आ गये और महाजनी - साहूकारी-धन्धा करने लग गये थे, सो आजतक वैसा ही चला आता है । ये परोपकारार्थ ज्योतिष और वैद्यक विद्याओं में भी शौक रखते थे जिसका अनुकरण इन के वंशमें आज पय्र्यन्त विद्यमान हैं । जैसलमेरकी न्यातकी पञ्च पञ्चायती में व्यासों में मुख्य पञ्च नऊँजी के ज्येष्ठ पुत्र के वंशवाले (वडर ) माने जाते हैं । अतः उन्हीं के वंशधर होने से खेतसीदासजी को पालीको न्यातने भी पञ्चों की श्रेणीमें स्थान दिया था, सो बही सन्मान अद्याबधि बना हुआ है। इनका विवाह बीकानेर के सुप्रसिद्ध रघुनाथजी के साथ (थॉभे) के आचार्य हरवंशजी की कन्या व पन्नालालजी, मदनमोहजी, हरगोपालजी और हरबलजी की बहन तथा भायसिंहजी, वल्लभदासजी, ठाकुरदासजी, कृष्णदासजी आदि की भूआ 'चनणी' से हुआ था। इनका और इनकी स्त्रीका स्वर्गवास एकही दिन सं० १९०४ के आषाढ़ वदि २ को पाली में हुआ था । इनके ५ सन्तान थे । १ ' उमेदीबाई ' - ये जैसलमेर के राज्य मुसाहिब थानवी लक्ष्मीचन्दजी को ब्याही थीं । इनके २ कन्याए थीं । [१] 'टीबीबाई' - ये जैसलमेर के डावांणी व्यास मोहकम चन्दजी · के पुत्र 'गौरीदासजी' को व्याही थीं। वे बीकानेर में महाजनी धन्धा करते थे इनके वनराज, परशांबाई और परशराम नामक सन्तान हुये वे तथा इनके पुत्र भी महाजनी धन्धा करते हैं । For Private And Personal Use Only [२] 'जड़ावबाई' - ये जैसलमेर के सेऊ व्यास गदाधरजी के पुत्र 'चतुर्भुजजी' को व्याही थीं । चतुर्भुजजी जोधपुरके महाराजा प्रतापसिंहजी की भटियाणीजीकी कामदारी करते रहे। इनके दानमल तथा भातीबाइ नामक सन्तान हुये जो जैसलमेर ही में रहते हैं । दानमलने जैसलमेर की महाराणी जी की कामदारी किई थी । २ ' जमुनादासजी ' -- जब कि पाली में सं० १८९३ में प्लेग (महामादी) का उपद्रव हुआथा, उस समय हमारे घर के सब लोग Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ रोहिट नामक गाँममें चले गये थे । वहां पर उसी बीमारी से इनका स्वर्गवास हो गया । इनका विवाह जैसलमेर के कला शाहवरामजीकी जमुना नामक कन्यासे हुआ था । इनके १ पुत्र था । [१] 'इन्द्रराज' - इनका स्वर्गवास सं० १९५० के पौष सुदि... कोलाडकाणे में हुआ । इनका विवाह जोधपुरके विशा वैनजीके पुत्र वृद्धिचन्दजी की कन्या व चत्ताणी व्यास घुनजीकी दोहिती 'शिरेकवारी' से हुआथा । इनके ध नराज नामक एक पुत्र था, जो कुमार अवस्थाही में स्वर्गवासी हो गया । ३ ' अखली बाई ' - ये जैसलमेर के हर्ष 'ज्येष्ठमल' जी को व्याही थीं । इनके २ सन्तान थे । [१] 'बसनीबाई ' - ये जैसलमेरके भोपताणी व्यास 'अमोलखदासजी' को व्याही थीं। इनके पूनमचन्द नामको १ पुत्र है । [२] 'बुळीदान' - इसका विवाह फलोधी के धानवी गोबर्द्धन दासजी की कन्यासे हुआथा । इसके धर्मदास नामके १ पुत्र है । ४ 'अटलदासजी' इनका जन्म पाली में सं० १८८२ में और स्वर्गवास भी पाली ही में सं० १९४६ के प्रथम भाद्रवा वदि १२ को हुआ । इनका विवाद जैसलमेर के केवलिया माधवदास जी की 'लाऊ' नामक कन्यासे हुआथा जिनका स्वर्गवास सं० १९४६ के फाल्गुन वदि १० को पालीमें हुआ । इनके सन्तान हुये वे जीवित नहीं रहे । इन्होंने सं० १९९० में खुरासानमें जाके 'कन्धार' में कोठी - साहूकारी दुकान खोली थी। वहांके अमीरबादशाह - कोन्दलखाँ से तथा उन्हीं के भाई व काबुलके अमीर - बादशाह दोस्त मुहम्मदख़ाँ से बड़े सत्कार तथा सन्मान के साथ 'सेठ' की पदवी मिलीथी । आपको कई अच्छे सिद्ध महात्माओं से समागम हुआ था | आप भी पूर्व जन्मके बड़े तपस्वी - योगीराज प्रतीत होते थे । इस ग्रन्थ कर्त्ता मीठालाल को ( जिसे उन्होंने निज पुत्रवत् माना है ) जो कुछ बोध हुआ है वह इन्हीं महात्माओं के पूर्ण अनुग्रह का फल है । For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ 'महीधरदासजी'-इनका जन्म सं० १८८५ में और स्वर्गवास सं० १९३२ के वैशाख यदि ११ को पाली में हुआ। इन्होंने मुलतान घ बहावलपुर आदि में दुकानें किई थीं। ये बड़े बुद्धिमान् होनेसे सच्चे सलाहगीर गिने जाते थे, अतः पाली नगरमें बहुधा लोग इनके पास सलाह लेनेको आया करते थे। इसी प्रकार ये निष्पक्ष होने से परस्पर के कई झगड़े भी इन्हीं को पञ्च पनाकर निपटारा करवा लेते थे। इनके २ विवाह हुये थे। प्रथम तो जैसलमेर के पूर्वोक्त केवलिया माधवदासजी के पुत्र शाहवरायजीकी कन्या व विठ्ठलदासजीकी बहन 'छोटी से हुआथा। उनका सं०१९१०के माधवदि१रको पाली में स्वर्गवास हा जानेसे दूसरा विवाह जोधपुर के चण्डवाणी जोशी निर्भयरामजी की कन्या व नाथावत व्यास केहरिचन्दजी की दोहिती "विजी से सं. १९१२ के माह सुदि ५ को हुआथा इनका सं० १९२७ के मृगशिर सुदि १३ को सोजतमें स्वर्गवास हुआ । इनके प्रथम स्त्री से २ और दूसरी से ३ सन्तान हुये। (१) 'हंसराजनी'-इनका जन्म सं० १९.०६ में और स्वर्गवास सं. १९५३ के मृगशिर धदि ६ को पाली में हुआ। ये महाजनी धंधे में धन कमाने में जैसे परिश्रमी थे, वैसे ही खाने खर्च. नेमें भी कमी नहीं रखते थे। इन्होंने बम्बई में दूकान कि थी। इनका भी विवाह जोधपुर के पूर्वक्ति विशाचैनजी के पुत्र घृद्धिचंदजी की कन्या व चत्ताणी व्यास धुनजीकी दोहिती 'कस्तूरी' से सं. १९१७ के वैशाख मुदि १०को हुआ था इनके ३ पुत्र हैं। [१] 'मुरलीधर'-इसका जन्म सं० १९३२ के मृगशिर वदि ८ को पाली में हुआ है। इसने अपना विवाह करने की नाहीं करदी जिससे कुआराही रहा है। यह गान विद्यापर अधिक प्रेम रखता है । और फोटोग्राफी का काम अच्छा करता है। [२] 'रघनाथ'-इसका जन्म पाली में सं. १९४० के ज्येष्ठ यदि ३ को हुआ है । इसने अंग्रेजी विद्याके अतिरिक्त For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ तारविद्याका भी अभ्यास किया है । और ८ वर्ष से जोधपुर बीकानेर रेल्वे में नौकर है। इसके२ विवाह हुये । प्रथम विवाह सं० १९५५ के फाल्गुन यदि 1 को जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के गुरु व मुसा हिब तथा व्यासपदवी प्राप्त मादलिये के पुरोहित चतु र्भुजजी के पोते जीवराजजी की कन्या और जोधपुर ही के राज्य मुसाहिब चोहटिया जोशी सांवतरामजी की दोहिती 'राधा' से हुआ था। जिसका सं० १९६२ के फाल्गुन सुदि ९ को जोधपुर में स्वर्गवास हो जा जैसे फिर उसी प्रथम स्त्री की कानेष्ट बहन 'छोटी से सं० १९६३ के फाल्गुन वदि ५ को दूसरा विवाह हुआ हैं । प्रथम स्त्रीसे १ पुत्र है । १ 'सूरजराज ' - इसका जन्म सं० १९६१ के कार्त्तिक यदि ३ को जोधपुर में हुआ है। [३] ' जगन्नाथ ' - इसका जन्म सं० १९४४ के वैशाख यदि ९२ को पाली में हुआ है। इसको पूर्वोक्त खेतसीदासजी के चचा कुञ्जलालजी के परपोते करणीदानजी ( ज़ोरजी) ने अपनी गोदले के अपनी ओरसे इसका विवाह जैसलमेर के वरसा पुरोहित करणी दानजीकी कन्या व गोविंद व्यास चतुर्भुजजी की दोहिती 'कि. सनी' से किया है। यह पहिले जोधपुर बीकानेर रेल्वे में नौकरी करता था अभी बीकानेर के मोहोना मूलचन्द पाठशाला में अंग्रेज़ीका पाठक है। इसके १ कन्या हुई है। (२) 'रत्नीबाई' - इनका स्वर्गवास सं० १९३२ के पौष वदि ९९ को जैसलमेर में हुआ । ये जैसलमेर के बल्लाणी पुरोहित द्वारिकादासजी के पुत्र व बीकानेर के आचार्य वसुदेवजी के भानजे 'मनसुखदासजी' को व्याही थीं । इनके १ कन्या है । [१] तुलसीबाई - इसका जन्म सं० १९२७ में जैसलमेर में हुआ है । यह फलोधी के सुप्रसिद्ध थानवी जालजी के परपोते 'लक्ष्मीचन्दजी' को व्याही थी । लक्ष्मीचन्द जी का स्वर्गवास सं. १९५० के पौष यदि १४ को हो गया । For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६५ (३) 'मीठाळाळ ( इस ग्रन्थ का कर्त्ता ) 2 - इसका जन्म सं० १९९६ के कार्तिक वदि १० को जोधपुर में हुआ है । यह अपने पूर्वज - दादाजी - -का अनुकरण करके आजतक व्यापार आदि ही करता है । पहिले कारोबार बम्बई आदि में भी अधिक करता था किंतु आजकल अधिकतर निवास स्वदेश- मार. बाड़ आदि ही में करता है । यद्यपि इसका धन्धा तो महा जनी ही बना हुआ है तथापि विद्यापर रुचि होनेसे अपने आमोद वा शौक के लिये ज्योतिम्, वैद्यक, धर्मशास्त्र, योग, मन्त्रशास्त्र, पदार्थ विद्या आदि अनेक सद्विद्याओं का अभ्यास किया है । और उन पर विशेष श्रद्धा होने से उक्त विद्या के अनेक अलभ्य ग्रंथों का संग्रह करके उनके सारांश की अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं । उनमें भी ज्यो. तिष विद्यापर अधिक प्रेम होने से इस विद्याका " वृहदये मार्त्तण्ड" नामक ग्रन्थ, अनेक विषयों से पूर्ण, हिन्दी भाषा टीका सहित बनाया है, जिसके कई अङ्क हैं । इनमें से सर्वतोभद्रचक्र (त्रैलोक्य दीपक ) तथा वृष्टि प्रबोध ( भारत का वायुशास्त्र )' नामक २ अङ्क तो प्रकाशित भी कर दिये और शेष अङ्क भी क्रमसे प्रकाशित किये जा रहे हैं । प्र काशित हुये अङ्कसे प्रसन्न हो कर उनकी प्रशंसा करते हुये काशी आदि प्रसिद्ध नगरों के प्रतिष्ठित विद्वानोंने 'प्रा चीन ज्योतिःशास्त्रश्रमी,' 'देवशभूषण,' 'ज्योतिष रत्न' आदि उपाधियें प्रदान किई हैं । इसके २ विवाह हुये । प्रथम तो काने राज्य के देरासरी आचार्य नथमलजी की कन्या व गेरमलजी की चचेरी बहन और काशीदासोत पुरोहित नथमलजी की दोहिती 'रुक्मिणी' से सं० १९२८ के वैशाख सुदि ४ को हुआ था, जिसका स्वर्गवास सं. १९४६ के भाबाढ़ वाद २ को पाली में हो जानेसे दूसरा विवाह जोधपुर के पूर्वोक्त व्यास पदवी प्राप्त मादलिये के पुरोहित च तुर्भुजजी के पोते जीवराजजी की कन्या व चोहटिये जोशी साँधतरामजी की दोहिती 'रामप्यारी' से सं० १९४८ के फा For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ गुन वदि ९ को हुआ है । प्रथम स्त्री से संतान हुये बे जीवित नहीं रहे । दूसरी स्त्री से एक कन्या जीवित है । [2] 'सूरज कुँवरी' – इसका जन्म सं० १९६२ के वैशाख वदि १२ को पाली में हुआ है । - (४) 'सोनीबाई' - इसका स्वर्गवास जोधपुर में सं० १९६५ के मात्र A वदि ३० को हुआ । यह जैसलमेर के नानगाणी विशा देवकरणजी के पुत्र व पोकरणके पुरोहित महासिंहजी के दोहिते 'सुरतान चंदजी' को व्याही थी इसके सुसराल वालों की उमटवाड़ी प्राप्त के नरसिंहमढ़ आदि में साहूकारी धंधे की दूकानें थीं । सुरतानचन्दजी का स्वर्गशरू सं १९३७ के श्रावण सुदि १५ को नरसिंहगढ़ में हो गया था । इसके एक पुत्र है । [2] 'ओंकारलाल' - इसका जन्म, नरसिंहगढ़ में मं० १९३५ के मृगशिर यदि १० को हुआ है । (५) ' पूनमचन्द ' - इसका जन्म जोधपुर में सं० १९२० के पोप सुदि १५ को हुआ है । इसके नामसे कराची में दुकान थी । और इस समय बम्बई (शोलापूर) के सुप्रसिद्ध शेठ वालचंदजी उग्रचंदजी की ब्यावर [ राजपूताना ] की दूकान पर मुनीम है । इसने ज्योतिष और अधिक तर आयुर्वेद विद्यापर बहुत श्रम करके उस में सफलता प्राप्त की जिससे अनेक असाध्य रोगियों को आरोग्य किये । इस योग्यता से प्रसन्न होके आयुर्वेद विद्या पीठ नासिक के द्वितीय सम्मेलनन इसको 'आयुर्वेद पंञ्चानन' की उपाधि प्रदान किई है । इसका विवाह जैसलमेर के महाराजा गजसिंहजी के दीवानमुसाहिब आचार्य ईश्वरलालजी के बड़े भाई मयाचन्दजी के पुत्र गणेशदासजी की कन्या व रावतमलजी की बहन तथा चोहटिये जोशी कस्तूरचन्दजी की दोहिती 'जानकी' से सं० १९३१ के फाल्गुन वैदि २ को हुआ है । इसके ४ संतान हैं । For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६७ [१] 'चम्पाबाई -इसका जन्म पाली में सं० १९३८ के का तिक सुदि ९ को छुआ है। यह जैसलमेर के बल्लाणी पुरोहित बुधलालजी के पुत्र व सेऊण्यास नरसिंहदास जी के दोहिते तथा रणछोड़दासजी (घाघूजी) के भानजे 'इन्द्रराजजी'को सं०१९४८ के फाल्गुन वदि ५को व्याही है। इसके सुसरालवाले लेनदेन का धंधा करते हैं। [२] 'तनसुख'-इसका जन्म पाली में सं. १९४३ के मृग शिर वदि १२ को हुआ है । इसने वैद्यक तथा ज्योतिष् विद्या का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया है । आयुर्वेद तो अपने पिता पूनमचंद से सीखा है जिसमें अपने परिश्रम, अभ्यास, और अनुभव द्वारा अच्छीकुशलता प्राप्त किई है। इसकी चिकित्सा से अनेक कष्टसाध्य रोगी भी रोग मुक्त हुये और हो रहे हैं। इसने व्या. वर (राजपूताना में 'आयुर्वेद औषधालय' खोल रखा है जिसमें हरएक प्रकारके रोगकी चमत्कारिक ओष. धियें हर समय तयार रहती हैं जिससे बहुत लोग लाभ उठा रहे हैं । इसी प्रकार ज्योतिष का तत्व अपने पितृव्य (बड़े बाप) मीठालाल से जाना है जिसके द्वारा पूर्वोक्त वृहदयॆ मार्तण्ड' ग्रन्थ के आधार पर सं. १९६२ के वर्ष से प्रति वर्ष संवत्का 'भावीफल' ज्योतिष शास्त्र के प्रमाणों सहित बनाके प्रकाशित करता है। इसमें प्रत्येक वस्तु की होनेवाली तेजी मंदी तथा सुभिक्ष दुर्भिक्ष आदिका वृत्तान्त प्राचीन इतिहास सहित रहता है। इस में की बातें बहूधा ठीक मिलती हैं जिससे प्रतिवर्ष सैकड़ों ही प्रशंसा पत्र आते हैं। व. हुत परिश्रमे से बनाया जाने पर भी इसका मूल्य केवल ) ही रखा है जिससे सर्व साधारण भी ख़रीद कर लाभ उठा सकें। इसकी सहस्रों ही प्रतिये प्रति. वर्ष हाथो हाथ बिक जाती हैं। इसने महाजनी तथा For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 168 अंग्रेजी का भी अभ्यास किया है और हिन्दीकी अच्छी योग्यता रखता है / वर्तमान समाचार पत्रों में समय 2 पर वैद्यक, ज्योतिष् आदि विषयों पर लेख आदि भी प्रायः भेजा करता है। इसका भी विवाह जोधपुर के पूर्वोक्त व्यास पदवी प्राप्त मादालय के पु. रोहित चतुर्भुजजी के पोते जीपराजजी की कन्या व. चोहटिये जोशी साँवतरामजी की दोहिती 'रुक्मिणी से सं० 1955 के फाल्गुन वदि 2 को हुआ है। [3] 'रूपाली बाई'-इसका जन्म ब्यावर (नयानगर) में सं० 1952 के माघ सुदि 9 को हुआ है / यह जोधपुर के विशा भैंकदासजी के पुत्र जुराजजी के कँवर व कल्ला माधवदासजी के दोहिते 'सरदार मलजी' को को सं. 1964 के फाल्गुण यदि 5 को व्याही है। इस के दादी सुसरे तो 'केरू' के ठाकुर साहब की काम दारी करते थे और इसके सुसरे जोधपूर राज्य के हवाले में हवालदारी की नौकरी करते हैं। 'छोटी रूपाळी बाई-इसका जन्म ब्यारर में सं० 1958 के फाल्गुन सुदि 2 को हुआ है। यह ब्यावर की कन्या पाठशाला में पढ़ती है। मैंने यह केवल अपने पितामह (दादाजी) खेतसीदासजी के वंशका संक्षिप्त वृत्तान्त लिखा है। परन्तु मेरी इच्छा सम्पूर्ण श्रीराणी व्यासों के प्रत्येक वंशका पूर्ण वृत्त न्त पुस्तकाकार छ. पवाकर प्रकाशित कर बिना मूल्य वितरण करनेकी है। इसलिये प्रत्येक श्रीधराणी व्यासको चाहिये कि श्रीधरजीसे लेके अद्याव. घधिके वंश वृक्ष (कुरसीना में ) अपने पूर्वजो के वृत्तान्त सहित लिख भेजने की कृपा करे / For Private And Personal Use Only