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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपने सवासनों (दोहितों वा भानजों) को अत्यन्त पूजनीय माने हैं। अतः ब्राह्मणों में पुरोहिताई आदि कार्य अपने २ स. वासनों से करवाते हैं । इसी नियमानुसार पुष्करणे ब्राह्मणों में भी अपने सवासनों को पुरोहित मानने की प्राचीन प्रथा है । परन्तु कालपाके फिर वहो प्रथा ही स्थिर हो गई । जैसे: सिन्ध देशके 'आशनी कोट' नामक गाम में पुरोहित जाति के एक पुष्करणे ब्राह्मणने अपनी 'मण्डी' नामकी कन्या 'खी. मन नामके एक ओझा जाति के पुष्करणे ब्राह्मण को व्याही थी । उसके जो पुत्र हुये उनको अपने वंशवालो के लिये पुरोहित बनाये । और उस मण्डीका नाना आचार्य जाति का पुष्करणा ब्राह्मण था उसने भी अपनी दोहिती के पुत्रों को अपने वंशवालों के लिये पुरोहित बनाये । येदोनों पुरुष प्रतिष्ठित थे इस लिये पुरोहितों के सगोत्री गजा आदिने और आचार्यों के सगोत्री कपटा ( बोहरा) आदिनेभो उन्हींको पुरोहित मान लिये । ऐसे ही जैसलमेर के एक प्रतिष्ठित व्यासजीने भी अपनी 'वाली' नामको कन्या विशाजाति के एक पुष्करणे ब्राह्मण को व्याही थी और उसके पुत्रों को अपने वंशवालों के लिये पुरो। हित बनाये थे। इसी प्रकार अन्यान्य जातिवाले पुष्करणे ब्राह्मणोंने भी अ. पने२ वंशवालो के लिये पुरोहित अपनेर सवासनोंको बनाये थे। यही नहीं वरञ्च पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति में से निकल कर जो किसी कारणसे अन्य जातियों में मिल गये हैं उन्होंने भी अपनी पूर्व जातिके सवासने पुष्करणे ही ब्राह्मणों को अपनी नवीन जातिके लिये भी पुरोहित वनाये हैं। जैसे पुष्करणे ब्राह्मण पु. रोहित रत्नसे चारणों की जातिमें रतनू नामक जाति बनी है। For Private And Personal Use Only
SR No.020587
Book TitlePushkarane Bbramhano Ki Prachinta Vishayak Tad Rajasthan ki Bhul
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMithalal Vyas
PublisherMithalal Vyas
Publication Year1910
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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