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इसके उपरान्त सभा की उदारता से स्वजाति की उन्नति होने के उपाय सोचर कर सभा में निवेदन करने का अधिकार सं० १९४४ के मृगशिर कृष्ण ६ को मुझे दिया गया। यद्यपिः । मैं अकेला ही इस महान् कार्य का भार उठाने के योग्य कदापि नहीं था, तथापि सभा को आज्ञा को शिरोधार्य करके कई वा. तोंका उचित प्रबन्ध कराने के लिये समय २ पर सभा से निवे. दन करता रहा जिससे देश काल की प्रचलित आधुनिक रूढ़ि के अनुसार जो कई कुरीसिये इस जाति में भी स्थान पाने लग गई हैं उन के तो निर्मूल करने और मुरितियों से लाभ उठगने का प्रबन्ध सभा से होने लगा।
इस प्रकार सभा का उद्योग व उत्साह देखकर लोगों को दृढ़ विश्वास हो गया था कि इस सभाद्वारा पुष्करणे ब्राह्मणोंकी अनेक शुभ कामनाएं पूर्ण हो सकेगी। किन्तु बड़े दुःखके माय कहना पड़ता है कि- श्रेयांनि बहु विघ्नानि' अर्थात् श्रेष्ठ कामों को पूर्ण करने के बोचही में बहुत से विघ्न आ पड़ते हैं । वही वात इस सभाके लिये भी चरितार्थ हुई, कि जिससे सभा - पने उद्देश्य को पूर्ण करने में बिलकुल ही असमर्थ हो गई। (६) पुस्तक बनाने में मेरा उद्योग
इस सभाद्वारा भविष्य में जो स्वजातिकी उमति होने की आषा की गई थी वह आशा निराशा होती देखकर उस समय मुझे जो क्लेश हुआ था वह अकथनीय है। किन्तु मैं तो अपने विचारें हुये ('पुष्करणोत्पत्ति' नामक पुस्तक निर्माण करने के) कार्य को पूर्ण करने में किञ्चित् भी पीछा नहीं हटा । वरन प. हिले से भो विशेष दृढ़ हाके उसकी पूर्ति में प्रवृत हो गया,सो आजतक यथावकाश उसकी खोज में लमा ही हुआ हूँ, और
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