________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
9.
शून्यारण्यनिभं चाभूत् श्रीमाले जनवर्जितम् ॥ सा.रकाशं कया कश्चित् तीर्थयात्रां न गच्छति । श्रीमालध्यायिनो नित्यं विश्वसन्ति दिवानिशम् ॥
प्रथम जिन सैन्धवारण्य वासी ब्राह्मणों को गौतमकी ईर्ष्या करने से क्रोधित अंगिग्स ब्राह्मणों से शाप मिला था उसका बदला लेनेके लिये उन्होंने उपवास करके सिन्धु समुद्र ) का आगधन किया, जिसमे समुद्र उनपर प्रसन्न हुआ, और उन्हें याचना करने को कहा | तब श्रीपाल क्षेत्रका नाश करनेके लिये उन्होंने एक राक्षमीकी प्रार्थना किई । वह राक्षसी श्रमाल क्षेत्रमें रहनेवाले उन ४५००० (श्रीमाली ब्राह्मणों की विवाह के लिये वेदी (चँवरी) में लाई हर्ड कन्याओं को पकड़ के ले जाक पाताल में कंकोळ नाम नागको सर आने लगी । किन्तु वह नाग उन कन्याओं का पालन अपनी स्त्र कन्याओंकी भाँति करता रहा । हे राजा इस प्रकार सहस्रों ही कन्याओं को वह ले गई परन्तु इस बातका उन ( श्रीमाली ) ब्राह्मणों से कुछ भी उपाय बन नहीं सका अतः दुःखा और सारिका मे भयभीत हो के श्रीमाल क्षेत्र को छोड़ के भाबू पर्वत पर जा बसे । इससे वह नगर मनुष्यों से रहिल मंगलकी तरह उजाड़ हो गया । तथा उस सारिका के भय से तीर्थ यात्राको भी लोगों का आना बन्द हो गया । और वे ब्राह्मण ऐसे नगरके छूट जानेसे रात दिन चिन्ता करने लगे ।
अथ प्रतापवान् राजा श्रीपुओ नाम विश्रुतः । कदाचिदयं तत्रागादेकाको मृगमन्वटन् ॥ कथं शून्यमिदं जातं नगरं देवनिर्मितम् ।
For Private And Personal Use Only