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पुष्करणे ब्राह्मणों में सन्तोषिता ।
जैसलमेर के पुष्करणे ब्राह्मण आचार्य वेणीदासजी सं० १६६८ में तीर्थयात्राको जाते हुये फळोधी नगरमें आये। उस समय बी. कानेरके महाराजा रायसिंहजीकी गङ्गा नाम राणी ( जो जैसळमेरके भाटी राजा हररायजीकी पुत्रीथीं ) वहां पर रहती थीं उन्होंने वेणीदासजी से कहा कि मेरा पुत्र शूरसिंह है, उसका राज्यमें कुछभी मान्य नहीं है । वेणीदासजीने कहाकि आजसे तीसरे वर्ष आपका पुत्र बीकानेर की राजगद्दीका अधिकारी होगा, आप चिन्ता न करें । यह सुनके राणीको बहुत आचर्य हुआ । परन्तु अपने पुत्र को राज्य मिलने पर आधा राज्य इन वेणीदा सजीको दे देनेका अपने मनमें प्रण कर लिया । वेणीदासजी तौ तीर्थयात्रा को चले गये, किन्तु पीछेसे सं० १६७० में राणीक पुत्र शूरसिंहजीको बोकानेरका राज्य मिल गया। तब गङ्गा राणी अपना पण पूर्ण करने के लिये बहुत आग्रहके साथ वेणीदासजी को बीकानेर में बुलाके अपना आधा राज्य देने को तैयार हुई। किन्तु परम सन्तोषी वेणीदासजीने राज्य लेनेसे स्पष्ट इनकार करके कह दिया कि हमें तौ राज्य नहीं चाहिये । लाचारन राणीने अपने राज्यका आधा लवाज़िमा मात्र ही देके अपना प्रण पूर्ण किया । फिर इनके वंशवाले बहाँपर बड़े प्रतापी हुये और ७ वार विष्णु यज्ञ किये उस प्रत्येक यज्ञ में अपनी जातिके सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको दूर से बुलाके एकत्र किये और प्रत्येक वार ७ । ७ दिन तक भोजनादिसे सत्कार करके प्रत्येक वार और प्रत्येक ब्राह्मणको २) २) रु० दक्षिणा देके विदा किये । ऐसे विष्णु यश (सहस्रभोज ) ३ तौ धरणी धरजीने, १ महानन्दजीने, १
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