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स पर्यायेण यातीमान्नरकानेकविंशतिम् ॥८७॥ एतद्विदन्तो विद्वाँसो ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः।। न राज्ञः प्रतिगृह्णन्ति प्रेत्य श्रेयोऽभिकाशिणः॥९॥ प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसङ्गं तत्र वर्जयेत् । प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्म तेजः प्रशाम्यति ॥१८॥
परन्तु ब्राह्मणोंका यहभी धर्म है कि आप भलेही दुःख पा केवे किन्तु दूसरोंको दुःखोंसे बचावे; अत: आपका दान लेनेको मैं आया हूं। यह कहके वह दान ले लिया। दान लेनेसे पहिले वे सुन्दर स्वरूपवान् बड़े तेजस्वी दीखते थे परन्तु दानके सङ्कल्पका जल हाथमें लेतेही अग्निदग्ध के समान ( काले, भीलसरखे) हो गये । अतः उस दानका धन तो ब्राह्मणों को खिला दिया और आप फिर पुष्करजी पर गायत्री मन्त्रका पुरश्चरण करके उस दानके प्रायश्चित्तसे निवृत्त हुये । तब उनका शरीर पूर्ववत् सुन्दर तथा तेजस्वी हो गया। किन्तु जिस हाथमें सङ्क. ल्पका जल लिया था उसकी हथेलीमें एक काला दाग़ लोगोंको यह दिखानेके लिये रहने दिया कि राजाओंका दान लेनेसे ऐसा कष्ट उठाना पड़ता है। फिर जयपुर नरेशने उनकी यह सामर्थ्य देखके उनका बड़ा सत्कार करके 'कायमाबाद' नाम एक गाँव जो अब मालियोंकी वासणी कहलाती है' उनको दिया सो आज तक उनके वंशवालों की स्वाधीनतामें है।
पुष्करणे ब्राह्मणोंमें दान करनेकी उदारता।
पुष्करणे ब्राह्मण व्यास तापाजी जोधपुरके महाराजा मोटा
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