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अयोध्याऽधिपतिः श्रीमानासीदतुलविक्रमः । युवनाश्वसुतो राजा मान्धातेति श्रुतो भुवि ॥ दृष्टिमार्गादेवमुनिर्वसिष्ठः सह भार्यया । तमर्चादिभिरभ्यर्च्य काकुत्स्थकुलदैवतम् ॥ प्रणिपत्य महोपालः कृताञ्जलिरथाब्रवीत् ।
महादेवजी कहने लगे कि एक समय अयोध्याधिपति यु. वनाश्वका पुत्र 'मान्धाता' नाम बड़ा प्रतापी राजा वसिष्ठ मुनिको अरुन्धती सहित आते देखके प्रणाम पूर्वक उनकी पूजा करके नम्रता सहित कहने लगा ।
भान्धातोवाच ।
यतः प्राप्तोऽसि भगवन् प्रदेशान्मुनिवत्सल ॥ तन्निवेदय में सर्व श्रवणा होस्मि चेन्मुने ||
मान्धाता पूछने लगा कि हे महामुने आप जिस स्थान से मेरे घर पधारे हैं वह स्थान, यदि मैं श्रवण करने योग्य होऊं तो, मुझे कहिये ।
वसिष्ठ उवाच । अर्बुदारण्यमतुलं तीर्थ कोटिसमन्वितम् । श्रुतं यदि भवेद्रूप पृथिव्यां पावनं परम् ॥ यत्प्रसादेन पद्मायाः पञ्चकोशप्रमाणतः । श्रीमाल क्षेत्रमित्यासीद्विश्रुतं भप भूतले ॥ राजा का प्रश्न सुनके महर्षि वसिष्ठजी कहने लगे कि राजा तुम्हारे सुननेमें आया होगा कि पृथ्वी में करोड़ों तीर्थों से युक्त
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