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प्रथा की कठोरता के कारण पुष्करणे ब्राह्मणों की समग्र जाति कन्या विक्रय आदि दुष्कर्मों से बहुधा बची हुई है ।
कच्छी पुष्करणे जिसे दूसरी जाति कहते हैं वह वास्तव में पुष्करणे ब्राह्मणों से भिन्न कोई अन्य जाति नहीं है और न पुष्करणोंकी जातिसे बाहर किई हुई जाति है । केवल कन्याओंका द्रव्य ले लेनेसे उन्हें अकुलीन समझकर दूसरी जाति कहते हैं, जिसका वृत्तान्त य है :——
कच्छ देशके समीप वर्त्ती हालार, मच्छुकाँठा, सोरट, गोयलवाड़, और काठियावाड़ आदि प्रान्तोंके छोटे २ ग्रामोंमें बासु, हेडाउ (पुरोहितों के सह गोत्री ), कपिलस्थालिया ( छाँगाणी ), और बोड़ा आदि नख वाले. पुष्करणे ब्राह्मणों के घर अनुमान १००।१२९ होंगे उनके साथ कच्छी पुष्करणों का रोटी बेटीका सम्बन्ध सदासे चला आता है । परन्तु बाहर ग्रामोंमें रहनेके कारण पिछले थोड़े समय से उनको विना द्रव्य दिये कन्या - एं मिलनी दुर्लभ हो जाती देखकर वे स्वयं भी लाचारन अपनी भी कन्याओं का द्रव्य लेने लग गये | इसी लिये उन्हें दूसरी जाति पुकारने लग गये हैं ।
परन्तु पुष्करणोंकी जाति मर्यादानुसार कन्याका द्रव्य लेने वाला जाति से बाहर कदापि नहीं हो सकता । इसी लिये कच्छियोंने भी केवल सम्पूर्ण जाति भोजन के समय बीचमें लकड़ी रख देनेके अतिरिक्त परस्पर में एक दूसरेके भोजन आदि अन्य व्यवहारोंमें कुछ भी अन्तर नहीं डाला है । इतनाही नहीं किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनकी कन्याएं भी व्याह ळाते हैं । इससे सिद्ध होता है कि बीचमें लकड़ी रखना भी प्रारम्भ में तो केवल इसी लिये किया गया होगा कि इस भयसे ये कन्या विक्रय करना छोड़ दें, परन्तु अन्तमें वह प्रथाही चल पड़ी होगी । पर ऐसे कन्याओंका द्रव्य लेने वाले इने गिने तो सभी समुदायों में पाये जावेगे तो भी उनका इतना अपमान कहीं भी नहीं किया जाता जितना कि कच्छी पुष्करणोंने किया है ।
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