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पुष्करणे ब्राह्मणोमें कन्या देनेकी प्राचीन रूढ़ि।
इस जाति वाले कन्याएं जिन गोत्रों में सदा से देते आये हैं, प्रायः फिर भी कन्याएं उन्हीं गोत्रों में देने ही में अपना विशेष गौरव समझते हैं । इसी प्रकार कन्याएं जिन गोत्रों की सदा से लेते आये हैं, उन्हीं गोत्रों से फिर भी कन्याएं मिलने में भी अपना विशेष सौभाग्य समझते हैं। अर्थात् कन्या सम्बन्ध में जहां तक हो सके नवीन सम्बन्धी करने की अपेक्षा प्राचीन सम्बन्धियों ही को श्रेष्ठ मानते हैं । इस लिये इस जाति में यद्यपि कन्याओं की कमी से तो अलबत्ता किसी २ को कन्या मिलनी दुर्लभ हो भी जाती है, तथापि इस प्राचीन प्रणाली के कारण साधारणतः प्रत्येक साधारण स्थिति वालों को भी कन्याएं मिल ही जाती हैं।
पुष्करणे ब्राह्मणों में कन्या देने की उदारता।
एक समय जोधपुर के महाराज शूरसिंहजी के गुरु व मुसाहिव श्रीमान् नाथाजी व्यास को उन की स्त्रीने कहा कि अपनी कन्या विवाह करने योग्य हो गई है अतः अब इस की सगाई कर के शीघ्र विवाह कर देना चाहिये । नाथाजीने पूछा कि लड़का
न्यात पतित पावनहै, न्यातही आक्ति कोभी सपांक्त कर सकती है। तो फिर उनके साथ खुल्लम खुल्ला रोटी बेटी का सम्बन्ध रखते हुये भी सम्पूर्ण जाति भोजन के समय बीचमें लकड़ी रखना और उनको दूसरी जाति कह कर लोगोंमें वृथाभ्रम पैदा करना कच्छी समुदायके पुष्करणे ब्राह्मणों को शोभा नहीं देता । अतः कच्छी पुष्करणोंको चाहिये कि वे उन ग्रामवालों पर दया कर उन्हें इस अपमान से बचा के महान् यशके भागी बनें ।
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