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से प्रसिद्ध हुये । एक विशा जाति के पुष्करणे ब्राह्मण 'भौमानन्दजी' नाम से बड़े संयमी हुये थे । वे मौन रखते थे । एक दिन किसी मूर्खने उन के परमहंस पद की परीक्षा करने के लिये चूने के पेड़े बना कर खिला दिये और वे प्रसन्नता पूर्वक खा गये। किन्तु उन को कुछ भी बाधा नहीं हुई। इस बात को देख कर वह मूर्ख बहुत घबराया और क्षमा प्रार्थना किंई ।
पुष्करणे ब्राह्मणोंकी कुलीनता। द्विजों में उत्तम कर्म करने वाले तो कुलीन और अधम कर्म करने वाले अकुलीन माने जाते हैं । अतः पुष्करणे ब्राह्मणों में भी कन्या विक्रय आदि निन्द्य कर्म करने वाले तो अकुलीन
और न करने वाले अकुलीन मानने की प्राचीन प्रथा है । जिस कुल में पूर्वोक्त निन्द्य कर्मों का दोष नहीं लगा हो वह कुल तो चाहे निर्धन ही क्यों न हो, यहां तक कि केवल कुंकुम और कन्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सके, तो भी उस कुल से कन्या लेने देने का सम्बन्ध प्रसन्नता पूर्वक प्रायः सभी पुष्करणे लोग कर लेते हैं। किन्तु जिस कुल में पूर्वोक्त दोष लग गया होतो फिर उस से सम्बन्ध रखने में प्रायः हिचकते हैं। इतना ही नहीं । किन्तु कच्छ देश वाले तो उन को अपनी जाति से भी पृथक् जाति ( अर्थात् अकुलीन जाति ) समझते हैं। और उन की कन्या व्याइ लाने वाले को भी दूसरी जाति की कन्या व्याह लाने वाला ( अकुलीन) पुकारते हैं। इस प्रकार जाति
*इसी वात को सुन कर कितनेक अनभिज्ञ मारवाड़ी पुष्करणे ब्राह्मण ऐसा खयाल करने लग गये कि सचमुच ही कच्छी पुष्करणे दूसरी जाति की कन्या व्याह लाते होंगे । किन्तु यह उनका केवल भ्रम है, क्योंकि
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