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जीको व्याह देनी चाही । वह शाहज़ादी भी इनके रूपसे मोहित हो गई थी । किन्तु राजकन्या सहित राज सम्पदाके ऐश्वर्य का लाभ देखकर भी धर्मकी पुष्टि करनेवाले क्या ऐसे अधर्म के कार्यको कभी स्वीकार करसकतेथे ? उस समय इस श्लोकका स्मरण किया:
न जातु कामान्न भयान्न लोभात् । धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः । घर्मो नित्यः सुखदुःखस्त्वनित्यो जोवो नित्यो हेतुरस्यत्वनित्यः ॥
अर्थात् धर्मको न तो किसी कामना के लिये, न भयसे, न लोभसे और न जीवन के लिये त्यागे । क्योंकि संसार में जितने प्रकारके सुख दुःख हैं वे सब अनित्य हैं किन्तु यह धर्म है सोनिस है और जीव भी नित्य है । अतः अनित्य वस्तु के लिये नित्य वस्तु का त्याग कभी भी न करे ।
अत: धर्म पर दृढ़ विश्वास करके उस आपत्ति से बचने के लिये बरात बनाके विवाह करनेको पीछा आनेका बहाना करके वहांसे अपनी जागीर काकरेच के मुल्क में चले आये और वहां से फिर व्याह करने की नाहीं करदी | तब बादशाही फौज आई तो ये सब कुटुम्ब सहित लड़ मरे केवल एक देवऋषिजी अपना जी बचा पूर्वजों की जागीरको तिलाञ्जलिदे के ब्रह्मचारी के वे में जैसलमेर में जाके लटक हाने लग गये । दैव योग से -वहाँके भाटा राजा लक्ष्मणजीके भी बहुत समय से वैसा ही अदृष्ट था। उन्होंने उनको भी आरोग्य कर दिये । फिर सजाने इनका विवाह अपनी वंशपरम्पराके पुरोहि देवायतजीक वंश
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