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... "पुष्करणे ब्राह्मण मारवाड़ के उत्तर और पश्चिम थल यानी निर्जल हिस्मों में ज़ियादा वसते हैं। उससे आगे बीकानेर, जैसलमेर भौर सिन्ध तक इनकी वसती चली गई है, बल्कि मारबाड़ में उधर ही से भाये हैं। अकसर खोपों के बयानों से पाया जाता है कि वे पहिले जैसलमेर के इलाके में रहती थीं। वहां से फलोधी आई और फलौधी से जोधपुर वगैरः परगनों में जाकर पसी है । इन के पुराने गीतों से जो रसम के तौर पर व्याहों में गाये जाते हैं निर्जळ मुल्क में इन के असली वतन होने का पता लगता है।"
इन सब के उपरान्त एक बात बहुत ही अधिक ध्यान देने की यह है कि पुष्करजी के आसपास चारों ओर बहुत दूर १ तक ब्राह्मणों की आबादी पञ्च द्राविड़ों को बिलकुल नहीं है किन्तु पञ्च गौड़ों ही की है । तो पुष्करजी पर जो ८० हजार ब्राह्मण इकट्ठे हुये होतो वे भी तो अवश्य ही गौड़ ही होने चाहियें, इस लिये उस समय जो २० हज़ार ओड ब्राह्मण बने हों तो वे भी अपने आचार विचार, खान पान, आदि सब व्यवहारोंमें उन गौड़ ही ब्राह्मणों का अनुकरण करते क्योंकि उन ओडोंने उन गैड ही ब्रह्मणों से तो ब्राह्मण पन सीखा होगा। किन्तु पुष्करणे ब्राह्मणों में आचार विचार, खानपान, आदि सम्पूर्ण व्यवहारों का अनुकरण गौड़ ब्राह्मणों का कुछ भी नहीं है वरन (पञ्च द्राविड़ों में गुर्जर होने से) द्राविड़ों ही का है। हाँ बहुत काल तक निर्मल देश में रहने और वहां के राज्य कर्ताओं के पुरोहित, कुल गुरु और मुसाहिब आदि होने से उन के साथ २ आपत्काल में जहां तहां भटकते फिरने आदि देश काल के कारण आचार विचार में कुछ शिथिलता तो हो गई हतोभी
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