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ફર
जजहं जाति विराजही ता पठवे सब ओर ॥
उन भाटी राजपूतों ने ब्राह्मणों से पूछा कि हे ब्राह्मणो ! अब हम अपना निर्वाह कैसे करें ? तत्र ब्राह्मणोंने कहा कि धर्म शास्त्र के अनुसार अपने से ७ सपिण्ड अर्थात् ४९ पीढ़ो तक का वंश छोड़कर फिर परस्पर में विवाह करने को दोष नहीं है तभी तो पूर्व काल में यदुवंशियोंने परस्परमें विवाह किये थे । जैसे यदुराज श्री कृष्णचन्द्र महाराजने सतराजित यादव की कन्या सभामा से विवाद किया था । अतः तुमभी अपने २ से ४९ पोढ़ी ऊपर वाले पुरुष के नाम से गोत्र बांधकर विवाह करलो ऐसी आज्ञा देदी । तत्र ये अपनी नवीन जाति तथा पृथक् २ गोत्र बना के वहां से पीछे विदा होते समय सम्पूर्ण ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया और अपनी वंशपरम्परा के पुरोहित (कुल गुरु) पुष्करणे ब्राह्मणों को सदा के लिये अपनी जाति के गुरु माने परन्तु उस आपत्काल में जिन २ जातिवाले पुष्करणे ब्राह्मणोंने जिन २ भाटियों का सङ्ग नहीं छोड़ा था उन २ भाटियोंने अपने २ वंशके लिये उस २ जाति के पुष्करणे. ब्राह्मणों को विशेष करके पुरोहित (कुलगुरु ) नियत किये। जैसे:
भाटियों की जाति में से २८ जातिवाले तो पुष्करणों की जाति में से पणियों को, २५ जातिवाळे हरषों को, १३ जातिबाले केवलियों को, २ जातिवाळे लुद्रों ( कल्लों ) को, २ जातिवाले ढाकियों को, २ जातिवाले आचारजों को, १ जातिवाले वासुओं को, १ जातिवाले पुरोहितों को, १ जातिवाले बोड़ों को, १ जातिवाले थानवियों को, १ जातिवाले वामुओं को और ७ जातिवाले अन्याय जातिके पुष्करणे ब्राह्मणों को अपने पुरोहित मानते सो आज तक वैसेही मानते चले आये हैं ।
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