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इन्हीं लल्लूजीसे ८ पीढ़ी पहिले कमलापतिजी हुये थे । वे स्वर्णसिदि (रसायन वा कीमियाँ करना) जानते थे। यह विद्या वंश परम्परासे लल्लूजीको भी प्राप्त हुई थी। इसी विद्या के प्रतापसे उन्होंने अनेक परोपकारी कार्यों में असङ्ख्य धन व्यय करके बड़ी कीर्ति माप्त की थी।
सं० ९२६ में भाटी राजपूतों के पुरोहित (कुल गुरु) देवायतजी के पुत्र दीनजीने लुद्रवा नगर में 'दीदासर' नाम एक तालाब बनवाया था, जो आजतक उनके नाम से प्रसिद्ध है।
सं० ९०९ में भाटी देवराजने अपनी राजधानी देरावल में बनाई। फिर सं० ९१५ में लुद्रवा नगर के पँवार राजा जसभानको मार के अपनी राजधानी लुद्रवे में नियत की । उस समय लुद्र (पँवार) राजपूतों के वंश परम्परा के कई पीढ़ियों के पुरोहित ( कुलगुरु ) विमलाजी को, जो आचारज ( आचार्य ) जाति के पुष्करणे ब्राह्मण थे, किलेदारी व गङ्गाजल की नौकरी दी।
और उन की सन्तान को परदेश बैठों को भी कन्दोरे बन्ध दक्षिणा देनेका ताम्र पत्र कर दिया । अतः आजतक ब्रह्मभोजके समय उनकी सन्तान को परदेश बैठों को भी दक्षिणा दी जाती है। (देखो जैसलमेर की तवारीख़ का पृष्ठ २३ वाँ)।
सं० ८९८ में वारह जाति के राजपूतो के कई पीढ़ियों के कुल गुरु पुष्करणे ब्राह्मण पुरोहित देवायतजीने अपने शरण में आये हुये, जैसलमेर के वर्तमान महाराजा के पूर्वज, भाटी 'देवराज' को अपना पुत्र कह के अपने रत्नू नाम के पुत्र के साथ भोजन कराके शत्रुओं से प्राण बचाये थे। जिस का वृत्तान्त स्वयं टाड राजस्थान के भाग २ में जैसलमेर के इतिहास के अध्याय दूसरे में ऐसे लिखा है:
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