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उनके साथ सती हो गई, और अपने कुल में होली की झाल देखने तथा उसका उत्सव करनेवालों को श्राप दे गई। उस दिन से चोटिये जोशी मात्र न तो जलती हुई होली की प्रथम झाल देखते हैं और न होली का उत्सव करते हैं। और जो कदा. चित् भूल से भी ऐसा हो जावे तो वह वर्ष उनके लिये आनन्द कारी नहीं होता है। इस बातको चोवटिये जोशी सदासे मानते चले आये हैं। । इन्ही मोतीरामजी से कई पीढ़ी पहिले चोवटिया 'प्रवरजी' हुये थे, जो ज्योतिष विद्या में साक्षात् बृहस्पति तुल्य थे । इन की परीक्षा करने के लिये शुक्र और बृहस्पतिने मनुष्य का स्वरूप धारण कर इनके पास आके प्रश्न किया कि 'इस समय शुक्र
और वृहस्पति कहां है ?' तो 'परवरजी' ने प्रथम स्वर्ग की और फिर पाताळ को गणित की तो वहां पर इनका होना सिद्ध नहीं हुआ | तो फिर मृत्यु लोककी गणित करते करते अन्त में कह दिया कि 'आप ही दोनों हैं। इससे प्रसन्न हो करज्योतिषविद्या का वरदान व ज्योतिषी की पदवी दी। तबसे चोवटिये मात्र 'चोवटिये जोशी' कहलाते हैं। यह बात चोवटिये जोशियों के इतिहास में प्रसिद्ध है। - संवत् १०२५ में लुद्रवे नगर में पुष्करणे ब्रामण लुद्र (कल्ला) पद्मसीजीने पंचपर्वी नामक लघु विष्णु यज्ञ किया था। तब अपनी जाति भर के समस्त लोगों को आसपास के गाँवों से बुलाके एकत्र करके ५ दिन तक भोजन कराके प्रत्येक ब्राह्मण को एक एक रुपया दक्षिणा दिया। तथा पुष्करणे ब्राह्मणों के भाट दूदाराम को कड़े, कण्ठी, मोती आदि का शिरोपाव और रु०२००) नकद दिये थे।
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