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और वे पुष्कर खोदने वाले एकदम २० हजार ओड भी केवल एक जनेऊ के धागे के लिये क्यों ठाली ब्राह्मण बनने बैठ थे? क्यों कि नाहररावने उन्हें कोई जागीर तो दो ही नहीं थी कि जिसके लोभसे भी वे गीताकी आज्ञा भंग करके दूसरी जाति का धर्म धारण करते ।
ऐसे ही उन ८० हज़ार ब्राह्मगों पर भी ऐसी क्या आपत्ति आ पड़ी थी कि वे केवल एक ही दिन के भोजन के लिये २० हजार शूदों को अपने साथ भोजन कराके ब्राह्मण बनाते।
इस देश में (१) ब्राह्मण, (२) क्षत्रिय, (३) वैश्य और (४) शूद्र-ऐमे चार वर्ण वा दर्ने परम्परा से चले आते हैं । इन में से ऊपर के दर्जे वाली जाति में से कोई भी मनुष्य अपना आचार भ्रष्ट कर दे तो वह उस जाति से अलग कर दिया जाता है। और अपने आचार के अनुकूल किसा नीचे दर्जे वालो जातिमें जा मिलता है। ऐसे उदाहरण सब नातियों में मिलते हैं। किन्तु नीचे के दर्ने वाली जातिमें से कोई भी मनुष्य, चाहे जैसा श्रेष्ठ आचार धारण करे तो भी, अपने से ऊँचे दर्जे वाली किसी जाति में कदापि नहीं जा सकता । ऐसा उदाहरण केवल एक विश्वामित्र के क्षत्रिय से ब्राह्मण होने के अतिरिक्त और कोई नहीं मिलता। अर्थात् पूर्व काल में विश्वामित्रने राजऋषिसे ब्रह्म ऋषि होना चाहा, किन्तु ब्राह्मणोंने स्वीकार नहीं किया। इस से क्रोधित होके विश्वामित्रने महर्षि वसिष्ठजी के १०० पुत्र मार दिये तो भी वसिष्ठजीने ब्रह्मऋषि कहना स्वीकार नहीं ___+ स्वधर्मे निधनः श्रेयः परधर्मो भयावहः । गीता. . अर्थात् दूसरी श्रेष्ठ जाति का धर्म धारनेकी अपेक्षा अपनी ही नीच जाति में मरना अच्छा है।
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