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गई है। वास्तविक प्रासाद शिखरों के साथ उन्हें मिलाकर अभी तक कोई अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है। भाग ने सासषी शती में बहभूमिक शिखरों का उल्लेख किया है। प्रारम्भिक गुप्तकाल में बने हुए सांची के छोटे देव मंदिर में कोई शिखर नही है। देवगढ़ के दशावतार मंदिर में शिखर के भीतर का ढोला विद्यमान है। वह इस बात का साक्षी है कि उस मंदिर पर भी शिखर की रचना की गई थी। शिखर का मारम्भ किस रूप में और कब हुआ वह विषय अनुसंधान के योग्य है । पंजाब में मिले सुए उम्बर जनपद के सिक्कों पर उपलब्ध देवप्रासाद के ऊपर विभूमिक शिखर का स्पष्ट अंकन पाया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शिखरों का निर्माण गुप्त युग हो पहले होने लगा था । शास होता है कि मंदिर के वास्तु में दोनों प्रकार मान्य थे। एक शिखर युक्त गर्भ गृह या मंडप था और दूसरे शिखर विहीन चौरसक्त बाले साश मंदिर जैसे सांची और मालवा के मुकन्दरा प्रादि स्थानों में मिले हैं। इस प्रकार के मंदिरों के विकासका पूर्व रूप धारण कालीन गन्धकुटी में प्राप्त होता है, जिसमें तीन बड़े पत्थरों को चौरस पत्थर से पाट कर उसके भीतर बुद्ध या कोधिसत्व की प्रतिमा स्थापित कर दी जाती थी। कालान्तर में तो शिखर मंदिरों का अनिवार्य अंग बनाया और उसकी शोभा एवं रूप विधान में अत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा। मंदिर के गर्भ गृह में खड़ी हुई या बैठी हुई देव प्रतिमा की ऊंचाई कितनी हो और उसका दृष्टिसूत्र फितना ऊंचा रखा जाय इसके विषय में द्वार की ऊंचाई के प्रसार निर्णय किया जाता था। जैसे एक विकल्प.यह था कि द्वार की ऊंचाई केपाठया नत्र भाग करके, एक भाग छोड़कर शेष कंवाई के तीन भाग करके उनमें से दो के बराबर मूति की ऊंचाई रखनी चाहिए।
मंदिर के शिखर की बिना प्रत्यन्त जाटलषम है। मंडोवर के बच्चे पर दो एक घर और लगाकर तब शिखर का प्रारम्भ करते हैं। बास्तुसार में इन घरों के नाम बेराहु और पहारू कहे है (वास्तुसार पृ.११२) किन्तु मंडन ने केवल पहार नामक यर का उल्लेख किया है। शिखर के जठते ए बिन्यास में शगों की रखना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। मंडोवर की विभिन्न फालनामों की ऊंचाई स्कन्ध के बाद जब शिखर में उठती है तो कोण, प्रतिरप और रथ आदि की सीध में शग बनाये जाते हैं । इन्हीं शृगो के द्वारा शिखर का काठ जदिल और सुन्दर हो जाता है । बीच के शिखर को यदि हम एक ईमाई मानें तो उसकी बारों दिशाओं में चार उममा म बनाये जा सकते हैं। ये ग भी शिखर की प्राकृति के राते हैं। यदि मूल शिखर का सामन से दर्शन किया जाय तो वही आकृति शग की होती है। प्रासाद के शिखर का सम्मुख दर्शन ही शग है। मूल शिखर और उसके चारों ओर के चार शग इस प्रकार कुल ५ शग चुक्ता प्रासाद का एक सीधा प्रकार हुया । बीय के शिखर को मूलमंजरी और चारों ओर के मूलभूत बड़े शृगों को उरुग कहते हैं। इसी के लिए राजस्थानी और गुजराती स्थपतियों से छातियाग शब्द भी प्रचलित है। वस्तुतः शृग और शिखर पर्यायवाची हैं । ठक्कुर फेस ने उमg'ग या वातिया 'ग को उर सिंहर (= शिखर) कहा है । मूलमंजरी के चार भर या पाश्कों में चार उरागों के अतिरिक्त प्रोर भी अनेक शृग बनाये जाते थे। सूत्रधार मंडन ने कहा है कि उसयों की संख्या प्रत्येक भर में एक से नब तक हो सकती हैं (४।१०) सबसे बड़ा उरु शिखर की कितनी ऊंचाई तक रक्ला जाय इसका भी मियम दिया गया है । शिखर के उदय के १३ भाग करके नीचे से सात भाग वा पहला छातिया शृग बनाया जाता हैं । अर्थात शिखर की ऊंचाई के सात भाग पहले उहाग के नीचे छिप जाते हैं | अब इस उपग पर दूसरा उहग बैठाना हो तो फिर इसकी ऊचाई के तेरह भाग करके सात भाग तक के उदय तक दूसरा शूग बनाया जाला है इस प्रकार जिस खिर में मय जग रखने हो उसकी बाई सोच विचार कर उसी अनुपात से निश्चित करनी होगी । शिखर में गोलाई लाने या ढलान देने के लिए प्रावश्यक है कि यदि उसके मूल में दस भाग होवो अप स्थान या सिरे पर छः भाग का अनुपात