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अंसा
अकट
अंसभागे, वि. व. अट्ठ. 257; - वन्तु त्रि., [अस्रवत], किनारों वाला - अट्ठसोळसद्धतिंसादिअंसवन्तो वि. व. अट्ट, 288. अंसा व्यु., अनिश्चित, संभवतः पु., अंस का प्र. वि. के ब. व. का शब्दरूप, परन्तु - अंसाय ... पिळकाय ... भगन्दलेन, महानि. 272 में स्त्री. रूप में उल्लिखित [अर्शस], अर्श, बवासीर, भगन्दर - अंसा पिळका भगन्दला, अ. नि. 3(2).91, तुल. अरिस. अंसि स्त्री., [अश्रि], कोना, किनारा, कोण - एकमेकाय
अंसिया, रतना सत्त निम्मिता, वि. व. 1135; तत्थ पन एकमेकाय अंसियाति अट्ठसेसु, वि. व. अट्ठ. 257. अंसिक त्रि., कन्धा अर्थ वाले, 'अंस' शब्द से व्युत्पन्न [अंसिक], अपने कन्धों पर भार ढोकर ले जाने वाला व्यक्ति - एवं अंसिको, क. व्या. 352; मो. व्या. 4.30. अंसु पु., [अंशु] क. धागा, सूत, सूत्र का सूक्ष्म अंश -
वत्थादिलोमेप्यंसुकरे अभि. प. 1121, ... अंसु अभन्तरगतम्पि निस्सेसं मलं पवाहेत्वा, ध. स. अट्ठ. 284; ख. पु. [अंशु]. सूर्य की किरण, रश्मि - मरीचि द्वीसु भान्वंसु, अभि. प. 64; - क नपुं., [अंशुक, अंशु + क, अंशवः सूत्राणि विषया यस्य तत्], वस्त्र, कपड़ा, सामान्यतया पहना जाने वाला वस्त्र - चेलमच्छादनं वत्थं वासो वसनमंसकं, अभि. प. 290; - माली पु.. [अंशुमालिन्], सूर्य, किरण रूपी मालाओं वाला भानु - अंसुमाली दिनपति तपनो रवि भानुमा, अभि. प. 63. अकक्कस त्रि., कक्कस का निषे. स. [अकर्कश], चिकना, विशुद्ध, कोमल - अकक्क्सं विज्ञापनि, गिरं सच्चमुदीरये, ध. प. 408; अकक्क्स न्ति ... अफरुसं अगळितं.... जा. अट्ठ. 5.196; - संग त्रि., ब. स. [अकर्कशाङ्ग], कोमल, मृदु अथवा चिकने अङ्गों वाला - अकक्कसङ्गो न च दीघलोमो ..., जा. अट्ठ. 5.194. अकक्खळ त्रि., कक्खल का निषे., तत्पु. स. [अकक्खट], वह, जो कठोर नहीं हो - ता स्त्री. भाव. [अकक्खटता]. चिकनापन, कोमलता - अकक्खळताति अकक्खळभावो, ध. स. अट्ठ. 194, ध. स. 44, 45; - वाचता स्त्री., [अकक्खटवाचिता], वाणी की कोमलता - अफरुसवाचताति
अकक्खळवाचता, ध. स. अट्ठ. 418. अकंख त्रि., कंख का निषे., तत्पु. स. [अकाङ्क्ष], इच्छा से रहित, तृष्णारहित, आकांक्षाओं से मुक्त - स वे अनेजो अखिलो अकङ्को, सु. नि. 481; स्वाहं अकङ्घो असितो अनूपयो, स. नि. 1(1).211. अकच्छ त्रि., कच्छ का निषे., तत्पु. स. [अकथ्य]. न कहने
योग्य, उपदेश न देने योग्य, संलाप में प्रयोग के लिए अनुपयुक्त - पुग्गलो वेदितब्बो यदि वा कच्छो यदि वा अकच्छोति, अ. नि. 1(1).227, अकच्छोति कथेतुं न युत्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.178. अकट/अकत त्रि., कट का निषे. स. [अकृत], अनिर्मित, हेतुओं एवं प्रत्ययों से अनुत्पन्न - सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अकटविधा, अनिम्मिता, अनिम्माता, दी. नि. 1.49, म. नि. 2.195; स. नि. 2(1)197; - टि. बुद्धकालीन छ: बौद्धेतर श्रमण धर्माचार्यों में से कुछ ने तत्त्वों को अकृत अथवा हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं माना था। बौद्धेतरसम्प्रदायों एवं विनय में 'अकत' रूप में प्रयुक्त; - टानुधम्म त्रि., [अकृतानुधर्म], ऐसा भिक्षु, जिसके लिये भिक्षुसंघ ने
ओसारण (संघ में पुनर्वास) नामक अनुधर्म का अनुमोदन नहीं दिया है - छब्बग्गिया भिक्खू ... अरिटेन भिक्खुना अकटानुधम्मेन ... सद्धिं सम्भुजिस्सन्तिपि ..., पाचि. 182; सो ओसारणसङ्घातो अनुधम्मो यस्स न कतो, अयं अकटानुधम्मो नाम, पाचि. अट्ठ. 126; द्रष्ट. अनुधम्म एवं ओसारण, (आगे); - पब्मार पु., [अकृतप्राग्भार], पर्वत का प्राकृतिक ऊंचा क्षेत्र, निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त प्राकृतिक पर्वत-गुफा - एकस्मिं अकटपब्भारे ससीसं पारुपित्वा, ध. प. अट्ठ. 1.296; - भूमिभाग पु., कर्म. स. [अकृतभूमिभाग], परती भूमि, नहीं जोता हुआ खेत - अकतभूमिभागो वत्थु, दी. नि. अट्ठ. 1.72; - यूस पु. नपुं., कर्म. स. [अकृतयूष]. पूरी तरह से तैयार न किया हुआ तथा मूंग से बनाया गया एक प्रकार का तरल पेय, जो भिक्षुओं के लिए बुद्ध द्वारा अनुज्ञात पेयों में से एक है - अनुजानामि, भिक्खवे, अकटयूसन्ति, महाव. 283; अकटयूसन्ति असिनिद्धो मुग्गपचितपानीयो, महाव. अट्ठ. 353; - विज्ञत्ति स्त्री., कर्म. स., केवल तृ. वि., ए. व. में क्रि. वि. के रूप में 'अकटवित्तिया' रूप में प्रयुक्त [अकृतविज्ञप्ति], सामान्य परिस्थिति में अनुमोदित न किये गये अथवा अकस्मात् सामने आए हुए विषयों पर संघ द्वारा जारी की गई विज्ञप्ति अथवा अनुमोदन - गिलानस्सत्थाय अप्पवारितट्ठानतोपि वित्तिया अनुआतत्ता कतापि अकता वियाति अकतवित्ति , सारत्थ. टी. 2.243; - विध त्रि., ब. स. [अकृतविध], ऐसे धर्म जिनकी संरचना अथवा निर्माण का विधान किसी के द्वारा न किया गया हो - अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वझा कूटट्ठा, दी. नि. 1. 49; अकटविधाति अकतविधाना, दी. नि. अट्ठ. 1.138.
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