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पद्मपुराणे
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥२६॥
-चारित्तपाहुड
पंच य अणुव्वयाई तिण्णेव गुणव्वयाई भणियाई । सिक्खावयाणि एत्तो चत्तारि जिणोवइट्ठाणि ॥११२।। थूलयरं पाणिवहं मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवत्ती संतोषवयं च पंचमयं ॥११३॥ दिसिविदिसाण य नियमो अणत्थदंडस्स वज्जणं चेव । उवभोगपरीमाणं तिण्णेव गुणव्वया एए॥११४॥ सामाइयं च उववास-पोसहो अतिहिसंविभागो य ।
अंते समाहिमरणं सिक्खासुवयाइ चत्तारि ॥११५॥ -पउमचरिय उ.१४ इसके सिवाय, आचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसारकी निम्न गाया भी पउमरियमें कुछ शब्दपरिर्तनके साथ उपलब्ध होती है
जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं गाणी तिहिगुत्तो खवेदी उस्सासमेत्तेण ॥३८॥
-प्रवचनसार अ. ३ जं अन्नाणतपस्सी खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं। कम्मं तं तिहिगुत्तो खवेइ गाणी महत्तणं ॥१७७।। -पउमचरिउ उ. १०२
ऐसी स्थितिमें पउमचरियकी रचना कुन्दकुन्दसे पहले की नहीं हो सकती। कुन्दकुन्दका समय प्रायः विक्रमकी पहली शताब्दीका उत्तरार्ध और दूसरी शताब्दीका पूर्वार्ध पाया जाता है-तीसरी शताब्दी के बादका तो वह किसी तरह भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी हालतमें पउमचरियके निर्माणका जो समय वि. सं. ६. बतलाया जाता है वह संगत मालूम नहीं होता। मुनि कल्याणविजयजीने तो कुन्दकुन्दका समय वि. की छठी शताब्दी बतलाया है। उन्हें अपनी इस धारणाके अनुसार या तो पउमचरियको विक्रमको छठी शताब्दीके बादका ग्रन्थ बतलाना होगा या वि. संवत ६० से पहलेके बने हए किसी श्वेताम्बर ग्रन्थमें सल्लेखना ( समाधिमरण ) को चतुर्थ शिक्षाव्रतके रूपमें विहित दिखलाना होगा और नहीं तो कुन्दकुन्दका समय विक्रम संवत् ६० से पूर्वका मानना होगा।
[३] उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंकी पउमचरियके कतिपय स्थलोंके साथ तुलना करनेसे दोनों में भारी शब्दसाम्य और कथनक्रमकी शैलीका अच्छा पता चलता है। और यह शब्द साम्यादिक श्वेताम्बरीय भाष्यमान्य पाठके साथ उतना सम्बन्ध नहीं रखता जितना कि दिगम्बरीय सूत्रपाठके साथ रखता हुआ जान पड़ता है। इतना ही नहीं, किन्तु जिन सूत्रोंको भाष्यमान्य पाठ में स्थान नहीं दिया गया है और जिनके विषयमें भाष्यके टीकाकार हरिभद्र और सिद्धसेन गणी अपनी भाष्य वृत्ति में यहाँ तक सूचित करते हैं कि यहाँपर कुछ दूसरे विद्वान् बहुत-से नये सूत्र अपने आप बनाकर विस्तारके लिए रखते हैं उनमें से कितने ही सूत्रोंका गाथाबद्ध कथन भी दिगम्बरीय परम्परासम्मत सूत्रपाठके अनुसार इसमें पाया जाता है। यहांपर पाठकोंकी जानकारीके लिए तत्त्वार्थसूत्रोंकी और पउमचरियकी गाथाओंकी कुछ तुलना नीचे दी जाती है१. देखो, अनेकान्त वर्ष २ किरण १ प्रथम लेख, 'श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषममें पूर्ववर्ती कौन' ? तथा
प्रवचनसारकी प्रो. ए. एन. उपाध्यायकी अंगरेजी प्रस्तावना। २. अपरे पुनर्विद्वान्सोऽति बहूनि स्वयं विरच्यास्मिन् प्रस्तावे सूत्राण्यधीयते विस्तारदर्शनाभिप्रायेण
__सिद्धसेन गणी, तत्त्वा. भा. टी. ३, ११ पृष्ठ २६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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