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पद्मपुराणें
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उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूति द्वारा धर्माशय से शिष्योंके प्रति कही गयी और जो साधु-परम्परासे सकल लोक में उस समय तक स्थित रही ।
रचनाकाल
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विद्वानों में इस ग्रन्थके रचनाकालके सम्बन्ध में भारी मतभेद पाया जाता है। डॉ. विण्टरनीज आदि कुछ विद्वान् तो ग्रन्थ में निर्दिष्ट समयको ठीक मानते हैं । किन्तु पाश्चात्त्य विद्वान् डॉ. हर्मन जैकोबी वगैरह इसकी रचनाशैली, भाषा-साहित्यादि परसे इसका रचनाकाल ईसवीय तीसरी-चौथी शताब्दी मानते हैं । कुछ विद्वान् डॉ. कीथ आदि इसमें 'दीनार' और ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी कुछ ग्रीक भाषा के शब्दोंके पाये जाने के कारण इसे ईसवीयसे ३०० वर्ष या उसके भी बादका बतलाते हैं । और छन्दशास्त्र के विशेषज्ञ श्री दीवान बहादुर केशवलाल ध्रुव उक्त रचनाकालपर भारी सन्देह व्यक्त करते हुए इसे बहुत बादकी रचना बतलाते हैं । आपने अपने लेखमें प्रकट किया है कि इस ग्रन्थ के प्रत्येक उद्देशके अन्तमें गाहिणी, शरभ, आदि छन्दोंका, गीति में यमक और सर्गान्तिमें विमल शब्दका प्रयोग भी इसकी अर्वाचीनताका ही द्योतक है । इनके सिवाय, और भी कितने ही विद्वान् इसके रचनाकालपर संदिग्ध हैं - ग्रन्थ में निर्दिष्ट समयको ठीक मानने में हिचकिचाते हैं, और इस तरह इसका रचनाकाल अबतक सन्देहकी कोटिमें ही पड़ा हुआ है । ऐसी स्थिति में ग्रन्थोल्लिखित समयको सहसा स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
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ग्रन्थके समय-सम्बन्ध में विद्वानोंके उपलब्ध मतोंका परिशीलन करते हुए, मैंने ग्रन्थके अन्तः साहित्यका जो परीक्षण किया है उस परसे में इस नतीजेको पहुँचा हूँ कि ग्रन्थका उक्त रचनाकाल ठीक नहीं है-वह जरूर किसी भूल अथवा लेखक उपलेखककी गल्तीका परिणाम है । और यह भी हो सकता है कि शककालकी तरह वीर निर्वाणके वर्षोंकी संख्याका तत्कालीन गलत प्रचार ही इसका कारण हो, परन्तु कुछ भी हो, ग्रन्थके अन्तःपरीक्षणसे मुझे उक्त समयके ठीक न होनेके जो दूसरे विशेष कोरण मालूम हुए हैं वे निम्न तीन भागों में विभक्त हैं
( १ ) दिगम्बर श्वेताम्बर के सम्प्रदाय भेदसे पहले पउमचरियका न रचा जाना ।
( २ ) ग्रन्थ में दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्दकी मान्यताका अपनाया जाना ।
३ ) उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रों का बहुत अनुसरण किया जाना ।
अब मैं इन तीनों प्रकार के कारणोंका क्रमशः स्पष्टीकरण करके बतलाता हूँ ।
(१) जैनों में दिगम्बर श्वेताम्बरका सम्प्रदाय भेद दिगम्बरों की मान्यतानुसार विक्रम संवत् १३६ में और श्वेताम्बरोंकी मान्यतानुसार संवत् १३९ में हुआ है । इस भेदसे पहले के साहित्य में जैनसाधुओंके लिए
१. पंचैव य वाससया दुसमाए तीस वरिस संजुत्ता । वीरे सिद्धिमुपगए तओ निबद्धं इमं चरियं ॥ १०३ ॥ एयं वीरजिणेण रामचरियं सिद्धं महत्थं पुरा,
पच्छाखण्डलभूइणा उ कहियं सीसास धम्मासयं । भूओ साहुपरंपराए सयलं लोए टिए पायडं
एत्ता हे विमलेण सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कयं ॥ १०२ ॥ २. देखो, 'इन्साइक्लोपीडिया ऑफ ग्लिजीन एण्ड एथिक्स' दिसम्बर सन् १९१४ ।
३. देखो, कीथका संस्कृत साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ३४, ५९ । ४. इन्ट्रोडक्शन टु प्राकृत ।
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- पउमचरिय, उद्देस १०३
भाग ७, पृष्ठ ४३७ और 'मोडर्न रिन्यू'
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