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प्रस्तावना
पच्छइ इदंभूइ आयरिएं। पुणु धम्मेण गुणालंकरिएं । पुणु पहवे संसाराराएं । कित्तिहरेण अणुत्तरवाएं ।
पुणु रविषेणायरियपसाएं । बुद्धिए अवगाहिय कइराएं । अर्थात् यह रामकथारूपी सरिता वर्द्धमान जिनेन्द्र के मुखरूपी कन्दरासे अवतीर्ण हुई है"तदनन्तर इन्द्रभूति आचार्यको, फिर गुणालंकृत सुधर्माचार्यको, फिर प्रभवको, फिर अनुत्तरवाग्मी श्रेष्ठवक्ता कोतिधरको प्राप्त हुई है । तदनन्तर रविषणाचार्य के प्रसादसे उसी रामकथा-सरितामें अवगाहन कर........
इस प्रकार स्वयम्भू द्वारा समर्थित रविषेणके उल्लेखसे जान पड़ता है कि उनके पद्मचरितका आधार आचार्य कोर्तिधर मुनिके द्वारा संदृब्ध रामकथा है । पर यह कीर्तिधर कौन हैं ? इनका आचार्य परम्परामें उल्लेख देखने में नहीं आया। तथा इनकी रामकथा कहाँ गयी ? इसका कुछ पता नहीं चलता। हो सकता है कि कवि परमेश्वरके 'वागर्थसंग्रहपराण' के समान लप्त हो गयी हो।
पउमचरिय और पद्मचरित
उधर जब रविषेणके द्वारा प्रतिपादित अपने पद्मचरितका आधार कीर्तिधर मुनिके द्वारा प्रतिपादित रामकथाको जानते हैं और इधर जब विमलसूरिके उस प्राकृत 'पउमचरिय' को जिसकी कथावस्तु प्रतिपादन शैली, उद्देश अथवा पोंके समानान्त नाम एवं कितने ही स्थलोंपर पद्योंका अर्थसाम्य भी देखते हैं तब कुछ द्विविधा-सी उत्पन्न होती है। पउमचरियमें विमलसूरिने ग्रन्थ निर्माणका जो समय दिया है उससे वह विक्रम संवत् ६० का ग्रन्थ सूचित होता है और रविषेणका पद्मचरित उससे ६७४ वर्ष पीछेका प्रकट होता है। यदि रविषेण पउमचरियको सामने रखकर अपने पद्मचरितमें उसका पल्लवन करते हैं तो फिर एक जैनाचार्यको इस विषयमें उमका कृतज्ञ होकर उनका नामोल्लेख अवश्य करना चाहिए था पर नामोल्लेख उन्होंने दूसरेका ही किया है....यह एक विचारणीय बात है।
'पउमचरिय' का निर्माण समय वही है जिसका कि विमलसूरिने उल्लेख किया है, इसपर विश्वास करनेको जी नहीं चाहता। अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ में श्री पं. परमानन्दजी शास्त्री सरसावाका 'पउमचरियका अन्तःपरीक्षण' शीर्षक एक महत्त्वपूर्ण लेख छपा था। शास्त्रीजीकी आज्ञा लेकर उन्हीं के शब्दोंमें मैं यहाँ वह लेख दे रहा है जिससे पाठकोंको विचारार्थ उचित सामग्री सुलभ हो जायेगी।
पउमचरिय का अन्तःपरीक्षण
'पउमचरिय' प्राकृत भाषाका एक चरित ग्रन्थ है, जिनमें रामचन्द्रकी कथाका अच्छा चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थके कर्ता विमलसूरि हैं। ग्रन्थकर्ताने प्रस्तुत ग्रन्थमें अपना कोई विशेष परिचय न देकर सिर्फ यही सूचित किया है कि-"स्वसमय और परसमयके सद्भावको ग्रहण करनेवाले 'राह' आचार्यके शिष्य विजय थे, उन विजयके शिष्य नाइल-कुल-नन्दिकर मुझ 'विमल' द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया है। यद्यपि
मकी कथाके सम्बन्धमें विभिन्न कवियों द्वारा अनेक कथाग्रन्थ रचे गये हैं परन्तु उनमें जो उपलब्ध हैं वे सब पउमचरियकी रचनासे अर्वाचीन कहे जाते हैं। क्योंकि इस ग्रन्थमें ग्रन्थका रचनाकाल वीर निर्वाणसे ५३० वर्ष बाद अर्थात विक्रम संवत् ६० सूचित किया है। ग्रन्थकारने इस ग्रन्थमें उसी रामकथाको प्राकृतभाषामें सूत्रों सहित गाथाबद्ध किया बतलाया है जिसे प्राचीनकालमें भगवान् महावीरने कहा था, जो बादको
१. राह नामायरिओ ससमय परसमय गहिय सब्भावो ।
विजयो य तस्स सीसो नाइलकूल वंस नन्दियरो ॥११७॥ सीसेण तस्स रइयं राहवचरियं तु सूरि विमलेणं । -पउमचरिय, उद्देस १०३
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