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* जिनसहस्रनाम टीका - १४ * यथासंभवं तीव्रमंदादिरूपेण समंतादतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । उत्पादव्ययैरासमन्तात् वर्तते यः सः आत्मा। अमेयो अमर्यादीभूतो लोकालोकव्यापी आत्मा यस्यासौ अमेयात्मा || शुभाशुभ ऐसे मन वचन काय के व्यापार तीव्र, मन्द, मध्यम आदि रूप से चारों तरफ से जिसमें होते हैं, उसे या उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये जिसमें सतत होते रहते हैं उसको आत्मा कहते हैं, अमेय याने मर्यादारहित लोकालोक व्यापी जिसका आत्मा है, उस जिनेश्वर को अमेयात्मा कहते हैं।
विश्वरीशः = विश्वरी - महीं तस्या: ईश: स्वामी विश्वरीशः पृथ्वीस्वामी इत्यर्थः = पृथ्वी को विश्वरी कहते हैं, समस्त पृथ्वी के जो ईश हैं, स्वामी हैं, ऐसे भगवान विश्वरीश कहे जाते हैं।
___ जगत्पतिः = जगतां त्रिभुवनानां पतिः स जगत्पतिः = जो त्रिभुवनों के स्वामी हैं, उन्हें जगत्पति कहते हैं।
अनन्तजित् = अनन्तं संसार जितवान् अनन्तजित् अथवा अनन्तं अलोकाकाशं जितवान् केवलज्ञानेन तत्यारं गतवान् अनन्तजित्-अनंत संसार को प्रभुने जीत लिया है अत: वे अनन्तजित हैं, या अनन्त अलोकाकाश के पार कोपा लिया है वे अनन्तजित् कहे जाते हैं। मोक्षगृहविशेष जितवान् इति अनंतजित् = मोक्षगृह विशेष पर विजय पायी या जीत लिया उसे अनन्तजित् कहते हैं।
समन्तभद्रस्वामी ने कहा है
अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि। यतो जितस्तत्त्वरुचौ प्रसीदता त्वया ततोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥
अनन्तसंसार के कारण ऐसे मिथ्यात्वादिक दोषों के उदय से जो मलिन मनोभिप्राय यही जिसका शरीर है, ऐसा मोहमय पिशाच 'हृदय' में खूब चिपक गया था, परन्तु जीवादि सप्त तत्त्वों की श्रद्धा में प्रसन्न होकर हे अनन्तनाथ जिन ! आपने उसे जीत लिया था अतः आप भगवान् अनन्तजित् हो गये, अनन्तसंसार को जीतनेवाले ऐसे यथार्थ नामको धारण करने वाले आप हुए
अचिन्त्यात्मा = अचिन्त्य: वाङ्मनसोऽगोचर आत्मा - स्वरूपं यस्येति