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** जिनसहस्रनाम टीका १०८
एकार्थवाचक हैं- उक्तं च, गुणीजन पुण्य को तेज स्वरूप और पाप को अधकार स्वरूप मानते हैं । वह पाप दयारूपी कांति को धारण करने वाले पुरुष में कैसे रह सकता है !
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महोदर्क: = महान् सर्वकर्मनिर्मोक्षलक्षणो, अनंत केवलज्ञानादि लक्षणश्च उदर्क : उत्तरं फलं यस्य स महोदर्क : सर्व कर्मों को नष्ट करके अनन्त केवलज्ञानादि लक्षणयुक्त फल जिनको प्राप्त हुआ है, ऐसे जिनेश्वर महोदर्क
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हैं ।
महोदय: = महान् तीर्थंकरनामकर्मण उदयो विपाको यस्येति स महोदय:, अथवा महान् उत्कृष्टोऽयः शुभावहो, विधिर्यस्येति स महोदय : अथवा महान् कदाचिदप्यस्तं न यास्यति उदयकर्म्मक्षयोत्पन्ने केवलज्ञानस्योद्गमो यस्येति स महोदय:, अथवा महस्तेजो दया सर्व्वप्राणिकरुणा यस्येति स महोदयः । उक्तं
च -
यस्य ज्ञानदयासिन्धोरगाधस्यानया गुणाः । सेव्यतामक्षयो धीरः स श्रिये चामृताय च ।
ज्ञानेन दयया मोक्षो मोक्षः भवतीति सूचितमत्र ।
महान् तीर्थंकर नामकर्म का उदय जिनमें हुआ है ऐसे भगवान महोदय
प्रात
। अथवा हान् उत्-उत्कृष्ट अयः जगत् का कल्याण करने वाला भाग्य जिनको हुआ है ऐसे प्रभु महोदय हैं, अथवा महान् कभी अस्त को प्राप्त नहीं होगा ऐसा कर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ है केवलज्ञान का उदय जिनके ऐसे प्रभु महोदय हैं अथवा महस्तेज और दया, सर्व प्राणियों के प्रति दयाभाव जिनके हैं ऐसे प्रभु महोदय हैं। कहा भी है- जो जिनदेव अगाध - जिसके तलभाग का स्पर्श करने में हम अल्पज्ञ असमर्थ हैं तथा जिसके निर्दोष गुण हमारी बुद्धि को प्रेरणा देने वाले हैं, ऐसे ज्ञान तथा दया के समुद्र रूप तथा अक्षय जो जिनेश्वर हैं उनका हे भव्यजन ! आप अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सेवन करो, आराधना करो। इस श्लोक से ज्ञान और दया के आचरण से मोक्ष प्राप्त होगा ऐसा सूचित किया गया है।