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* जिनसहस्रनाम टीका - १८५ * पुष्टिदः= पुष्टिं पोषणं उदरदा पूर्ति ददातीति पुष्टिदः= प्रभु भव्यों का उदरपोषणरूप पुष्टि देने वाले हैं क्योंकि असि, मसि, कृषि आदि का व्यवहार प्रभु ने ही बताया था।
पुष्ट:= पुष्यति स्म पुष्ट; पूर्व सिद्ध समान ज्ञान दर्शन सुख वीर्याद्यनंतगुणैः सबल:, उक्तं च
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलं । तयोमैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ।।
प्रभु अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्यादिक अनन्तगुणों से सिद्ध समान पुष्ट हैं, सबल हैं। अत: वे पुष्टनाम से कहे जाते हैं। लोकोक्ति भी है
जिनके पास समान धन है, जिनका कुल समान है उनमें मैत्री तथा विवाह होता है। परन्तु जो समान पुष्ट नहीं हैं अर्थात् एक धनसंपन्न तथा कुलसम्पन्न है और दूसरा धन, कुल सम्पन्न नहीं है उन दोनों में मैत्री, विवाह नहीं होता। अतः आदिप्रभु अनन्तज्ञानादि गुणों से पुष्ट हैं अत: दोनों समान हैं।
स्पष्ट:= 'स्पर्शो वा धनस्पर्शनयोः स्पृश्यते स्म स्पष्टः प्रकट इत्यर्थः विशदं, प्रकटं, स्पष्ट, प्रकाशं स्फुटमिष्यते' इति हलायुधे = विशद, प्रकट, स्पष्ट, प्रकाश और स्फुट को स्पष्ट कहते हैं अतः आप प्रकट हैं, स्पष्ट हैं, विशद हैं, प्रकाशयुक्त हैं।
स्पष्टाक्षर:= स्पष्टानि व्यक्तानि श्रोत्रमन: प्रियाण्यक्षराणि वर्णा यस्येति स्पष्टाक्षरः । तथानेकार्थे -
अक्षरं स्यादपवर्गे परमब्रह्मणोरपि । गगने धर्मतपसोरध्वरे मूलकारणे॥
मोक्ष और परमब्रह्म जो अविनाशी हैं, उनका क्षरण नाश नहीं होता अत: वे अक्षर हैं। आकाश, धर्म, तप, यज्ञ और मूलकारण ये भी अक्षर शब्द के वाच्य हैं, यहाँ भगवंत की वाणी स्पष्टाक्षरयुक्त और प्रिय थी, इस अर्थ की अपेक्षा है।