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*जिनसहस्रनाम टीका - १९४ 23 दीप्त:- दीप्यते स्म दीप्तः दीप्तवानित्यर्थः- प्रभु कोट्यवधि चन्द्र सूर्य की दीप्ति से भी अधिक प्रकाश के धारक हैं। अत: दीप्त हैं।
शंवान् = शं सुखमस्यास्तीति शंवान् = मोहनीय कर्म को विध्वस्त कर प्रभु ने शं - अनन्तसुख को प्राप्त किया है। अतः शंवान् हैं।
विघ्नविनायकः= विघ्नं विद्युदादयः तेषां विनायकः स्फेटक; विघ्नविनायकः, अथवा विघ्नकरणमंतरायस्येति तत्त्वार्थवचनात् दानादीन्युक्तानि दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि चेत्यत्र तेषां विहननं विघ्नः विघ्नस्यांतरायस्य विनायकः स्फेटको विघ्न-विनायक: अंतरायकर्मविनाशक इत्यर्थ:- बिजली गिरना आदिक जो उपद्रव उत्पन्न होते हैं उनको विघ्न कहते हैं। उनके विनायक - विनाशक प्रभु हैं। या दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य की प्राप्ति होने में जो विघ्न कर्म है उसे अन्तराय कहते हैं। दान अन्तराय कर्म के उदय से पात्र को आहारादि दान देने के परिणाम उत्पन्न नहीं होते, लामान्तराम से लाभप्रापित नहीं होती, भोगान्तराय से भोगने की इच्छा होने पर भी भोग नहीं सकता, बार-बार जो पदार्थ भोगे जाते हैं ऐसे पदार्थ स्त्री-वस्त्रादिक का उपभोग प्राणी नहीं कर सकते। तथा कोई कार्य करने का उत्साह न हो वह वीर्यान्तराय है। आदि भगवंत ने ये पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म शुक्लध्यान से नष्ट किये। अत: वे विघ्नविनायक
कलिघ्नः= कलिं सङ्ग्राम हन्तीति कलिघ्नः, 'कलिविभीतके शूरे विवादेभ्यपुणे युधि' इत्यनेकार्थे - कलि - संग्राम - युद्ध को प्रभु घ्न - नष्ट करते हैं। प्रभु के दर्शन से पारस्परिक वैर नष्ट होकर मित्रता उत्पन्न होती है। कलि शब्द संग्राम, पाप, विभीतक (हरड़), शूर, विवाद, युद्ध आदि अनेक अर्थ में है। अत: कलि, पाप, बैर, युद्ध का नाश करते हैं अत: कलिघ्न हैं। ___कर्मशत्रुघ्नः = कर्मशत्रून् हन्तीति कर्म - शत्रुघ्नः= ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को नष्ट करने वाले प्रभु कर्मशत्रुघ्न हैं।
लोकालोकप्रकाशक: = लोकालोकयोः प्रकाशक: उद्द्योतक: कथकः लोकालोकप्रकाशक:= केवलज्ञान से षद्रव्यात्मक लोक तथा केवल आकाश को जानकर उनका कथन करने वाले भगवान तथानामवाले हैं।