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* फिनसहस्रनाम टीका - २३८ * अतिक्रान्तानि इन्द्रियाणि अतीन्द्रियाणि तान्येव ज्ञानं, सुखं आत्मस्वरूपं यस्य स अनिद्रियात्मा तस्मै अनिन्द्रियात्मने ॥२५॥
अर्थ : शोभनीय सुष्टु अविनाशी केवलज्ञान जिसके होता है, उसको सुगति कहते हैं। जो धातु गति अर्थ में हैं वे ज्ञान अर्थ में भी हैं अतः गति का अर्थ ज्ञान है। उस केवलज्ञान को प्राप्त भगवान ! आपको नमस्कार हो। मोक्ष रूपी शुभ गति को प्राप्त भगवन् तुम्हारे लिए नमस्कार हो। अतीन्द्रिय ज्ञान ही सुख है, वही आत्मा का स्वरूप है। अतः अतीन्द्रिय ज्ञान रूप, अतीन्द्रिय सुख स्वरूप, अतीन्द्रिय आत्मा के लिए नमस्कार हो अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुखमय आत्मा के लिए नमस्कार करते हैं।॥२५॥
कायबन्धननिर्मोक्षादकायाय नमोस्तु ते । नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनाधियोगिने ॥२६ ।।
टीका - कायबन्धननिर्मोक्षादकायाय नमोस्तु ते। ते तुभ्यं नमोऽस्तु पादप्रणामोऽस्माकम् । कस्मै ? अकायाय औदारिक वैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि' इति तत्त्वार्थसूत्रवचनात् तैः रहिताय। कस्मात् कायबंधननिर्मोक्षात् कायस्य बंधनानि कर्माणि तेषां निर्मोक्षात् मोचनात् अथवा न विद्यते काय: शरीर यस्येति अकायः तस्मै अकायाय परमौदारिक तैजस कार्माण शरीर त्रय रहिताय इत्यर्थः। पुन: तुभ्यं नमः । कस्मै अयोगाय न विद्यते योगो मनोवाक्कायव्यापारो यस्य स अयोग: तस्मै अयोगाय । पुनः योगिनां महामुनीनां अधियोगी स्वामी तस्मै योगिनामधियोगिने =
अर्थ : शरीर रूपी बंधन से छूट जाने से अकाय (शरीर रहित) रूप आपको नमस्कार हो। अर्थात् औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण ये पाँच शरीर नहीं हैं अत: वे अकाय हैं, उनके चरणों में मैं नमस्कार करता हूँ।
मन, वचन और काय से होने वाले, आत्मप्रदेशों में कम्पन नहीं होने से अयोग (योगरहित) हैं अत: तुम्हारे लिए नमस्कार हो ! हे भगवन् आप योगियों (महामुनिजनों) के अधियोगी हैं, शिरोमणि हैं, अत: आपको नमस्कार हो ।॥२६॥