Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 258
________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २४२ अकषायी - (कषायों के नाशक) प्रभुवर तुम्हारे लिए नमस्कार हो । नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों का संगम कराकर आत्मा को करती हैं, सन्ताप देती हैं, दुःख देती हैं वे क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायें जिसके नहीं हैं वह अकषाय कहलाता है। यशस्तिलकचम्पू में श्री सोमदेव आचार्य ने कहा है कि कल्याण के इच्छुक प्राणियों के लिए संयम के साथ, कषायों का निग्रह करना, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना, व्रतों का पालन करना रूप संयम ही कल्याणकारी है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का धारण करना, ईर्ष्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेपण और व्युत्सर्ग इन पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, रूप तीन दंडों (योगों) का त्याग करना तथा पाँच इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना संयम है और संयम की मूल घातक कषाय हैं। काय - - जिस प्रकार निर्मल वस्तु को कालुष्य ( मलिन) करने का या उस पर कालादि रंग चढ़ाने का कारण नैग्रोधादि कषायले पदार्थ हैं उसी प्रकार कषायले पदार्थ के समान कषायें निर्मल आत्मा की मलिनता की कारण हैं। स्व अपराधस्वयं आत्मा में रागद्वेष परिणमन करने की शक्ति और पर अपराध मोहनीय कर्म रूप परिणत पुद्गल वर्गणाओं का उदय इन स्व पर अपराध से आत्मा और पुद्गल विकृत रूप होते हैं तब आत्मा में पापानुष्ठान रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, उसको क्रोध कहते हैं। विद्या, विज्ञान, ऐश्वर्य आदि भौतिक पदार्थों को प्राप्त कर घमण्ड से युक्त प्राणी पूज्य, पूजा (पूज्य पुरुषों) का व्यतिक्रम करता है उनका अपमान करता है । युक्तिपूर्वक शास्त्रों के द्वारा वस्तु के स्वरूप को बता देने पर भी दुराग्रह को नहीं छोड़ता है इसमें मान कषाय कारण है। मन वचन और काय की क्रिया के भिन्न-भिन्न होने से दूसरों को ठगने के अभिप्राय से प्रवृत्ति होती है वा ख्याति, लाभ, पूजा आदि के अभिनिवेश से छल रूप प्रवृत्ति होना माया है। चेतन पुत्र, स्त्री, गाय, घोड़ा आदि, अचेतन घर, आभूषण आदि वस्तुओं में चित्त की ममता होना, 'ये मेरे हैं, ' ऐसे भाव होना तथा वेतन-अचेतन पदार्थ की अभिवृद्धि में संतोष होना, हर्ष होना और इनके विनाश में असंतोष होना - विषाद होना लोभ है।

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