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* जिनसहस्रनाम टीका - २५३ " पक्षी अपने अण्डे को सेते हैं, वह ओज (ऊष्म) आहार है। देवों के खाने का विचार आते ही कण्ठ से अमृत झरता है वह मानसिक आहार है।
वृक्षों के मिट्टी पानी का लेप्य है जिससे वे जीवन्त रहते हैं वह लेप्य आहार है।
नारकियों के कर्मों का आना ही कर्म आहार है।
वीतराग प्रभु के अत्यन्त सूक्ष्म, दूसरे साधारण प्राणियों में नहीं पायी जाने वाली वर्गणा शरीर के सम्बन्ध को प्राप्त होती है अत: कवलाहार के बिना भी उनका शरीर आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व तया रह सकता है आस. बिहार तृप्त रहने वाले, कवलाहार के बिना जीवित रहने वाले आपको नमस्कार हो।
आप श्रेष्ठ कान्ति (दीप्ति) से युक्त हैं, आपके शरीरकी कान्ति हजारों सूर्यों की कान्ति को निस्तेज करने वाली है। ऐसे परम कान्ति वाले आपको नमस्कार हो।
हे भगवन् ! आप रागद्वेषादि आन्तरिक और क्षुधा आदि १८ बाह्य दोषों से रहित होने से व्यतीतादोष' कहलाते हो। तथा संसार-समुद्र को पार करदिया है, संसार का नाश कर दिया है अत: 'भवाब्धिपार' ऐसे कहलाते हो आपको नमस्कार हो।
अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने।'
अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने ।।३२ ।।
टीका - तुभ्यं नमः कस्मै अजराय न विद्यते जरा वार्धक्यमस्येति अजर: तस्मै अजराय। पुनः नमस्ते स्तादजन्मने ते तुभ्यं नमः नमस्कारस्तात् भवतु अस्माकम् कस्मै अजन्मने न विद्यते जन्म मातृगर्भे पुनरागमनं यस्येति अजन्मा तस्मै अजन्मने । पुन: तुभ्यं नमः, कस्मै अमृत्यवे, मृङ् प्राणत्यागे, म्रियतेऽनेनेति मृत्युः ‘भुजिमृङ्भ्यां युक्फको' न विद्यते मृत्युरंतकालो यस्येति अमृत्युः तस्मै अमृत्यवे । पुनः अचलाय न चलति स्वस्वभावादिति अचल: तस्मै अचलाय,
१. वीतजन्मने यह पाठ भी है।