Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 267
________________ | T I * जिनसहस्रनाम टीका २५१ * संजयसंज्ञि द्वयावस्थाव्यतिरिक्तामलात्मने । नमस्ते वीतसंज्ञाय नमः क्षायिकदृष्टये ॥ ३० ॥ - टीका - संज्ञिन: समनस्का असंज्ञिनः अमनस्का: संजय - संज्ञिद्वयावस्था तया व्यतिरिक्तो रहितोऽमलो निर्मलो आत्मा यस्य स संज्ञयसंज्ञिद्रयावस्था व्यतिरिक्ता मलात्मने । पुनः ते तुभ्यं नमः मल्लक्षणजनस्य प्रणामोऽस्तु कस्मै वीतसंज्ञाय वीत: विशेषेण प्राप्त इत: संज्ञा केवलज्ञानं येन स वीतसंज्ञः तस्मै वीतसंज्ञाय विशेषेण प्राप्त संज्ञानाय इत्यर्थः । पुनः नमः कस्मै क्षायिकदृष्टये क्षायिकं मिथ्यात्वं, सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभचतुष्टयं तेन रहितं क्षायिकसम्यक्त्वं तदेव दृष्टिर्दर्शनं सम्यक्त्वं यस्य स क्षायिकदृष्टिः तस्मै क्षायिकदृष्टये ॥ ३० ॥ अर्थ : मन सहित को संज्ञी कहते हैं और मन रहित को असंज्ञी कहते हैं। ये दोनों अवस्थाएँ ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होती हैं, वीतराग प्रभु का ज्ञान क्षायिक है अतः प्रभु संज्ञी और असंज्ञी दोनों अवस्था से रहित निर्मल आत्मा हैं, उस संज्ञ्यसंज्ञिद्वय अवस्था व्यतिरिक्त निर्मल आत्मा को मेरा नमस्कार हो । वीतसंज्ञा - वि= विशेष रूप से, इतः प्राप्त हुई संज्ञा - केवलज्ञान जिनको उनको वीतसंज्ञा कहते हैं। या विशेष रूप से सम्यग्ज्ञान को वीतसंज्ञा कहते हैं। अथवा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से रहित होने से भी आप 'वीतसंज्ञा' हैं अतः वीतसंज्ञा वाले आपको नमस्कार हो । अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होने वाले क्षायिक सम्यग्दर्शन युक्त आपको नमस्कार हो ॥ ३० ॥ से अनाहाराय तृप्ताय नमः परमभाजुषे । व्यतीताशेषदोषाय भवाब्धेः पारमीयुषे ॥ ३१ ॥ टीका न विद्यते आहार : कवलाहारो यस्य स अनाहारः तस्मै - अनाहाराय । षड्भेदः आहारः आगमे प्रतिपादित: →

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