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* जिनसहस्रनाम टीका - २४३ * पत्थर की रेखा, पृथ्वी की रेखा, धूलिरेखा और जलरेखा के भेद से क्रोध चार प्रकार का है। ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यक्, मनुष्य और देवगति के कारण हैं। पत्थर के समान, हड्डी के समान, काठ के समान
और बेंत के समान मान चार प्रकार का है। ये चार प्रकार के मान क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के कारण होते हैं। बाँस की जड़ के समान, मेढ़े के सींग के समान, गोमूत्र के समान और खुरपा के समान माया के चार भेद हैं। यह चार प्रकार की माया भी क्रमशः जीव को नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देवगति में ले जाती है। इसमें चौथी कषाय चमर के समान मानी है। लोभ कषाय भी चार प्रकार की है। क्रिमि राग के समान, चक्रमल (रथ आदि के पहियों के भीतर का ओंगन) के समान, शरीर के मैल के समान, हल्दीरंग के समान । ये चारों कषायें भी क्रम से नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य
और देवगति की उत्पादक हैं। ये कषायें किसके नहीं हैं अर्थात् संसार में सर्व प्राणियों के हैं।
जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषायें नहीं हैं तथा जो बाह्य अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं। उनको, कषायों से रहित नाभिनन्दन को नमस्कार हो।
परम योगीन्द्रों के द्वारा वन्दित दो चरण वाले भगवन् ! आपको नमस्कार
हो।
परमयोगीन्द्र आदिनाथ भगवान् वृषभसेन, कुभ', दृढ़रथ', शतधनु, देवशर्मा', देवभाव, ननन्दन", सोमदत्त', सूरदत्त', वायुशर्मा, यशोबाहु११, देवाग्नि१२, अग्निदेव३, अग्निगुप्त४, मित्राग्नि५, हलभृत१६, महीधर७. महेन्द्र ८, वसुदेव१९, वसुन्धर२९, अचल, मेह२२, मेरुधन२३, मेरुभूति२४, सर्वयश२५, सर्व गुप्त२६, सर्वप्रिय२७, सर्वदेव२८, सर्वयज्ञ२९, सर्वविजय३०, विजयगुप्त३१, विजयमित्र३२, विजयिल२३, अपराजित३४, वसुमित्र३५, विश्वसेन ६, साधुसेन, सत्यदेव, देवसत्य३९, सत्यगुप्त , सत्यमित्र, निर्मल४२, विनीत४३, संवर४, मुनिगुप्त५, मुनिदत्त४६, मुनियज्ञ"७, मुनिदेव ८,